मनदीप पुनिया
यह हॉस्टल क्रांतिकारियों का अड्डा रहा। चंद्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक उल्ला खां और उनके कई साथी यहां ठहरे हैं। अजय देवगन वाली फ़िल्म ओमकारा भी यहीं बनी…
रोड किनारे खड़ा नौजवान अपना हाथ मेरठ की वेस्टर्न कचहरी रोड पर स्थित त्यागी हॉस्टल की तरफ फैलाकर ऐसे भूमिका बांध रहा था जैसे इसके गौरवमयी इतिहास पर पुस्तक लिखने के बाद किसी पत्रिका को इंटरव्यू देने आया हो। उसके ऊपर मारपीट, डकैती और डराने-धमकाने के कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, लेकिन उसे हार्डकोर अपराधी नहीं कहा जा सकता। वह छह फुटा लम्बा-चौड़ा जवान है जो मेरठ के आसपास फिरौती मांगने वाले एक गिरोह का हिस्सा है। वह इतना सक्रिय है कि एक पुलिसवाले ने खुद उसके बारे में यह दावा किया कि उसके पास फिरौती या पैसों के लिए अपहरण कारोबार (यहां इस जुर्म को अपराधी कारोबार कहते हैं) की एक-एक खबर रहती है।
पश्चिमी यूपी की समानांतर सरकार
जैसे ही उसे यह समझ आया कि रिपोर्टर क्या जानना चाह रहा है, उसने “मेरा नाम मत छापना” कहते हुए बताया, “त्यागी हॉस्टल अब खाली पड़ा है। सब गुंडे टाइप लोग यहां से कब के ईद का चांद हो चुके। इस इलाके में चंदा या समझौता करवाने टाइप फिरौती जैसा सारा काम अब राहुल कुटबी के हाथों में है। राहुल कुटबी भाजपा नेता संजीव बालियान का भाई है और इस इलाके में संगठित होते जा रहे जुर्म का असली खिलाड़ी है। आसपास के जो छोटे-मोटे लकड़बग्घे कुटबी की चेन में नहीं जुड़े उनके लिए दो ही ऑप्शन खुले थे- जेल या एनकाउंटर।
मुज़फ्फरनगर, शामली, बागपत और मेरठ के हर गांव में इसका एक आदमी है, जिसे थाने से जोड़ा गया है। उसका काम लड़ाई-भिड़ाई या छोटे-मोटे अपराधों के समझौतों में पुलिस के साथ चिपके रहना और पीड़ित और आरोपी पक्ष से समझौते या मामला सुलटवाने के नाम पर पैसे लेना है। थाने में उनके बिना पत्ता भी नहीं हिलता।”
नौजवान को कुटबी के सिर्फ संगठित अपराध के बारे में पता है। लेकिन मेरठ यूनिवर्सिटी के ठीक सामने एक चाय के अड्डे पर जमे शहर के कई पत्रकार इस बात पर एकमत दिखे कि राहुल कुटबी आरएसएस के कहे अनुसार ही काम रहा है और आरएसएस खुद चेहरा न बनकर सारे काम उससे ही करवा रही है। चाय की चुस्की सफुड़ते हुए एक पत्रकार ताना मारने वाली शैली में बुदबुदाया, “यूनिवर्सिटी में असिस्टेन्ट प्रोफेसर तक चुनने की जिम्मेदारी अब इनके कंधों पर आन पड़ी है। यूनिवर्सिटी ने चार सीटों पर भर्तियां निकाली और भर्ती कर लिए पांच। आरएसएस ने पांच जनों की लिस्ट बनाकर कुटबी के हाथों वीसी तक पहुंचाई। अब ऊपर से आदेश पर न वीसी का कोई जोर और न कुटबी का। पांचों भरने पड़े। थोड़ा बहुत हो-हल्ला हुआ, लेकिन बाद में सब निबट गया।”
वीसी का नाम पूछने पर पत्रकार महोदय चाय का खाली गिलास घरती में पटक लम्बा सा हाथ निकालकर बोले, “अरे तुम्हें इस वीसी का नाम नहीं मालूम। बड़ा चर्चित वीसी रहा है ये- एन.के. तनेजा। यह वही वीसी हैं जिनके ऊपर चने के खेत में बीएड कॉलेज प्रकरण में जांच भी चल रही है”। पत्रकार इस बात की ओर भी इशारा करता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश को उच्च शिक्षा से दूर रखा गया है और बौद्धिक रूप से तोड़ा गया है। यहां नौ जिलों पर सिर्फ एक ही यूनिवर्सिटी है और वह है चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी, मेरठ।
चौधरी चरण सिंह युनिवर्सिटी कभी कोई बड़े प्रगतिशील छात्र आंदोलन का गवाह नहीं रही। लोकदल, कांग्रेस और आरएसएस के छात्र विंग टुकड़ों में हल्का-फुल्का रौला काटते रहे। अब कैंपस में सिर्फ आरएसएस का विंग एबीवीपी ही मलाई काट रहा है। लोकदल वाले पिछले एक साल से लापता हैं। बड़ी मशक्कत के बाद हमारी मुलाकात लोकदल के छात्र नेता राजीव चौहान से हुई। स्प्लेंडर मोटरसाइकिल को स्टैंड पर लगा उस पर बैठे हुए राजीव से छात्र आंदोलनों के बारे में पूछते ही उसका फूल गया। दांत पीसकर तेज़ हंसी रोकने के एक छोटे से प्रयास के बाद उसने कहा, “पिछले साल शाहपुर इंटर कॉलेज में छात्रों को प्रधानाचार्य ने भारतीय संस्कृति और अनुशासन का हवाला देकर सर मुंडवाने के लिए कहा। जब छात्रों ने उनकी बात नहीं मानी तो प्रधानाचार्य ने इस एरिया के कर्ता-धर्ता राहुल कुटबी को वहां बुला लिया। फिर जो हुआ उसका सभी को पता है। पहले छात्रों को इकट्ठा किया गया। फिर उनके कपड़े उतरवाए गए। एकाध उल्टी सीधी पोजीशन बनवाई गईं और फिर उन्हें गंजा कर दिया गया। बेचारे कई दिन थाने-चौकी भटके। वहां भी पुलिस ने उन्हें पेल दिया। छात्र आंदोलन… घण्टा… गठबंधन ने इस बार टिकट गलत आदमी को दे दिया वरना यह सीट भाजपा हारने वाली थी लेकिन अब नहीं हार रही। भाजपा ही जीतेगी।”
राजीव ने जो बताया वह वाकई बड़ा अजीब था। ऐसा लग रहा था जैसे मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और आसपास के इलाके में राहुल कुटबी नाम का यह आदमी एक समानांतर सरकार चला रहा है। ऐसे में सवाल उठना जायज है कि राहुल कुटबी आखिर है कौन?
राहुल कुटबी पर कई हत्याओं, लूट, डकैती, फिरौती के मामले दर्ज होने के कारण पुलिस ने एक लाख का ईनाम घोषित किया थाख् लेकिन 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ। मोदी जीतकर आए और मुजफ्फरनगर से जीतकर आए कुटबी के भाई संजीव बालियान। भाई जीता तो कुटबी के दिन पलटे। सर से ईनामी बदमाश होने का टैग गायब हुआ और 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों में सक्रिय भूमिका के चलते आरएसएस का सर पर हाथ था ही।
सत्ता ने ऐसा खेल बिछाया कि कभी विरोध में पंचायतें करने वाले पंचायती टाइप पगड़ीधारी चौधरी अब राहुल कुटबी के समर्थन में पंचायतें करने लगे और उसे समाज का हीरो घोषित कर दिया। ये पंचायती टाइप लोग सत्ता के इर्द-गिर्द रहते हैं ताकि सरकार से एकाध पर्सनल काम निकलवा सकें या अपने जवान बेटों-बेटियों को नौकरियां दिलवा सकें। और सत्ता इन्हें इसलिए पालती है ताकि सत्ता के प्रोपेगंडा के हिसाब से इनसे पंचायतों का आयोजन करवाया जा सके। यहां भी यही हुआ। अब पंचायतियों का नया बॉस राहुल कुटबी था।
खेत चर रहे ‘’योगी-मोदी’’
सरधना विधानसभा का खुशावली गांव। राजपूत बहुल गांव के बीचों-बीच राणा चौक। आस-पड़ोस में रहने वाले कई आदमी वहां इकट्ठा हुए थे जिनमें ज्यादातर राजपूत और कुछ ब्राह्मण जाति के लोग थे। लोकसभा चुनाव का जिक्र करते ही वहां खड़े भाजपा के एक कार्यकर्ता ने तपाक से जवाब दिया, “पूरा देश ही भाजपा है तो यहां भी सब भाजपा है जी।” उनके ऐसा बोलते ही वहां खड़े बीड़ी पी रहे विनोद ने एक लम्बा और आखरी कश खींचकर जवाब दिया, “रुक भाई ओ बीजेपी मास्टर। यहां अबकी बार सब एक तरफ नहीं हैं। लोगों को बहकाना हमारी पीठ पीछे। आगे तो हम ऐसा होने नहीं देंगे।” विनोद के ऐसा बोलने के बाद वहां खड़े कई लोगों ने अपने सर हिलाए और कुछ बुदबुदाए। विनोद ने बड़ी तेज़ी से मेरी तरफ देखा और खूब ऊंची आवाज़ में कहा, “दलालों का राज है जी। अबकी बार तो नहीं देने के लोग वोट इन्हें। थाने में दलाल, तहसील में दलाल, हमारे आगे दलाल, पीछे दलाल। सब दलालों से भरा हुआ है। छोटी सी बात पर भी अगर आप गलती से थाने चले गए तो दलाल आपकी जेब पर डाका डाले बिना छोड़ता नहीं। आप हमारे यहां बिना दलालों के ढंग से पाद भी नहीं सकते।” आखिरी बात पर सामूहिक गंभीरता ठहाके में बदल गयी। सारे हंस रहे थे तो भाजपा कार्यकर्ता दांत पीस रहा था। अपनी किरकिरी होते देख वह बड़बड़ाते हुए वहां से निकल लिया।
बातचीत आगे बढ़ाने के लिए मैंने दलालों की किस्मों के बारे में सवाल उछाल दिया। सवाल को दोबारा लपक कर विनोद ने जवाब दिया, “देख भाई जो ये योगी-मोदी (आवारा पशुओं को यहां लोग योगी-मोदी कहते हैं) झुंडों में घूम रहे हैं ना, इन्होंने हमारा बड़ा जीना हराम कर रखा है। अब तो इन्हें छोड़कर आने के लिए पहले बजरंग दल वालों को रिश्वत दो और फिर पुलिस वालों को। गरीब जिमिदार (छोटा किसान) को तो दोहरी मार पड़ी के नहीं पड़ी? खेती के हाल तो आप मीडिया वालों से छिपे नहीं।” विनोद का यह सवाल रूपी जवाब सुन सभी ने उसके पक्ष में सर हिलाया।
आवारा पशुओं से परेशान पश्चिमी यूपी के किसान कई बार मोर्चा खोल चुके हैं लेकिन अभी उनके तथाकथित “योगी-मोदी” उनके खेतों में फसलें चरते घूमते हैं।
बदले-बदले अजीत सिंह
बागपत का रमाला गांव। गांव की फिरनी पर एक बड़े से गितवाड़ (प्लॉट) में अजीत सिंह की एक बैठक। चार ट्रॉलियों को जोड़कर एक स्टेज बना दिया है। आयोजकों में चंदे की फुसफुसाहट चल रही है। एक नौजवान से दिखने वाले धौलपोस (सफ़ेद कुर्ते पाजामे पहने) ने चिंता जताते हुए कहा, “बस एक लाख। एरिया के इतने बड़े गांव से सिर्फ इतना ही इकट्ठा हुआ।” उसकी चिंता को सब्र का घोल पिलाने के लिए दूसरे धौलपोस ने जवाब दिया, “गांव के एक भी ठेकेदार या मोटी शामी (अमीर आदमी) ने एक रुपया नहीं दिया। सब छोटे-छोटे किसानों, दलितों और मुल्लों ने दिया है। 10-10, 50-50 रुपये जिस गरीब किसान-मज़दूर से जो बन पड़ा वो मिला है। मोटे लोग सब बीजेपी के रथ में सवार हैं।”
बातचीत के बाद ही दोनों एक बार फिर से तैयारियों में जुट गए। किसान, मुसलमान और दलितों की खूब भीड़ इक्कठा हुई। अजीत सिंह आए और अल्पसंख्यक, किसान, दलित की बात कर मोदी पर चार-पांच चुटकुले छोड़कर चलते बने। चंदे की राशि उन्हें सौंप दी गयी। लोग भी अजीत सिंह की हां में हां मिलाकर चलते बने। कुल मिलाकर इस किस्से को बताने का सार यह था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लगभग सारे भट्ठा मालिक, प्रॉपर्टी डीलर या मोटे कारोबारी भाजपा की गोद में जा बैठे हैं। जो नहीं बैठना चाह रहे थे उन्हें राहुल कुटबी ने भाजपा की गोद में बैठा दिया है।
इसी गांव के सहेंद्र सिंह रमाला ने अजीत सिंह की पार्टी से छपरौली से 2017 में चुनाव लड़ा। चरण सिंह की सीट होने के नाते उन्हें लोगों ने जिता दिया। लोकदल ने इतना खराब प्रदर्शन किया कि सिर्फ सहेंद्र ही उनके एकमात्र विधायक जीतकर आए। चंडीगढ़ तक कारोबार फैले होने के कारण सहेंद्र को गांव में मोटी मुर्गी कहा जाता है। रमाला के किसान यूनियन के कार्यकर्ता धर्मवीर चौहान बताते हैं, “पिछले साल राज्यसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही एकाएक सहेंद्र को चंडीगढ़ भागना पड़ा। खबर मिली थी कि उसके कारोबार पर कई छापे पड़े हैं। दो-तीन दिन बाद आए तो वह गांव में भाजपा सरकार की उपलब्धियां गिनवाते घूम रहे थे और राज्यसभा की वोटिंग के दौरान भाजपा को वोट डालकर भाजपा का मफलर गले में डाल लिया।” धर्मवीर यह सब हमें बड़ी निराशा के साथ बता रहे थे। उनका मानना था कि सहेंद्र ने छपरौली जैसी पवित्र सीट और चरण सिंह के लोगों से गद्दारी की है।
रमाला गांव के अड्डे पर एक ट्रैक्टर दिखा, जिस पर कुछ मुसलमान किसान सवार थे। ट्रैक्टर पर लोकदल का झंडा था और वे हाथ जोड़कर सबसे लोकदल के लिए वोट देने की अपील करते हुए आगे निकल गए। पास में ही खड़े एक बुजुर्ग किसान की तरफ जब मैंने उनके बारे में जानने की निगाहों से देखा तो वह बोल उठे, “असारा गांव के मुल्ले जाट थे ये। सबसे ज्यादा भाजपा को हराने के लिए ये ही इस इलेक्शन में घूम रहे हैं। बेचारे घूमें भी क्यों न। दोहरी मार खाई है, किसानी के बट (नाम) के भी पिटे और धर्म के बट के भी।”
बागपत से इस बार भाजपा के सत्यपाल सिंह के खिलाफ जयंत चौधरी चुनाव लड़ रहे हैं। पिछली बार सत्यपाल सिंह ने ही अजीत सिंह को चुनाव में हराया था। इस बार बाप का बदला लेने के लिए बेटा मैदान में है। लोकदल की वापसी जयंत के कंधों पर टिकी हुई है। सूबे के ही एक पत्रकार ने बताया था कि अजीत सिंह की जड़ों को इस इलाके से उखड़वाने में अनुराधा चौधरी का बड़ा हाथ है। वह चौधरी अजीत सिंह की सबसे करीबी मानी जाती थीं और उन्होंने ही अजीत सिंह और भाजपा के हाथ मिलवाए।
सेक्युलर बनकर वोट मांग रहे अजीत सिंह से अनुराधा चौधरी और भाजपा ने वही सब काम करवाए थे जो आज भाजपा संजीव बालियान से करवा रही है। गाय के नाम पर दंगा, अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत का प्रचार टाइप काम अजीत सिंह ने भी किया है जिसकी वजह से उनकी जड़ें इस इलाके से उखड़ी थीं। इन्हीं सब कारनामों से बाप-बेटे के बीच टकराव बढ़ा। बेटा संघ के साथ जाने की बजाय सेक्युलर और नए तरीके से राजनीति करना चाहता था। बाप-बेटे की टकराहट में बेटे की जीत हुई और अनुराधा पार्टी से बाहर हुईं।
यह किस्सा इसलिए कि अजीत सिंह के मुंह से किसानों, मुसलमानों और दलितों के पक्ष में आवाज़ें बेटे और एक बदलाव के कारण निकलनी शुरू हुई हैं।
मतदान से पहले एक आकलन
इस रिपोर्टर ने हफ्ते भर में पश्चिमी यूपी की उन आधा दर्जन सीटों का ज़मीनी जायज़ा लिया जहां 11 अप्रैल को पहले चरण में मतदान होने हैं। 9 अप्रैल की शाम प्रचार खत्म होगा, जिसमें केवल अड़तालीस घंटे बाकी हैं। अब तक की स्थिति यह है कि बागपत और मुज़्ज़फरनगर की सीट पर बीजेपी कमजोर चल रही है। बागपत और मुजफ्फरनगर की सीट पर जाट-मुसलमान-दलित समीकरण गठबंधन के पक्ष में है तो भाजपा की गुल्लक में शहरी सवर्ण हिंदुओं और अतिपिछड़ी जातियों के वोट जमा हैं।
अगर ये दोनों सीटें बीजेपी हार गई, तो उसकी हार का कारण देहात में किसानों के बीच उसका भारी विरोध होना है और लोकदल का चरण सिंह वाले रंग में लौटना है। दूसरा कारण राहुल कुटबी है जिसके संगठित अपराध से सभी परेशान हैं। लगभग हर तीसरे चौथे इंसान की जुबान पर कुटबी का नाम है। ज्यादातर के लिए कुटबी गुंडा है तो कुछेक के लिए मसीहा। शहर की बात करें तो भाजपा मुजफ्फरनगर शहर में मजबूत है मगर बागपत शहर में कमज़ोर।
मेरठ सीट गठबंधन जीत सकता था बशर्ते उनका उम्मीदवार कोई और होता। गठबंधन के उम्मीदवार हाजी याकूब कुरेशी की छवि कट्टर मुसलमान की बनी हुई है। उन्होंने डेनिश कार्टूनिस्ट को मारने वाले को 51 करोड़ का इनाम देने का फतवा जारी किया था। उनके बेटे और बेटी दोनों की छवि भी खराब है। बेटे पर मेरठ के बीच बाजार में पिस्टल लहराकर फिरौती मांगने के आरोप हैं तो बेटी पर स्कूल में लड़कियों की पिटाई करने के आरोप लगे हैं। याकूब ने पेरिस में एक मैगज़ीन के आफिस पर हुए हमले को जायज़ ठहराते हुई उसका जश्न भी मनाया था।
सहारनपुर में बीजेपी के राधव लखनपाल की स्थिति मज़बूत दिखती है क्योंकि वहां का मतदाता पूरी तरह धार्मिक लाइन पर ध्रुवीकृत है। कांग्रेस से इमरान मसूद उम्मीदवार हैं जबकि गठबंधन का जो मुस्लिम प्रत्याशी है वह मेयर चुनाव भी हार चुका है लिहाजा मुस्लिम वोट इमरान के साथ एकजुट है जिसकी प्रतिक्रिया में सारे हिंदू वोट भाजपा की ओर जाएंगे, चाहे किसी भी जाति के हों। दलितों में वाल्मीकि भी बीजेपी को वोट दे रहे हैं। बीजेपी के यहां से सीट निकालने की एक और वजह यह है कि भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद की रणनीति आखिरी समय में कांग्रेस को अपने काडरों का वोट डलवाना है। चंद्रशेखर भले ऊपर से गठबंधन को समर्थन करते दिख रहे हों, लेकिन रविवार को देवबंद में हुई महागठबंधन की रैली गवाह है कि भीम आर्मी के काडरों ने मायावती के भाषण देने के बीच में ही चंद्रशेखर के पोस्टर लहरा दिए थे। भीम आर्मी अपने सोशल मीडिया पर भी गठबंधन का प्रचार करती नहीं दिख रही है। इनकी योजना अपना वोट कांग्रेस को शिफ्ट करवाने की है।
कैराना सीट पर तबस्सुम हसन जीत जातीं बशर्ते वे नलके का चुनाव चिह्न नहीं छोड़तीं। जाटों को इस बात की दिक्कत है कि वे सपा से लड़ रही हैं, इसीलिए भाजपा और कांग्रेस में बंटेंगे लेकिन मलिकों की गठवाला खाप को छोड़कर बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ ही जाएगा। गाजियाबाद में मौजूदा बीजेपी सांसद वीके सिंह की स्थिति पहले से ही मजबूत है और यहां की सीट भी बीजेपी के पलड़े में झुकी हुई है। कुल मिलाकर देखा जाए तो पहले चरण में पश्चिमी यूपी में भारतीय जनता पार्टी को कोई खास नुकसान होता नहीं दिख रहा है।