2019 के लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण की वोटिंग शेष रह गयी है. यह चुनाव पुलवामा हमले के शहीदों और सर्जिकल स्ट्राइक के नाम पर वोट भुनाने से लेकर जाति और संप्रदाय से होते हुए गांधी और ईश्वरचंद विद्यासागर की छवि के खंडन तक पहुंच गया है. इस बीच बादलों के पीछे विमान के छिपने और 1987 में ईमेल और डिजिटल फोटोग्राफी तक के चुटकुले चल रहे हैं. जाहिर है, ऐसे में जमीनी मुद्दों की बात करना बेमानी है.
फिर भी, अभी आखिरी चरण में बिहार की आठ लोकसभा सीटों पर रविवार को वोट पड़ने हैं. इनमें राजधानी पटना की दो सीटें पटना साहिब और पाटलीपुत्र भी हैं. इन सीटों से चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी जब पटना शहर के सबसे बड़े सवाल का जिक्र तक नहीं छेड़ते तो अजीब लगता है. वह सवाल, कि आखिर क्यों बिना उद्योग-धंधे और इंडस्ट्री के इस शहर के लोगों को साल में आधे से अधिक दिन जहरीली हवा के बीच सांस लेना पड़ता है. मार्च, 2019 में आयी एक रिपोर्ट के मुताबिक पटना शहर को दुनिया का सातवां सबसे प्रदूषित शहर माना गया है. इस आबोहवा को लेकर कहीं किसी को कोई फिक्र नहीं है, न सरकार में, न पब्लिक में.
इस चुनावी माहौल में पटना की दोनों सीटों पर बस इतना यह तय होना है कि कायस्थ शत्रुघ्न सिन्हा को वोट देंगे या रविशंकर प्रसाद को, यादव लालू की पुत्री मीसा भारती को नेता मानेंगे या भाजपाई हो चुके रामकृपाल यादव को. पिछले दिनों अमित शाह और राहुल गांधी अपने-अपने प्रत्याशियों के लिये रोड शो कर चुके हैं, मगर इस भीषण गर्मी में चुनाव उस हद तक नहीं गरमा सका जैसा गरमाना चाहिए था. और यह सवाल तो कहीं नहीं है कि पटना शहर क्यों लगातार गर्म हो रहा है. भले सबको दिखता है कि पिछले कुछ दिनों में बेली रोड के किनारे के सारे पेड़ काट डाले गये.
ऐन चुनाव के बीच इसी हफ्ते पटना हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान राज्य सरकार के वन और अन्य विभागों की कार्यशैली पर नाराजगी जाहिर की. न्यायमूर्ति ज्योति शरण ने कहा कि जज के बंगले के सूखे पेड़ को काटने के लिए वन विभाग से अनुमति लेने में साल भर का वक्त लग जाता हैं, लेकिन शहर की सबसे प्रतिष्ठित सड़क बेली रोड के हरे-भरे पेड़ रातोंरात कैसे कट जाते हैं, इसका पता तक नहीं चल पाता. दिलचस्प है कि बेली रोड के किनारे के हरे पेड़ जो शहरवासियों को साफ हवा और छाया मुफ्त में देते थे, कब, क्यों और कैसे काटे गये, इसका किसी को पता नहीं. इन पेड़ों की संख्या कितनी थी और इनके बदले कहां पेड़ लगाये जायेंगे, यह भी नहीं मालूम. महज इस एक घटना से पर्यावरण के प्रति इस सरकार के रुख का पता चलता है.
शहर की आबोहवा का हाल आप इस बात से समझ सकते हैं कि सेंटर फॉर एनवायरनमेंट एंड एनर्जी डेवलपमेंट (सीड) द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2018 में पटना में कोई भी इकलौता दिन एयर क्वालिटी के मामले में ‘अच्छा’ नहीं रहा. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के पटना से संबंधित आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2018 के कुल दिनों के 48 प्रतिशत दिन वायु की गुणवत्ता ‘सामान्य’ (मॉडरेट) तथा ‘संतोषप्रद’ रही, वहीं 52 प्रतिशत दिन एयर क्वालिटी या तो ‘खराब’ या फिर ‘गंभीर/आपातकालीन’ (सिवियर) श्रेणी के रहे. पटना में दिसंबर का महीना सबसे खराब वायु गुणवत्ता वाले दिनों के रूप में दर्ज किया गया, जिसमें अप्रत्याशित ढंग से 51 प्रतिशत दिन ‘गंभीर’ श्रेणी में थे.
भारत सरकार के हेल्थ इंडेक्स (स्वास्थ्य सूचकांक) के अनुसार इस स्तर के प्रदूषण की स्थिति में लंबे समय तक ‘एक्सपोजर’ होने से सेहतमंद लोगों पर भी घातक असर पड़ता है. शहर में लगातार गंभीर होते गये वायु प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए तत्काल इमरजेंसी उपाय लागू करने की जरूरत है. दरअसल बिहार सरकार को भी ‘ग्रेडेड रेस्पॉन्स एक्शन प्लान’ पर ठोस निर्णय लेने और इसे लागू करना चाहिए. खराब वायु गुणवत्ता के कारण बढ़ रहे स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों से तात्कालिक रूप से निपटने के लिए सरकार को एक हेल्थ एडवायजरी जारी करनी चाहिए, उन दिनो के लिए जब हवा बहुत ख़राब हो जाती है.
पटना के स्थानीय निवासी धर्मराज सिंह का कहना है कि यह सच है, इस चुनाव में किसी का ध्यान ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण या वातावरण की तरफ नहीं जा रहा है. स्मॉग पॉल्यूशन को किसी पार्टी ने मुद्दा नहीं बनाया है.
सीड की सीनियर प्रोग्राम ऑफिसर अंकिता ज्योति का कहना हैं कि यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस बार किसी भी राजनीतिक दल ने वायु प्रदूषण से जुड़े मुद्दों को अपने घोषणापत्र में प्रमुखता से जगह नहीं दी. आम लोगों में पर्यावरण को लेकर चिंता तो जरूर है, लेकिन यह चुनाव का मुद्दा बने, इसके लिए अभी इतनी जागरूकता लोगों में नहीं आई है. वायु प्रदूषण से लोग प्रभावित हो रहे हैं और इससे हमारा अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है. ऐसे में राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर सोचना होगा. उनको पर्यावरण के मसले पर अपनी रणनीति और राय लोगों के बीच रखनी होगी. यह जब तक एक महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं बनता और राजनीतिक दल इसको लेकर गम्भीर नहीं होते तब तक इस वायु प्रदूषण की लड़ाई हम जीत नहीं पाएंगे.
पटना में अन्य बड़े शहरों की तरह कोई भी बड़ी इंडस्ट्री नहीं है फिर भी प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. शहर में वाहनों की संख्या बेतहाशा बढ़ती जा रही है. वैसे वाहन जिन्हें प्रदूषण बोर्ड की ओर से जारी वायु प्रदूषण निवारण के मास्टर प्लान में जो 15 साल से पुराने वाहन उपयोग, खरीद-बिक्री पर पूर्ण रूप प्रतिबंध लगाने की बात कही गयी है, उनका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है. कई जगह गलत तरीके से निर्माण कार्य जारी है. राजधानी की सड़कों के किनारे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है, सड़कों पर उड़ती धूल से लेकर अन्य कई समस्याएं हैं जो दिन प्रतिदिन शहर को प्रदूषित कर रही हैं. निर्माण सामग्री, बालू, सीमेंट, गिट्टी और मिट्टी का सड़क पर पड़ा रहना, खुले में कचरा जलाना भी वायु प्रदूषण की वजह बन रहा है.
ग्रीनपीस संस्था के कैम्पेनर के तौर पर बिहार में काम कर रहे इश्तियाक का कहना है- ‘’हमारे लिए बहुत ताज्जुब का विषय है कि चुनाव में आजीविका, स्वास्थ्य, साफ पानी, साफ हवा, जहरमुक्त भोजन जैसे जरूरी मुद्दे कहीं नहीं हैं. पॉलिटिकल मुद्दे हैं, विचारधारा के मुद्दे हैं, लेकिन जनता के सरोकार के मुद्दे चुनाव से गायब हैं. इसके बावजूद कि साल 2017 में देश में प्रदूषण की वजह से 12 लाख लोगों की जान चली गई, इसको लेकर कहीं कोई सवाल नहीं है’’.
शहर में पॉलीथिन के इस्तेमाल पर पूरी तरह से बैन है लेकिन मल्टीनेशनल कंपनियां अब भी प्लास्टिक के पैकेट में अपना सामान बेच रही हैं. राज्य की सबसे बड़ी डेयरी कंपनी सुधा भी अपने दूध के पैकेट के लिए प्लास्टिक का उपयोग करती है, उसने भी कोई विकल्प नहीं तलाशा, न ही रिसाइक्लिंग की बात की.
शहर में साउंड पोल्यूशन के मुद्दे पर काम करने वाली संस्था स्टूडेन्ट ऑक्सीजन मूवमेंट के कन्वेनर विनोद सिंह का कहना हैं कि राजनीतिक पार्टियों को नहीं लगता कि ऐसे सामाजिक मुद्दे से वोट मिल सकता हैं. पॉलिटिकल पार्टियां जाति के लिहाज से उम्मीदवारों को टिकट देती हैं, जो पार्टियां जाति और धर्म के नाम पर पोलराइजेशन करती हैं, उनसे कैसे उम्मीद की जाये कि वह स्वस्थ वातावरण, बेहतर समाज, स्वस्थ समाज जैसे मुद्दों की बात करेंगी.