शाम 7 बजे के लगभग झांसी रेलवे स्टेशन पर यात्रियों की भीड़ अचानक बढ़ने लगी है। यहां से जाने वाले यात्रियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। बढ़े हुए यात्रियों को थोड़ी देर में आने वाली एक ट्रेन का इंतजार है। थोड़े-से इंतजार के बाद उत्तर प्रदेश सम्पर्क क्रांति एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नम्बर 5 पर आकर रुकती है। ट्रेन में चढ़ने के लिये यात्रियों के बीच मारामारी मचती है। ट्रेन जब तक अपने गंतव्य के लिये रवाना होती है, तो एकाध को छोड़कर लगभग सभी यात्री ट्रेन में बैठ चुके हैं।
यही बुंदेलखंड है- बदनाम बुंदेलखंड- पलायन जिसकी पहचान और किस्मत बन चुका है। हर साल बदलता मौसम इसको और बढ़ा देता है। ऐसे में यहां के रहवासी अपना घर छोड़कर दूसरी जगह कमाने न जाएं तो इनके पास भूखे मरने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं है। चुनाव सबके लिये उम्मीद लेकर आता है, इस उम्मीद में बुंदेलखंडवासी भी शामिल हैं। उन्हें उम्मीद है कि अबकी चुनाव के बाद जो सरकार आएगी, शायद वो कुछ बेहतर करेगी, जिससे उनकी जिन्दगी में कुछ परिवर्तन होगा और इसी उम्मीद के सहारे वे एक बार फिर नई सरकार चुनने के लिये तैयार हैं।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 13 जिलों को मिलाकर बने बुंदेलखंड का बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश में आता है। उत्तर प्रदेश वाले बुंदेलखंड के हिस्से में लोकसभा की चार सीटें हैं- झांसी, हमीरपुर, बांदा और जालौन। पिछले लोकसभा चुनाव में चारों सीटें भाजपा के खाते में आई थीं। यह पहली बार था जब यहां के लोगों ने किसी को चारों सीटें एक साथ दीं और उसकी केंद्र में सरकार बनी। इससे पहले हमेशा अलग-अलग सीटों पर अलग-अलग लोग यहां का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। चारों सीटें एक साथ एक पार्टी को देने के बाद यहां के लोगो को उम्मीद थी कि शायद अब कुछ बदलेगा, जिससे उनकी जिंदगी बेहतर होगी लेकिन पांच साल बीतने के बाद यहां के लोग एक बार फिर ठगा-सा महसूस कर रहे हैं।
हमीरपुर सीट बुंदेलखंड की सबसे पिछड़ी सीट में से एक है लेकिन राजनीतिक रूप से बेहद सक्रिय मानी जाती है। सूखा-पलायन-गरीबी ने इस क्षेत्र को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। हमीरपुर प्राकृतिक संसाधनों की लूट का बेहतरीन उदाहरण है, जहां से यमुना-बेतवा जैसी बड़ी और कई छोटी नदियां गुजरती हैं, जो खनन माफियाओं के लिये स्वर्ग के समान हैं। यही कारण है कि हमीरपुर-महोबा के अधिकतर सांसद, विधायक खनन उद्योग से जुड़े हुए हैं। नदियों के बाद पहाड़ यहां की दूसरी बड़ी प्राकृतिक सम्पदा है। इनके सहारे उत्तर प्रदेश सरकार को अच्छा खासा राजस्व मिलता है। जिले और आसपास के क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा ही यहां के लोगों के जी का जंजाल बनी हुई है।
हमीरपुर के रहने वाले गौरव का कहना है कि सरकार खूब राजस्व कमा रही है, माफियाओं के सहारे नेता-अधिकारी खूब माल कमा रहे हैं, लेकिन जनता बेहाल है। उसे अपनी रोटी का जुगाड़ करने भी दिल्ली-मुंबई जाना पड़ता है। रोजी-रोटी की चिंता इतनी विकट है कि पर्यावरण जैसे विषय पर बात कौन करे। रोजगार पर बात करना यहां के नौजवानों की दुखती रग पर हाथ रख देने जैसा है। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने 2012 में बाहर गये पंकज का कहना है, ‘’हम लोग 2013 से इन परीक्षाओं में बैठ रहे हैं। तब अखिलेश यादव पर गुस्सा आता था कि नौकरियों में इतनी धांधली हो रही है और सरकार इसे रोकने के लिये कुछ नहीं कर रही। लेकिन अब क्या है, मोदी जी ने 2014 में वोट मांगा, 2017 के विधानसभा चुनावों में मोदी ने फिर वोट मांगा, फिर दिया, लेकिन वही सब अब भी जारी है। अब किसको कहें? कुछ करने के नाम पर इन्होंने तो नौकरियां ही कम कर दीं?’’
मास्टर बनने की आस लगाये हमीरपुर के अंकित कहते हैं, ‘’घरवाले सरकारी नौकरी की आस लगाये बैठे हैं, उन्हें कौन बताए कि सरकार भर्तियां ही नहीं निकाल रही। अमित का कहना है कि भाजपा की योगी सरकार ने नौकरी देने की बजाय शिक्षा मित्रों को ही नौकरी से बाहर कर दिया है।
रोजगार के साधन उपलब्ध करा के और खेती के लिये आवश्यक संसाधन बेहतर बना के यहां आधी से ज्यादा आबादी को पलायन से रोका जा सकता है। ऐसी एक कोशिश हुई थी 1985 में, जब हमीरपुर के भरुआ सुमेरपुर क्षेत्र को औद्योगिक इकाई के रूप में स्थापित करने के प्रयास किये गये। शुरुआत में यहां छोटी और बड़ी इकाइयों को मिलाकर 35 फैक्ट्रियां लगीं, जिनसे करीब दस हजार लोगों को रोजगार मिला। बाद में सब बंद हो गईं। वर्तमान में हिंदुस्तान यूनिलीवर के अलावा लगभग सभी फैक्ट्रियां बंद पड़ी हैं और लोग बेरोजगार। सबसे आखिर में बंद होने वाली एक सरिया फैक्ट्री थी, जिसके बंद होने से करीब तीन हजार लोग बेरोजगार हुए, जिनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। इसी फैक्ट्री में बंटा सरिया लोडिंग मजदूर का काम करते थे। बंटा बताते हैं, ‘’जब यह फैक्ट्री चालू थी, तब तक यहां रोजगार की काफी संभावनाए थीं, लेकिन उसके बंद होने के बाद सब ठप है।‘’ यही एक दौर था जब सुधार की थोड़ी बहुत कोशिश हुईं। उसके बाद रोजगार के सिलसिले में हालात लगातार खराब होते गये, जो अब तक जारी है।
नियमित पड़ने वाले सूखे से छुटकारा, युवाओं के लिए रोजगार के बेहतर अवसर, उच्च शिक्षा के लिए बेहतर संसाधन और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं यहां की बुनियादी जरूरतें हैं लेकिन किसी भी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में इनको दुरुस्त करने की घोषणा शामिल नहीं है। हमीरपुर जिले के एक गांव से उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद आए देवेंद्र का कहना है, “बुंदेलखंड एक दुधारू गाय है, जिसको चुनाव के समय दुह कर पांच साल के लिए छोड़ दिया जाता है। उसके बाद ये उसकी किस्मत है कि पांच साल बाद होने वाले अगले चुनाव तक वह जिंदा रहती है या मर जाती है।”
अपने विधायकों और सांसदों से मोहभंग का आलम ये है कि इन तमाम ज्वलंत समस्याओं के बावजूद यहां अपने भावी जनप्रतिनिधि को लेकर लोगों में कोई चर्चा नहीं हे। अगला सांसद कौन बनेगा, इससे ज्यादा चर्चा इस बारे में है कि अगली सरकार किसकी बनेगी। अब वोट चूंकि सांसद प्रत्याशी को ही देना है, तो लोग अपने हिसाब से इसका निर्णय कर रहे हैं। हमीरपुर के चुन्ना कहते हैं, ‘’प्रत्याशियों के चयन पर हमारा कोई अधिकार नहीं है इसलिए पार्टियां जिसको भी उम्मीदवार बनाएं, हमें वोट उन्हीं में से देना है, ये हमारी मजबूरी है।‘’
चुन्ना को लगता है कि इस बार कोई ढंग का प्रत्याशी मैदान में नहीं है। भाजपा ने अपने निवर्तमान सांसद को ही मैदान में उतारा है। इसका मतलब ये है कि उनका रिकॉर्ड अच्छा है? यह सवाल पूछने पर लगभग गाली देते हुए शिवसिंह कहते हैं, ‘’खाक अच्छा है? पिछली बार मोदी लहर में जीत गया वरना उसकी हैसियत पार्षद का चुनाव जीतने तक की नहीं है।‘’ संतराम का कहना है कि उसकी हैसियत हो न हो, वोट तो मोदी को ही देना है। इस बात पर लगभग सभी सहमति जताते हैं।
भाजपा और गठबंधन ने ठाकुर प्रत्याशी मैदान में उतार कर लड़ाई को ठाकुर बनाम ठाकुर बना दिया है। इसमें सबसे ज्यादा नुकसान लोधों को हुआ है, जो जातिगत वर्चस्व के सहारे सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखते थे। नए समीकरणों के हिसाब से देखा जाए, तो लोध वोट कांग्रेस को मिलने पर भी वह लड़ाई में नहीं है क्योंकि ठाकुरों के साथ ब्राह्मणों के वोट अब भी बीजेपी के कब्जे में हैं।
इस सीट के पुराने दिग्गज गंगाचरण राजपूत, राजनारायण बुधौलिया और अशोक चंदेल तीनों भाजपा में हैं। गंगाचरण राजपूत के बारे में प्रचलित है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति करने वाली ऐसी कोई पार्टी नहीं, जिसमें उन्होंने अपनी सेवाएं न दी हों। घाट-घाट का पानी पीने के बाद गंगाचरण घर वापसी करते हुए फिर से भाजपा में आ गए हैं और चरखारी विधानसभा से अपने बेटे को उन्होंने विधायक बनवा दिया है। खुद जातिगत आधार के सहारे वे हमीरपुर या झांसी से टिकट की जुगाड़ में थे, लेकिन भाजपा ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। अब देखना यह है कि उनका अगला सियासी ठिकाना क्या होता है।
बुधौलिया अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत में सपाई रहे और लगातार कई चुनाव हारने के बाद 2004 में सपा से सांसद बने। एक बार सत्ता की मलाई खा चुके राजनारायण को कुर्सी लगातार लुभाती रही और इसके लिये 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में वे बसपाई हो गये और विधायक बने। उसके बाद से वे लगातार बसपा में रहे, लेकिन 2019 की शुरुआत में एक बार कुर्सी का मोह जागा तो टिकट की आश में भाजपा में शामिल हो गये। हमीरपुर सदर के विधायक अशोक चंदेल फिलहाल भाजपा में हैं, लेकिन अपनी राजनीतिक शुरुआत उन्होंने बसपा से की थी। उसके बाद सपा से होते हुए भाजपा तक पहुंचे।
भाजपा के लिये 2014 का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती तो यहां है ही, साथ में अपना जनाधार बचाए रखने का भी दबाव है। इसीलिए उसने दूसरे दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल किया। वहीं उसकी दूसरी चिंता लोध वोटर को वापस बीजेपी के साथ जोड़े रखने का भी है क्योंकि जीत-हार में यह वोटबैंक बड़ी भूमिका निभाता है। लोध बिरादरी से आने वाली उमा भारती के चुनाव न लड़ने ने भी भाजपा का बहुत नुकसान किया है।
लेखक मीडियाविजिल के बुंदेलखंड संवाददाता हैं