…और उनका लेख छप गया!

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उन्होंने तय किया कि वे खुद भारत के किसी अखबार के लिये एक लेख लिखेंगे. उनकी पुरानी पत्रिका दिनमान शायद अब भी निकल रही थी, लेकिन रघुवीर सहाय की मौत के बाद पत्रिका के साथ अरोड़ा जी के कोई संपर्क नहीं रह गये थे. खैर, लेख तो उन्होंने लिख ही डाला, और उसके बाद रजनीश से संबंधित कटिंग्स छानते हुए वे किसी अखबार का पता ढूंढने लगे. वहां उन्हें किसी खबर के पन्ने के नीचे पिताजी के अखबार का पता दिख गया और उन्होंने उस पते पर अपना लेख भेज दिया.


उज्‍ज्‍वल भट्टाचार्य

लोग उन्हें आमतौर पर पिताजी कहते थे. अपनी आख़िरी घड़ी तक वह हिंदी पत्रकारिता के जगत में परिवार द्वारा स्थापित मानकों की रक्षा करते रहे. पठन-पाठन, पूजा-पाठ और अपने स्तर व दायरे में सामाजिकता ही उनकी दिनचर्या के मुख्य अंग थे. पत्रकारों की स्वतंत्रता के वे हिमायती थे, व संकट की स्थिति के अलावा वे अपने स्थानीय होते राष्ट्रीय अखबार के मामलों में कोई ख़ास हस्तक्षेप नहीं करते थे. उनका मानना था कि उनके लिये काम करने वाले विश्वस्त लोग होने चाहिये, जिन पर आंख मूदकर भरोसा किया जा सके. उन्हें देखने से लगता था कि उन्हें शिकार का शौक होना चाहिये. पता नहीं, उन्हें यह शौक था या नहीं, लेकिन गुस्से में आने पर वे हमेशा बंदूक लाने का हुक़्म देते थे. पिताजी के गुस्से को आसपास के लोग गंभीरता से लेते थे, लेकिन बंदूक लाने के हुक़्म को नहीं.

कोलोन और बॉन में स्वतंत्र पत्रकार मेरे सहकर्मी अरोड़ा जी भी कलकत्ता के एक अभिजात परिवार के थे. हिप्पी आंदोलन, अध्यापन, दिनमान में पत्रकारिता और फिर अपनी जर्मन पत्नी या जन्मजात यायावर प्रवृत्ति के कारण जर्मन प्रवास के चलते वे स्वतंत्र पत्रकार बन चुके थे, जिनका काम दरअसल जर्मन लेखों का हिंदी में अनुवाद करना रह गया था. ‚भगवान‘रजनीश कभी उनके अध्यापक सहकर्मी हुआ करते थे, और हमारे अरोड़ा जी उनके विचारों से अत्यंत प्रभावित थे और कहीं भी अखबारों में रजनीश से संबंधित कोई टिप्पणी मिल जाती तो उसे वे संजोकर अपने पास रख लेते थे.

बहरहाल, अमरीकी राष्ट्रपति कार्टर जर्मनी आये हुए थे, और अरोड़ा जी उनकी यात्रा पर लिखी गई एक समीक्षा का अनुवाद कर रहे थे. समीक्षा उन्हें पसंद नहीं आई, लेकिन यह कोई नई बात नहीं थी. लेकिन पता नहीं क्या हुआ, इस नापसंदगी की वजह से उनकी सृजनात्मक सत्ता फिर से जाग उठी, और उन्होंने तय किया कि वे खुद भारत के किसी अखबार के लिये एक लेख लिखेंगे. उनकी पुरानी पत्रिका दिनमान शायद अब भी निकल रही थी, लेकिन रघुवीर सहाय की मौत के बाद पत्रिका के साथ अरोड़ा जी के कोई संपर्क नहीं रह गये थे. खैर, लेख तो उन्होंने लिख ही डाला, और उसके बाद रजनीश से संबंधित कटिंग्स छानते हुए वे किसी अखबार का पता ढूंढने लगे. वहां उन्हें किसी खबर के पन्ने के नीचे पिताजी के अखबार का पता दिख गया और उन्होंने उस पते पर अपना लेख भेज दिया.

तीन हफ़्ते बाद संपादक का पत्र आया, जिसमें कहा गया था कि लेख उन्हें बहुत पसंद आया है और वे उसे छापना चाहते हैं. संपादक जी के नाम से ही ज्ञान की महिमा प्रकाशित हो रही थी, हालांकि वह एक छद्मनाम सा लगता था. पत्र में इस सिलसिले में अरोड़ा जी से पूछा गया था कि क्या वह लेख के लिये पारिश्रमिक लेने को तैयार हैं?

अरोड़ा जी पत्र पाकर बेहद ख़ुश हुए. फिरती डाक से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्होंने सूचित किया कि वह पारिश्रमिक लेने को भी तैयार हैं.

तीन हफ़्ते बाद संपादक का अगला पत्र आया, जिसमें कहा गया था कि उनके अखबार में लेख के लिये पारिश्रमिक की राशि अरोड़ा जी के जर्मन प्रवास के मद्देनज़र अत्यंत कम होती है. क्या वह पारिश्रमिक की तुच्छ राशि भी स्वीकार करने के लिये तैयार हैं?

अरोड़ा जी फिर एकबार ख़ुश हुए और उन्होंने फिरती डाक में संपादक को आश्वस्त किया कि वह कोई भी राशि स्वीकार करने को तैयार हैं, बल्कि बिना पारिश्रमिक भी प्रकाशित होने को तैयार हैं.

तीन हफ़्ते बाद संपादक जी का अगला पत्र आया, जिसमें अरोड़ा जी की उदारता की सराहना करते हुए कहा गया था कि उनका सारगर्भित निबंध शीघ्र ही उचित समय पर प्रकाशित होने जा रहा है.

अरोड़ा जी की ख़ुशी और बढ़ गई. उन्होंने फिरती डाक से अपना आभार व्यक्त करते हुए अनुरोध किया कि लेख छप जाने के बाद उन्हें उसकी एक प्रति भेजी जाय.

तीन हफ़्ते बाद संपादक जी का पत्र आया, जिसमें अरोड़ा जी को आश्वस्त किया गया था कि उनका सारगर्भित निबंध प्रकाशित होते ही उन्हें उसकी एक प्रति प्रेषित की जाएगी.

अरोड़ा जी और अधिक ख़ुश हुए. उनकी उत्सुकता बढ़ती गई, वह पहले बेताबी में, फिर लाचारी में, आख़िरकार लापरवाही में बदलती गई. लेख की प्रति नहीं आई. फिर वह इस वाकये को लगभग भूल गये.

साल भर बाद अरोड़ा जी भारत गये हुए थे. साथ में गोरी पत्नी, दो आधे गोरे बेटे, और ऊपर भारत की वासंती धूप. खैर परिवार को भारत दर्शन कराना था. वे कलकत्ता गये और तय किया कि ट्रेन से दिल्ली वापस जाते हुए रास्ते में सुबह बनारस में उतरकर सारनाथ, विश्वविद्यालय, विश्वनाथ मंदिर और गंगाजी का दर्शन करते शाम की ट्रेन से दिल्ली चला जाय. सारनाथ से वे रिक्शे में शहर की ओर जा रहे थे कि रास्ते में उन्हें अखबार का शानदार महल दिखा. अरोड़ा जी को तुरंत सारी बातें याद आ गई. उन्होंने रिक्शेवाले को रोकने के लिये कहा और सपरिवार वे अखबार के रिसेप्शननुमा कुर्सी-टेबुल के पास पहुंचे. संपादक जी का नाम लेते हुए उन्होंने कहा कि वह उनसे मिलना चाहते हैं. इस गोरे-काले परिवार को देखकर रिसेप्शनिस्ट-दरवान घबरा गया था, उसने अंदर से तीन-चार टीन की कुर्सियां मंगाई और उन्हें बैठाकर पर्ची लेकर अंदर गया. अंदर से चंडीपाठ का स्वर सुनाई दे रहा था. दो-तीन मिनट बाद उसने कहा कि संपादक जी शीघ्र आने वाले हैं, आप लोग यहां इंतज़ार कीजिये. उनके लिये चाय-बिस्कुट और बच्चों के लिये मिठाइयां मंगाई गई, बड़े बेटे ने खाने से इंकार कर दिया, छोटे ने खा लिया, उनकी मां शक भरी नज़र से उसे देखती रही.

एक्स्ट्रा पैसे की लालच दिखाकर अरोड़ा जी ने रिक्शेवाले से निपट लिया था. टीन की कुर्सी पर बैठकर वह दूर से आता चंडीपाठ सुन रहे थे. उनकी पत्नी भारतीय संस्कृति से अभिभूत होने की कोशिश कर रही थीं. लगभग बीस मिनट बाद उन्होंने अपने पति से जानना चाहा कि यहां का यह कार्यक्रम कितनी देर का है. अरोड़ा जी की दो बेताबियां एक-दूसरे से टकरा रही थीं. खैर, पांच मिनट बाद उन्होंने रिसेप्शनिस्ट-दरवान से कहा कि अब वे जाना चाहते हैं, संपादक जी से कह दिया जाय कि इस बार मिलना नहीं हो पाया. घबराकर रिसेप्शनिस्ट-दरवान ने कहा कि वह एक मिनट रुक जायं. वह भागे-भागे अंदर गया और एक ही मिनट में एक श्यामवर्ण मुनीमनुमा सज्जन उसके साथ बाहर आये, और अपना परिचय देते हुए अरोड़ा जी और उनके परिवार का स्वागत किया. यही संपादक जी थे. इससे पहले कि अरोड़ा जी कुछ कह पाते, संपादक जी उन्हें अंदर ले गये.

अंदर का दृश्य अत्यंत प्रभावशाली था, विशाल कक्ष में चालीस-पचास कर्मचारीनुमा लोग बैठे हुए थे. सामने सारी व्यवस्था के साथ ऊंचे स्वर में चंडीपाठ चल रहा था. उसके निकट एक काफ़ी अच्छे डील-डौल वाले और भारतीय हिसाब से अत्यंत गोरे व प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले सज्जन बैठे हुए थे, जिन्हें देखते ही लगता था कि वह इस आयोजन के केंद्र में हैं. उनके निकट एक अध्यापकनुमा और एक पंडितनुमा सज्जन बैठे हुए थे. अध्यापकनुमा सज्जन के चेहरे में गंभीरता छाई हुई थी, जबकि पंडितनुमा सज्जन अकारण ख़ुश दिख रहे थे. संपादक जी ने प्रभावशाली व्यक्तित्व की बांई ओर खाली जगह पर बैठते हुए अरोड़ा जी को भी अपने पास बिठाया, और उन्होंने प्रभावशाली व्यक्तित्व के कानों में धीरे से कुछ कहा, जिसे सुनकर वे अरोड़ा जी की ओर देखे और होठों पर एक अत्यंत स्मित हास्य की आभा के साथ उन्होंने अरोड़ा जी का सस्नेह स्वागत किया.

अपने संस्कारों से प्राप्त अनुभवों से अरोड़ा जी समझ चुके थे कि प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले यह सज्जन इस संस्था के सर्वोच्च पुरुष हैं और यह चंडीपाठ 6-7 मिनट में समाप्त होने वाला है. और ऐसा ही हुआ. उसके उपरांत संपादक जी ने अरोड़ा जी का परिचय करवाया. पता चला कि प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले सज्जन अखबार के मालिक हैं, उन्हें पिताजी कहा जाता है, और अध्यापक व पंडित जैसे दिखने वाले बाकी दोनों अखबार के अन्य वरिष्ठ संपादक हैं. पिताजी ने कुशल मंगल पूछते हुए अरोड़ा जी से दो-तीन दिन काशी नगरी में रुकने को कहा और उनके लिये रहने व गाड़ी की व्यवस्था करने का प्रस्ताव दिया. अरोड़ा जी ने अपनी असमर्थता व्यक्त की और कहा कि उन्हें शाम को दिल्ली की ट्रेन पकड़नी है. पिताजी इसके बाद चले गये. कर्मचारीनुमा लोग भी प्रसाद लेते हुए तितरबितर होने लगे.

संपादक जी बेहद ख़ुश थे. उन्होंने कहा, अब मालिक से आपका परिचय हो गया है, सारी समस्यायें दूर हो गईं. अरोड़ा जी को यह बात कुछ समझ में नहीं आई. हिम्मत करते हुए उन्होंने पूछा, समस्या कैसी थी ?

संपादक जी ने उन्हें समझाया : “देखिये, ऐसा है कि हम तो आपका लेख छापने जा रहे थे, लेकिन मालिक ने मना किया. उन्होंने कहा, देखो, इस व्यक्ति को हम जानते नहीं हैं, पता नहीं क्या लिख दिया होगा. अब कोई समस्या नहीं रह गई है. मालिक से आपका परिचय हो गया है. आप ठाट से लिखिये और हम तुरंत छाप देंगे.“

और अरोड़ा जी का यह लेख छप गया. कार्टर इस बीच दूसरी ख़बरों के साथ अखबारों के पन्ने सुशोभित कर रहे थे. अरोड़ा जी को अपने लेख की प्रति भी मिल गई. आज भी उसकी कटिंग उनके पास रखी है, भगवान रजनीश की कटिंग्स के साथ.


लेखक जर्मन रेडियो डोएचेवले के वरिष्‍ठ संपादक रह चुके हैं