दो साल पहले यूपी के विधानसभा चुनाव की बात है। गाज़ीपुर की यूसुफ़पुर मोहम्मदाबाद सीट से खड़े बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी अफज़ाल अंसारी से उनके घर बात हो रही थी। उन्होंने अपनी जीत का पूरा भरोसा जताया था, लेकिन उनके बड़े भाई और पूर्व विधायक सिबकतुल्ला अंसारी ने एक शर्त इसमें जोड़ दी थी। उनके मुताबिक जीत तभी सुनिश्चित होती यदि विधानसभा के सत्तर हजार यादवों के वोट उन्हें मिल पाते।
उस वक़्त सूबे में अखिलेश यादव की समाजवादी सरकार थी। यादवों को थोड़ा सा भी अंदाज़ा नहीं था कि अखिलेश की सरकार जा सकती है। अव्वल तो इसीलिए बसपा के प्रत्याशी को वोट देने का उनके लिए सवाल खड़ा ही नहीं होता था। दूजे, उस समय सपा और बसपा के गठबंधन के बारे में सोचना तक दूर की कौड़ी थी, जो साल भर बाद एक ठोस चुनावी गणित बनकर फूलपुर और कैराना में ज़मीन पर कामयाबी के रूप में उतरी। लिहाजा अंसारी बंधुओं की सदिच्छा को धता बताते हुए यादव समुदाय ने भाजपा की प्रत्याशी अलका राय को एकवट वोट दे दिया। अफज़ाल हार गए।
इस बार लोकसभा के चुनाव में गाज़ीपुर से अफज़ाल अंसारी सांसदी के लिए खड़े हैं। सामने हैं भाजपा के मनोज सिन्हा। ज़ाहिर है, यादव मतदाताओं की संख्या कहीं ज़्यादा है। सूरत थोड़ा बदली है या कहें बुनियादी तौर से बदली है। अबकी सपा, बसपा और रालोद का गठबंधन चुनाव लड़ रहा है। दूसरे, अखिलेश यादव की सत्ता जाने का कष्ट सबसे ज़्यादा यादवों को है। सवाल हालांकि वही पुराना है – क्या यादव इस बार अफज़ाल अंसारी को वोट देंगे?
कांग्रेस के युवा नेता शाहनवाज आलम कहते हैं कि यूपी का यादव कम्यूनल है, वह एक मुस्लिम प्रत्याशी को वोट नहीं करेगा। गाज़ीपुर के यादव इस बात को नहीं मानते। इसी समुदाय से आने वाले एक सरकारी विद्यालय के प्राचार्य अपना नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “पिछली बार यादवों से गलती हो गई थी। सांप्रदायिक होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। गठबंधन है तो वोट गिरेगा, प्रत्याशी चाहे सपा का हो या बसपा का।”
इस संकट को दो हालिया बातों से समझा जा सकता है। बनारस के सोनपुरा चौराहे पर यादव महासभा का एक बोर्ड लगा है जिस पर नरेंद्र मोदी और भाजपा के अन्य नेताओं की तस्वीरें लगी हैं। पूर्वांचल की जातिगत राजनीति पर अच्छी पकड़ रखने वाले मीडियाविजिल के बनारस संवाददाता शिव दास कहते हैं कि बोर्ड फर्जी है। उनके मुताबिक ऐसी कई यादव सभाएं हैं जो स्वायत्त रूप से काम करती हैं।
गुरुवार को बनारस के अख़बारों में खबर छपी कि समाजवादी युवजन सभा के एक पदाधिकारी ने बनारस, गाज़ीपुर, चंदौली और बलिया में भाजपा को समर्थन दे दिया है। उक्त व्यक्ति का नाम अख़बारों में सूबेदार यादव बताया गया है। बनारस में समाजवादी युवजन सभा के सचिव से जब इसकी पुष्टि की गई तो उन्होंने ऐसी किसी बात से इंकार किया।
बुधवार की शाम बनारस के दशाश्वमेध घाट पर कुछ महिलाएं और पुरुष तस्वीरें उतार रहे थे। सबने कमल का बैज लगा रखा था जो भाजपा का चुनाव चिह्न है। बात करने पर पता चला कि एक महिला उन्नाव में भाजपा के महिला मोर्चा की अध्यक्ष सोनी अशोक शुक्ला हैं और दूसरी महिला सुल्तानपुर के महिला संगठन से पूजा मिश्रा हैं। चुनाव के बारे में अनौपचारिक चर्चा के दौरान उन्होंने यादव वोटों को लेकर चिंता जताई।
शुक्ला ने कहा, “अहीर अनपढ़ होते हैं, उनकी बुद्धि घुटने में होती है इसलिए वे अपनी जाति के चक्कर में रहते हैं। देश हित के बारे में नहीं सोचते। हम लोग यादवों को अपनी ओर करने की कोशिश कर रहे हैं।” मिश्रा ने भी उनकी बात से सहमति जतायी और कहा, “ये लोग समझ नहीं रहे, मोदी जी संत हैं।”
आखिर भाजपा को यादव वोटों की चिंता क्यों है? ज़ाहिर है ऐसा तभी होगा जब गठबंधन को लेकर पार्टी परेशान होगी। पूर्वांचल की जिन तेरह सीटों पर कल मतदान होना है, वहां यादव वोट निर्णायक स्थिति में हैं। पिछले आम चुनाव में भाजपा को इन 13 में से 12 सीटें मिली थीं और एक सीट उसकी सहयोगी अनुप्रिया पटेल ले गई थीं। सपा और बसपा के खाते में पूर्वांचल की इन तेरहों सीटों में से एक भी सीट नहीं आई थी। उस वक्त सूबे में अखिलेश यादव की सरकार थी, तो पिछली दलील के मुताबिक यादवों को भाजपा पर मुहर मारने में कोई दिक्कत नहीं थी। इस बार ऐसा नहीं है। भाजपा की हालत पतली है। भाजपा अगर गठबंधन से यादवों को तोड़ पाई तो कई सीटों पर गठबंधन से हार का मार्जिन कम कर लेगी और शायद कुछ सीटें निकाल भी ले। गाज़ीपुर की सीट ऐसी ही है, जहां यादवों के मनोज सिन्हा के साथ जाने पर अफज़ाल अंसारी का बना बनाया गणित बिगड़ सकता है।
इसके पीछे एक और फैक्टर काम कर रहा है। बनारस से जब नामांकन के दिन 29 अप्रैल को अचानक शालिनी यादव को बैठा कर समाजवादी पार्टी ने बीएसएफ के बर्खास्त सिपाही तेज बहादुर यादव के ऊपर हाथ रख दिया, तो यादव मतदाताओं की तरफ से बड़े पैमाने पर समर्थन देखने में आया। यहां तक कि बनारस के नागरिक समाज सहित गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई उन तमाम ताकतों ने बहादुर को अपना समर्थन दे डाला, जो पिछले आम चुनाव में अरविंद केजरीवाल के साथ थे। इससे भाजपा बौखला गई।
तेज बहादुर का नामांकन होते ही रात में अमित शाह और योगी आदित्यनाथ आनन-फानन में बनारस पहुंच गए। अगली सुबह रिटर्निंग अधिकारी ने बहादुर का पर्चा निरस्त कर दिया। मामला अगले दिन दिल्ली में निर्वाचन आयोग पहुंचा, शाम चार बजे वहां से भी उनका नामांकन रद्द हो गया। तेज बहादुर ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, वहां से भी उन्हें निराशा हाथ लगी। इस पूरे प्रकरण से पूर्वांचल के यादवों में साफ संदेश गया कि भाजपा ने जान बूझकर तेज बहादुर का पर्चा रद्द करवाया है। अभी ताज़ा स्थिति यह है कि एबीपी न्यूज़ पर एक चुनाव अधिकारी का स्टिंग ऑपरेशन प्रसारित हुआ है जिसमें उसने साफ कहा है कि तेज बहादुर का परचा खारिज करने के लिए 48 घंटे मशक्कत करनी पड़ी ताकि कारण खोजा जा सके। यह खबर भाजपा के लिए कोढ़ में खाज साबित हुई है।
भाजपा इसीलिए परेशान है। अब सवाल ये है कि अचानक मोदी की तस्वीर वाले यादव महासभा के जो होर्डिंग और समाजवादी युवक सभा से संबंधित को खबर आखिरी मौके पर सामने आ रही है, क्या वे असली हैं या यह सब भाजपा का किया धरा है? एकबारगी ऐसा लग सकता है, लेकिन बीजेपी को यादवों का वोट पड़ने की संभावना से एकदम इंकार नहीं किया जा सकता।
मंडल और कमंडल की राजनीति को ढाई दशक हो रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भाजपा ने पिछड़ों को अपनी पार्टी और सियासत में पर्याप्त जगह दी है। आज यूपी का यादव उस तरीके से वंचित नहीं है जैसी अन्य पिछड़ी जातियां हैं। वास्तव में पूर्वांचल के गांवों में यादवों के साथ अन्य पिछड़ी जातियों और दलितों के रिश्ते तल्ख हैं। यही वजह है कि पिछले विधानसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर भाजपा गैर यादव पिछड़ा और गैर जाटव दलित को अपने साथ कर पायी थी। यह मुख्यधारा की राजनीति में अपनी हिस्सेदारी खोजने के अलावा इन वंचित तबकों की यादवों के वर्चस्व के खिलाफ एक प्रतिक्रिया का भी परिणाम रहा।
अब, जबकि राज्य के दलितों और पिछड़ों को दो साल की योगी सरकार की भेदभापूर्ण नीतियों और दमन का दंश झेलना पड़ा है, तो उसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति हमें महागठबंधन के रूप में देखने को मिली है। सवाल हालांकि राजनीतिक गठबंधन से ज़्यादा सामाजिक गठबंधन का है, जो भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए सियासी रूप से नुकसानदायक है। भाजपा जानती है कि मुस्लिम, यादव और दलित का समेकित गणित अगर कामयाब हुआ तो उसकी नाकामी होगी इसलिए वह दलित और यादव दोनों में सेंध लगाएगी। कांग्रेस को अपना खोया जनाधार पाने के लिए मुसलमानों की सख्त जरूरत है, लिहाजा बीजेपी द्वारा किए जाने वाले यादवों के हिंदूकरण से उसे कोई परहेज़ नहीं होगा। इसके उलट कांग्रेस खुद यादवों और मुस्लिमों की चुनावी एकता को तोड़ने की कोशिश करेगी।
भाजपा को यादव चाहिए, कांग्रेस को मुस्लिम और गठबंधन अगर 2022 के विधानसभा चुनाव तक बचा रहा, तो उसे दोनों की जरूरत पड़ेगी। बचे अन्य पिछड़े समुदाय, तो अभी मंडल कमंडल के प्रभाव के शुरुआती चरण से वे गुजर रहे हैं। यह मानने में कोई दिक्कत नहीं कि अभी अन्य पिछड़ी जातियों को अपना स्थायी सियासी ठिकाना तलाशने में वक़्त लगेगा और चुनाव दर चुनाव वे अपनी आस्थाएं हितों के हिसाब से बदलते रहेंगे।
फिलहाल जो स्थिति पूर्वांचल में कायम है, वह सामाजिक और जातिगत संक्रमण की है। नरेंद्र मोदी का बनारस के रोहनिया में गोद लिया गांव ककरहियां इस बात को समझने में मदद कर सकता है। यह गांव मोदी के गोद लेने से पहले लोहिया ग्राम था। यहां के ठाकुर, पटेल, गोंड सब एक स्वर में इस बात को मानते हैं कि सारा विकास अखिलेश यादव की सरकार का किया हुए है। गोद लेने के बाद मोदी ने केवल बेंच और सोलर लाइट लगवाई है। क्या ठाकुर और क्या पटेल, सब मोदी सरकार से अपनी अपनी वजहों से नाराज़ हैं लेकिन जब वोट देने की बात आती है तो वे मोदी का ही नाम लेते हैं।
चाय की अड़ी पर बैठे एक अधेड़ उम्र के पटेल कहते हैं कि गांव की खेती योगीजी चर रहे हैं, इसलिए अगली बार वे योगी सरकार को नहीं आने देंगे (यूपी में छुट्टा और आवारा पशु खेतिहरों के लिए बड़ा मुद्दा हैं। लोग खेत में घूमने वाले गायों और सांड़ों को योगी कह कर बुलाते हैं)! इस चुनाव में उन्हें पता है कि मामला प्रधानमंत्री चुनने का है (खासकर पूर्वांचल और उसमें भी बनारस के मतदाताओं को यह इज्जत का सवाल लगता है), मुख्यमंत्री का नहीं। इसीलिए वे तमाम दुश्वारियों के बावजूद भाजपा को वोट देने की बात कर रहे हैं।
बिल्कुल यही आर्गुमेंट यादव बिरादरी पर भी लागू होता है- देश के लिए मोदी, सूबे के लिए अखिलेश। इस तर्क से देखें तो यादव वोट का बड़ा हिस्सा भाजपा को वोट दे सकता है, हालांकि भाजपा के लिए फिर भी यह चिंता का सबब बना हुआ है। कहने का मतलब यह है कि यदि देश की राजनीति यूपी से संचालित होती है और यूपी के नतीजों का दारोमदार पूर्वांचल के कंधों पर है, तो इस बार इसका निर्णय यादव वोटों के हाथ में है।
परंपरागत समझदारी यह है कि भाजपा के जीतने के पीछे मुस्लिम वोटों के बंटवारे को ज़िम्मेदार माना जाता रहा है। पिछले पांच साल में भाजपा ने मुस्लिमों को दीवार से सटा दिया है, लिहाजा इस बार वे जहां जाएंगे एक साथ जाएंगे, बंटेंगे नहीं। भाजपा का विजय रथ रोकने का ऐतिहासिक कार्यभार अब मुसलमानों के कंधे से यादवों के कंधे पर शिफ्ट हो गया है। यादव वोट ही तय करेगा कि बनारस में दूसरे नंबर पर कौन रहेगा, गाज़ीपुर में कौन जीतेगा, पूर्वांचल में भाजपा कितनी सीटें लाएगी और पूरे देश में भाजपा कैसी स्थिति में रहेगी।
एक और बात। यही यादव वोट यूपी में महागठबंधन की उम्र तय करेगा और बसपा सुप्रीमो मायावती का भविष्य भी तय करेगा। अभी केवल कयास ही लगाए जा सकते हैं कि जहां जहां बसपा प्रत्याशी खड़े हैं, वहां सपा का कैडर वोट और आम यादव का वोट उन्हें ट्रांसफर हुआ होगा। ज़रूरी नहीं कि दो परंपरागत रूप से शत्रुवत दलों के नेतृत्व द्वारा लिया गया एकीकरण का ऐतिहासिक फैसला समाज में नीचे उसी रूप में लिया गया हो। अगर सपा के कैडर को डिम्पल यादव का मायावती के सामने झुकना नागवार गुज़रा है, तो बसपा के कैडर के जेहन से भी गेस्ट हाउस कांड अब तक नहीं निकला है।
यह संयोग नहीं है कि बनारस में 15 मई को प्रियंका गांधी के रोड शो से पहले हेलीपैड पर उनका स्वागत करने के लिए जो लोग गए थे, उनमें बसपा के नेताओं समेत पूर्व मंत्री भी शामिल थे। इसके सियासी मायने निकाले जा रहे हैं। कहने का मतलब कि चुनाव में गणित से ज़्यादा मुश्किल रसायनशास्त्र होता है। पानी और तेल जैसे तमाम युग्म हैं जो अपनी अंतर्निहित प्रकृति के चलते आपस में मिल नहीं पाते। नतीजों के लिए बस हफ्ते भर का इंतजार करिए। दूध का दूध, पानी का पानी और तेल का तेल हो जाएगा।