मुलायम सिंह यादव ने सोलहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र के आखिरी दिन सदन में बेहद गरिमामय तरीके से सरकार के कामों की प्रशंसा करते हुए यह कामना की कि यह सरकार दोबारा चुनकर आवे। मीडिया ने लगे हाथ इसे सुर्खियों में तान दिया और इसके राजनीतिक मायने निकाले जाने लगे।
स्थिति यह है कि मुलायम का यह बेहद संक्षिप्त और विनम्र बयान देखते-देखते मीडिया में विवाद का विषय बना दिया गया और ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। इसे कैसे समझा जाए? क्या मुलायम वाकई मोदी सरकार की प्रशंसा कर के कोई राजनीति कर रहे थे, जबकि कल ही इलाहाबाद में उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को बुरी तरह योगी सरकार ने पीटा है और उनके बेटे व प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री को हवाई जहाज में चढ़ने से रोक दिया गया?
मुलायम पुराने ज़माने के नेता हैं। वे जानते हैं कि वैचारिक मतभेद अपनी जगह हैं, निजी रिश्ते अपनी जगह। वे जानते हैं कि संसद और सड़क के बीच एक बुनियादी फ़र्क होता है। सड़क की लड़ाई को संसद में लाना संसद की गरिमा को चोट पहुंचाएगा। इसीलिए उन्होंने चुपचाप सरकार को उसके किए की शुभकामना दी और अगली बार उसके चुन कर आने की कामना की।
दूसरी ओर मीडिया कौवे की तरह कान लेकर उड़ गया और सब जगह हेडलाइन चलने लगी कि मुलायम ने मोदी के दोबारा प्रधानमंत्री बनने की बात कही है। इसे ब्रेकिंग और सनसनीखेज तरीके से चलाया जाने लगा। स्थिति यह हो गई कि देखते-देखते यह मुद्दा ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा। किसी ने भी यह पता करने की ज़हमत नहीं उठायी कि पिछली सरकारों के आखिरी सत्र में एक बार विपक्षी नेताओं का संबोधन देख लिया जाए।
पिछली यूपीए सरकार में आखिरी सत्र में सदन में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी बिलकुल इसी तर्ज पर बड़ी विनम्रता से यूपीए सरकार को उसके कामों के लिए बधाई दी थी। इस देश के सत्तर साल के लोकतंत्र में यही संसदीय परंपरा रही है। इस परंपरा का ज्ञान न आज के पत्रकारों को है और न संपादकों को, जिन्हें केवल खबर निकाल कर विवाद खडा करने की आदत हो चली है।
मुलायम पुराने नेता हैं। जानते हैं कि कौन सी बात सड़क पर कहनी है और कौन सी सदन मे। आज से पांच साल पहले मुलायम सिंह ने बनारस में हुई एक राजनीतिक जनसभा में साफ कहा था कि अगर यह सरकार सबको साथ लेकर चलेगी तो जनता उसका साथ देगी वरना जनता बहुत समझदार है, यह 1977 में देश देख चुका है। ज़ाहिर है, राजनीतिक रैली और संसद का फर्क मुलायम की पीढ़ी के नेता जानते हैं। अफ़सोस पत्रकारों पर किया जाना चाहिए जिन्हें संसदीय गरिमा का ककहरा नहीं मालूम।
वैसे, एक और दिलचस्प बात है। आम तौर से पत्रकारों की शिकायत रहती है कि नेताजी की भाषा समझ में नहीं आती। पत्रकार मज़ाक में ही इस बात को नहीं कहते बल्कि मानते भी हैं कि मुलायम सिंह यादव के कहे को समझने के लिए एक अनुवादक की जरूरत होगी। आज फिर कैसे ऐसा हो गया कि सभी पत्रकारों को एक बार में नेताजी का कहा समझ में आ गया?
हकीकत यह है कि आज भी मीडिया को मुलायम सिंह का कहा समझ में नहीं आया। फर्क यह है कि आज मामला भाषा का नहीं, उसके मर्म का था जिसे समझने के मामले में यह मीडिया निपट अनपढ़ निकला।