12वाँ पटना फिल्मोत्सव: समाज और व्यवस्था के बुनियादी अंतविर्रोधों का बयान!

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12 वें पटना फिल्मोत्सव के दूसरे दिन की शुरुआत डाॅ. सोमनाथ बाघमारे निर्देशित मराठी डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘द बैटल ऑफ भीमा कोरेगांव’ से हुई। भीमा कोरेगांव हाल में पूरे देश में अधिक चर्चा में आया जब कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को केंद्र सरकार ने एक राजनीतिक षड्यंत्र के तहत जेल में डाल दिया। दरअसल 1 जनवरी 1818 में मात्र 500 सैनिकों ने पेशवा के 28000 सैनिकों को शिकस्त दी थी। भीमा कोरेगांव में जो विजय स्तंभ है, वहां हर साल लाखों अंबेडकरवादी और बौद्ध जुटते हैं। दलित इसे अपने स्वाभिमान, शौर्य और अस्मिता के प्रतीक के तौर पर देखते हैं। यह उन्हें हर तरह के दमन, विषमता और गुलामी के प्रतिरोध की प्रेरणा देता है।

द बैटल ऑफ भीमा कोरेगांव: दलितों के शौर्य, स्वाभिमान और संघर्ष का इतिहास

इस फिल्म में बहुजन बौद्धिक तथाकथित मुख्यधारा के इतिहास में इस युद्ध की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं। उनके अनुसार पानीपत और अन्य युद्धों तथा पेशवा को मुख्यधारा का इतिहास और फिल्में महिमामंडित करती हैं, जबकि उसी पेशवा के जमाने में दलितों के प्रति अमानवीय व्यवहार किया जाता था। उनका मानना है कि वे मानवमुक्ति, स्वतंत्रता और समानता के लिए भीमा कोरेगांव में एकजुट होते हैं। यह डाक्यूमेंट्री फिल्म पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ बहुजनराष्ट्र की परिकल्पना भी सामने रखती है। बुद्धिजीवी इसे बहुजन समाज का पहला स्वतंत्रता संग्राम मानते हैं। यह फिल्म महार रेजिमेंट के गौरवशाली इतिहास से भी दर्शकों को रूबरू कराती है।

माई कास्ट : जातिवादी सामाजिक व्यवस्था का सच

आज प्रदर्शित अमुघन आरपी निर्देशित फिल्म ‘माई कास्ट’ भी जाति-व्यवस्था पर ही केंद्रित थी। तमिलनाडु के समाज में किस कदर परंपरागत तौर पर जातिवादी विषमता और भेदभाव बरकरार रहा है, उसे इस फिल्म ने दिखाया।

उत्पादन की कीमत नहीं मिलती, बल्कि मंडी में विभिन्न शुल्कों के नाम पर बची-खुची रकम भी हाथ से निकल जाती है

‘लूटिंग फार्मर्स एट द मंडी’: छोटे किसान की बेवशी और एमएसपी की जरूरत को दर्शाया 

डाॅ. यशोवर्द्धन मिश्र निर्देशित मराठी फिल्म ‘लूटिंग फार्मर्स एट द मंडी’ एक बहुत कम अवधि की फिल्म थी, पर इसमें प्राइवेट मंडी द्वारा किसानों के निर्मम शोषण का यथार्थ बड़े प्रभावशाली तरीके से व्यक्त हुआ। एक सच्ची घटना पर आधारित इस फिल्म ने दर्शकों के हृदय को झकझोर कर रख दिया। इसे देखते हुए यह बखूबी समझ में आया कि किसान एमएसपी की मांग क्यों कर रहे हैं। फिल्म में दान्या एक छोटा किसान है। वह एक ट्राली पर प्याज लादकर शहर के प्राइवेट मंडी में बेचने जाता है, जहां उसकी कीमत 50 पैसे प्रति किलो लगाई जाती है। वह सवाल करता है कि पिछली बार तो सवा रुपये कीमत लगी थी, पर कोई सुनवाई नहीं होती। बहुत आग्रह करने पर उसके प्याज की कीमत 60 पैसे प्रति किलो लगाई जाती है, जो कुल 600 रुपये होता है।

बड़ा किसान होता और ज्यादा प्याज होता तो 75 पैसे कीमत भी लग जाती। आखिरकार वह 60 पैसे के दर से प्याज बेचने को तैयार होता है, पर लेबर चार्ज, तौलाई, मंडी पुननिर्माण टैक्स और ट्राली भाड़ा जोड़कर उसे 815 रुपये देने को कहा जाता है। वह अपना प्याज वापस ले जाना चाहता है, तो उसमें फिर से ट्राॅली का किराया जोड़ने की धमकी दी जाती है। किसान को अपने प्याज की कीमत तो नहीं ही मिल पाती, पोला पर्व और बैल की सजावट के लिए रखे हुए जो पैसे उसकी पत्नी ने मंडी जाते वक्त दिए थे, वह भी उसे देने पड़ जाते हैं। उसके साथ मंडी गया बेटा जब उसके कंधे पर हाथ रखता है, तो वह फफक-फफक कर रो पड़ता है।

स्थानीय फिल्मकारों की फिल्मों ने नई संभावनाओं का परिचय दिया

आज एक विशेष सत्र में किलकारी नामक संस्था की ओर से बनाई गई स्थानीय युवा फिल्मकारों की तीन फिल्में दिखाई गईं। अमृत राज निर्देशित फिल्म ‘सम किड्स एंड मेनी ऑफ चिल्ड्रेन’ और अभिषेक राज निर्देशित फिल्म ‘एनफैन्सी ऑफ स्कारसिटी’ में बच्चों की दुनिया में मौजूद विषमता और वर्गीय विभाजन की स्थिति को दर्शाया गया। पहली फिल्म में थोड़े से ‘बच्चे और बाकी बच्चे’ नामक कविता पाश्र्व से सुनाई पड़ती है और विषमता को दर्शाने वाले दृश्य दर्शकों की आंखों के सामने से गुजरते रहते हैं। फिल्म ने यह सवाल उठाया कि प्रकृति ने तो सब बच्चों को एक बनाया, फिर उनके बीच भेदभाव क्यों उगाया?

दूसरी फिल्म ‘एनफैन्सी ऑफ स्कारसिटी’ में एक बच्चा स्कूल जाता दिखाई पड़ता है, तो दूसरा बच्चा भगवान का रूप धारण कर भीख मांगने जा रहा होता है। तीसरी फिल्म आर्यन कुमार निर्देशित ‘द इंडिपेंडेन्ट इम्पेयर्ड’ थी, जिसमें भारत में दृष्टिहीनता की समस्या की गंभीर स्थिति से परिचित कराया गया। दुनिया में भारत में सबसे ज्यादा दृष्टिहीन हैं। आंखों की सर्जरी की बहुत ज्यादा जरूरत है, पर आंखों के डाॅक्टर बहुत कम हैं। जो सर्जन हैं भी उन्हें आंखों की सामान्य बीमारियों के इलाज से ही फुर्सत नहीं मिलती। आंखों की भी जितनी संख्या चाहिए, उससे बहुत कम यहां उपलब्ध हो पाती हैं। यह एक महत्वपूर्ण फिल्म थी।

‘दी स्प्रिंग थंडर’: विकास माॅडल, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, आदिवासियों की त्रासदी और हिंसा के यथार्थ को दर्शाया

राम डाल्टन की फिल्म ‘दी स्प्रिंग थंडर’ क्राउड फंडिंग यानी जनसहयोग के जरिए बनाई गई है। यह आदिवासी विरोधी विकास माॅडल पर सवाल तो उठाती ही है, प्राकृतिक संसाधनों की लूट और हिंसा की स्थितियों को भी दर्शाती है। फिल्म समीक्षक प्रशांत विप्लवी के अनुसार फिल्म यह दिखाती है कि ‘डेवलमेंट से सिर्फ पर्यावरण की ही क्षति नहीं होती है, बल्कि स्थानीय जीवन के परिवेश और मानवीयता की भी क्षति होती है।’ यह यूरेनियम के खदान के लिए समृद्ध जंगल काटकर वहां बसे आदि बाशिंदों को बेदखल कर सरकार द्वारा विकास योजना से जुड़ी कहानी है। ‘उनकी फिल्म जंगल के लिए है, झाड़खंड के लिए है, आदिवासियों के लिए है, उनके संघर्ष के लिए है। उनकी फिल्म माफिया, सफेदपोश पुलिस और वर्ग संघर्ष की सच्चाई को उधेड़ती है।’ फिल्म से जुड़ा त्रासद पक्ष यह है कि इसके फाइनल प्रिंट के लिए फिल्मकार के पास पैसे नहीं हैं। यह फिल्म अभी तक रीलिज नहीं हो पाई है। फिल्मकार को मुंबई से झारखंड लौटना पड़ा है। जनविरोधी विकास माॅडल के खिलाफ फिल्में बनाना निश्चित तौर पर बहुत बड़ी चुनौती है।

राहगीर होटल: संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों से घबराती सत्ता का सच

एकतारा कलेक्टिव की फिल्म ‘होटल राहगीर’ में एक होटल है, जिसका नाम होटल राहगीर है। वहां छात्रों, बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों का जुटान होता रहता है। होटल में टेलीविजन और बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों, प्रबुद्ध छात्र-छात्राओं और युवक-युवतियों का एक कंट्रास्ट निर्मित होता है। टीवी पर खबरें सरकार के एजेंडे के अनुरूप चलती रहती हैं, पर बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों- छात्र-छात्राओं की बातों में नए विमर्श हैं, ये विमर्श समाज के वर्चस्वशाली वर्ग, उसकी परंपराओं-रूढ़ियों और सत्ता के प्रचार से टकराते हैं। जाहिर है आज की तानाशाह सत्ता को ऐसे लोग खतरनाक लगते हैं। फिल्म के अंत में एक बड़े सांस्कृतिक समारोह में शामिल होने वाले कलाकारों और बुद्धिजीवियों की खोज में पुलिस राहगीर होटल पहुंच जाती है। हाल के वर्षों में प्रगतिशील बौद्धिकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों और छात्र-युवाओं पर जिस तरह सत्ता और उसकी पुलिस के हमले बढ़े हैं, यह फिल्म अंत में उसी ओर संकेत करती है।

सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता भी फिल्में देखने पहुंच रहे हैं

लाॅक डाउन के बाद कोरोना के आतंक को तोड़ते हुए आयोजित हो रहे इस फिल्म फेस्टिवल में विभिन्न परिवर्तनकारी धाराओं के राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ता फिल्में देखने पहुंचे। आज बिहार के तीन विधायक वीरेंद्र गुप्ता, अजित कुशवाहा और संदीप सौरभ भी दर्शकों के बीच मौजूद थे। बुक स्टाॅल पर प्रगतिशील पुस्तकों और पत्रिकाओं की बिक्री भी हो रही है।