औद्योगिक विकास के लिए तरस रहे बिहार में आखिर क्यों नहीं उठती डालमिया नगर को फिर से विकसित करने की मांग? क्यों राजनेताओं के एजेंडे में नहीं है इस औद्योगिक परिसर को फिर से चालू करना ?
पुष्यमित्र
‘जानते हैं, इस फैक्ट्री के मजदूर यूनियन की राजनीति से निकले दो लीडर बिंदेश्वरी दुबे और केदार पांडेय बिहार के मुख्यमंत्री बन गये. मगर 17 इकाइयों के जरिये पूरे शाहाबाद के इलाके को संपन्न बनाने वाली डालमिया नगर की रोहतास इंडस्ट्रियल लिमिटेड को पुनर्जीवित करने का सच्चा प्रयास किसी राजनेता ने आज तक नहीं किया. सच पूछें तो इस औद्योगिक परिसर को वीरान बनाने का कोई गुनहगार है तो अपने राज्य की राजनीति ही है. आज भी चुनाव आता है, तो राजनेता तरह-तरह के वायदे लेकर डालमिया नगर पहुंच जाते हैं. यहां ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे. इस बार तस्वीर बदल देंगे. मगर पिछले 35 सालों से लगातार ठगे जा रहे डालमिया नगर के वासी और पूर्व कर्मियों के परिवार वाले अब मान चुके हैं कि इस वीराने में कभी बहार नहीं आयेगी.’
बिहार के रोहतास जिले के डेहरी ऑन सोन में स्थित डालमिया नगर के पुराने औद्योगिक परिसर के मजदूरों के जर्जर क्वार्टर में बैठे विनय कुमार मिश्रा उर्फ विनय बाबा जब हमें यह बता रहे थे, तो उनके चेहरे पर बिहार की राजनीति को लेकर घोर निराशा की भावना साफ नजर आ रही थी.
कुछ ही देर पहले हम डालमिया नगर के उस परिसर का अवलोकन करके यहां आये थे, जहां एक जमाने में 17 औद्योगिक इकाइयां काम करती थीं और बारह हजार से अधिक श्रमिक रहा करते थे. उस जर्जर वीरान परिसर में खेल के मैदानों को छोड़ दिया जाये तो कहीं रौनक नहीं थी. बस एक परिसर में रेलवे के लोग स्क्रैप निकालने में व्यस्त थे. परिसर की हर इमारत पर वक्त ने काले निशान छोड़ दिये थे, जगह-जगह ईंटे उखड़ रही थीं और दीवारों से पलस्तर झड़ रहा था.
श्रमिकों के क्वार्टर को छोड़ दिया जाये तो बाकी हर इमारत वीरान ही थी. विश्वास नहीं हो रहा था कि कभी रामकृष्ण डालमिया नामक उद्योगपति ने इस परिसर को पूरे इलाके की संपन्नता का केंद्र बनाया होगा. यह औद्योगिक परिसर जमशेदपुर के बाद तत्कालीन बिहार का दूसरा सबसे बड़ा परिसर था. विश्वास यह भी नहीं होता है कि इसी फैक्ट्री समूह ने कभी ज्ञानपीठ जैसी संस्था और टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार समूह को जन्म दिया था.
आज जब बिहार की सरकार राज्य में उद्योग को बढ़ाने के लिए तरह-तरह के तिकड़म कर रही है. 2005 से ही सुशासन की सरकार ने देश भर के उद्योगपतियों को बड़े-बड़े लुभावने ऑफर दिये, मगर तब भी साइकिल उद्योग और छोटी-मोटी इकाइयों के अलावा यहां कोई उद्योगपति नहीं पहुंचा. ऐसे में यहां वीरान पड़ा यह औद्योगिक परिसर क्या सरकार को नजर नहीं आता. यहां की संभावना क्या उन्हें प्रेरित नहीं करती कि इसे फिर से विकसित किया जाये.
1933 में डालमिया ने यहां सुगर फैक्ट्री लगायी. सोन के किनारे का यह इलाका उद्योग के लिए काफी बेहतर माना जा रहा था. बाद में यहां पेपर, सीमेंट, वनस्पति, एस्बेस्टस, केमिकल और फाइबर प्लांट भी लगे. सभी को रोहतास इंडस्ट्रियल लिमिटेड की छतरी के अंदर लाया गया. यहां 17 इकाइयां एक साथ काम करने लगीं. यहां पहली उद्योगबंदी 1968 में हुई, जब सुगर मिल को बंद कर दिया गया, हालांकि उस बंदी का अधिक असर नहीं पड़ा. परमानेंट कर्मचारियों को दूसरी इकाइयों में रख लिया गया. तब भी 1500 कर्मी बेरोजगार हुए थे. मगर 1984 में एक झटके में रोहतास इंडस्ट्रियल लिमिटेड की सभी 17 इकाइयों को बंद कर दिया गया. जब उद्योग बंद होने जा रहा था, तब डालमिया नगर की सभी इकाइयों में 12629 कर्मी काम करते थे. 10312 परमानेंट, शेष ठेका मजदूर. बाद में इससे जुड़ी सहायक इकाइयों में भी लोग बेरोजगार होने लगे.
ऐसी जानकारी मिलती है कि उस वक्त रोहतास इंडस्ट्रीज पर बिहार राज्य इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड का बिजली बिल का 5.18 करोड़ बकाया हो गया था. इसी वजह से इसे 1984 में बंद किया गया. अगर यह वजह सच है तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है, क्योंकि कहा जाता है कि कभी इस जगह से उत्पन्न बिजली की सप्लाई दूर-दूर तक होती थी. बहरहाल इस बंदी की वजह से तमाम श्रमिक एक झटके में सड़क पर आ गये, यह इलाका तबाह हो गया.
यहां की तबाही का मंजर भी ऐसा था कि सुनकर आपके आंखों में आंसू आ जाएंगे. प्रभात खबर के स्थानीय पत्रकार अमित कुमार पांडेय बताते हैं कि बंदी के बाद कई अधिकारी और कर्मचारी तो पलायन कर गये, मगर कुछ अधिकारियों के इसी शहर के बाशिंदों ने रोजी-रोटी के लिए रिक्शा खींचते हुए देखा है. अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएं दूसरे के घर में बरतन मांजने जाने लगीं. विनय बाबा बताते हैं कि यह तो अगली पीढ़ी की सजगता का परिणाम है कि कुछ साल के झटके के बाद स्थिति संभल गयी. उन लोगों ने अपनी मेहनत और सामूहिक प्रयास से सरकारी नौकरियां हासिल कीं और अपने परिवार को संकट से उबारा.
भले ही इस फैक्ट्री समूह के बंद होने की तबाही का दंश डालमिया नगर और डेहरी ऑन सोन के लोग आज भी झेल रहे हैं, मगर राजनेता इसे चुनावी मुद्दा बनाने से नहीं चूकते. हर चुनाव में स्थानीय नेता वादा करता है कि वह डालमिया नगर की रौनक फिर से लौटायेगा. मगर ये वादे सिर्फ खोखले दावे होते हैं. इनमें सच्चाई नहीं होती. सच यह है कि सरकार ने मान लिया है, डालमिया नगर अब विकसित नहीं हो सकता. लिहाजा इसके जमीन और स्क्रैप की बिक्री धड़ल्ले से चल रही है.
हाल के दिनों में रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड का हवाई अड्डा औने-पौने दाम में लुधियाना के कुछ वस्त्र व्यापारियों को बेच दिया गया. बदले में स्थानीय लोगों को यह भरोसा दिलाया गया कि ये लोग यहां कपड़ों की इंडस्ट्री लगायेंगे. मगर स्थानीय लोगों को इस योजना पर भी कोई भरोसा नहीं है. वे कहते हैं, जब तक उद्योग लग न जाये, अब किसी बात पर भरोसा नहीं होता.
बाबा कहते हैं, ‘’डालमिया नगर पिछले कई सालों से ऐसी ही हवा-हवाई योजनाओं के बारे में सुनता रहा है, मगर इससे सिर्फ लोगों की राजनीति चमकती है, हमारी किस्मत नहीं’’.
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