17वीं लोकसभा का चुनाव संपन्न हो गया। अंदेशा पहले से था कि 2014 के मुकाबले 2019 के नतीजे ज्यादा अप्रत्याशित और चौंकाने वाले होंगे। नतीजे आने के बाद चौंकने वालों में वे लोग शामिल नहीं हैं जो संघ परिवार से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। उनका तो शुरू से ही मानना रहा कि अबकी बार बीजेपी 300+ सीटें लाएंगी। वैसे आत्मविश्वास तो मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, उपेन्द्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी और ममता बनर्जी में भी था कि वे बीजेपी को बुरी तरह परास्त करेंगे, लेकिन वह बुरी तरह धराशायी हुआ।
ऐसे में पांच बड़े सवाल इस आम चुनाव को लेकर हैं जिन पर आम लोगों के बीच काफी भ्रम है। इन सवालों के जवाब एक-एक कर के देना ज़रूरी है।
क्या इस चुनाव ने परिवारवाद को खत्म कर दिया है
बहुत सारे बुद्धिजीवियों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि लालू प्रसाद यादव परिवार का वंशवाद, मुलायम सिंह यादव का परिवारवाद, मायावती का अपने भतीजे को पार्टी के मंच पर स्थापित करना और परिवारवाद को बढ़ावा देना- इन्हें जनता ने नापसंद किया और इनसे अलग हो गई। परिवारवाद बेशक एक कारक है लेकिन निर्णायक नहीं। बिहार में यदि यह कारक रहता तो रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान, भाई पशुपति पारस से लोग क्यों नाराज नहीं थे, उनको क्यों नहीं हराया? अश्विनी कुमार चौबे के बेटे से लोग क्यों नाराज नहीं थे? महाराष्ट्र में शिवसेना पूरी तरह वंशवादी पार्टी है। बालासाहेब ठाकरे की तो तीसरी पीढ़ी राजनीति में स्थापित होने के कगार पर है, फिर उनको लोगों ने क्यों नहीं हराया? तेलंगाना में वाईएसआर जगन रेड्डी अपनी पारिवारिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। ओडिशा में नवीन पटनायक अपने परिवार की ही विरासत संभाल रहे हैं, उन्हें क्यों नहीं लोगों ने हराया? यूपी में स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघमित्रा मौर्य जीत गईं।
इसलिए यह कहना कि पार्टियां परिवारवाद के कारण हारीं, राजनीतिक सत्य से मुंह मोड़ना है। यह आंशिक सत्य हो सकता है। सत्य यह है कि परिवार और जाति ही ऐसे दलों की प्राणवायु हैं। अगर इनसे इनका परिवार और जाति छीन ली जाए तो ये पार्टियां राजनीति में स्वत: निष्प्रभावी हो जाएंगी। बीजेपी इस जातिगत आग्रह को जानती थी। उसने ऐसी रणनीति बनाई कि इनकी जातियों को छोड़कर इनसे सभी जातियों को छीन लिया जाए। इस रणनीति में वह कामयाब रही। अपने सुप्रीमो मोदी की छवि उन्होंने ऐसी गढ़ी जो अन्य पार्टियों के सुप्रीमो की छवि पर भारी पड़ी। मोदी गरीब है, मोदी पिछड़ा है, मोदी अतिपिछड़ा है, मोदी हिन्दू के लिए जान भी दे सकता है, मोदी पाकिस्तान को सबक सिखा सकता है, मोदी सारे देश का एकमात्र नेता है, मोदी विदेश में भी लोकप्रिय देश का पहला और इकलौता नेता है।
मोदी के व्यक्तित्व में इतनी खूबियां गढ़ दी गईं कि विरोधी दल के नेता क्षेत्रीय और कमजोर लगने लगे। मोदी के सामने तो बिल्कुल बौना। देश संभालने में अक्षम। इस छवि निर्माण में संघ परिवार के साथ एक और परिवार जुड़ा हुआ था, जिसे हम भारतीय संघी मीडिया परिवार कह सकते हैं। वह कदम से कदम मिलाकर संघ के साथ चल रहा था। आश्चर्य नहीं करना चाहिए, करीब दशकों से रूसी राष्ट्रपति पुतिन इसी मीडिया मैनेजमेंट के द्वारा लोकप्रियता की राजनीति करते हुए सत्ता बरकरार रखे हुए है। इसलिए ब्रिटिश अख़बार दि गार्डियन को अपने संपादकीय में लिखने को मजबूर होना पड़ा कि विश्व को पुतिन की तरह एक और राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियतावादी नेता नहीं चाहिए।
क्या बीजेपी की जीत जाति निरपेक्ष है और यह राष्ट्रवाद की जीत है
बार-बार देश के बुद्धिजीवियों द्वारा यह स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि मोदी की जीत जाति निरपेक्ष है क्योंकि मतदाताओं ने जातियों से ऊपर उठकर मोदी का समर्थन किया है। यह सर्वथा गलत आकलन है। भारत में राष्ट्रवाद की भी जाति है। जिस राष्ट्रवाद की बात बीजेपी करती है वह राष्ट्रवाद नहीं जाति वर्चस्व है। जाति वर्चस्व ही उसका राष्ट्रवाद है। जातियां एक के ऊपर एक तह की तरह सजी रहें और जातियां उसी में अपना गौरव समझें, यही उनका राष्ट्रवाद और देशभक्ति है। इस चुनाव में जाति-गौरव और जातिगत पूर्वाग्रह को बीजेपी ने बूथ स्तर तक भुनाया। कौन कह सकता है कि मोदी जाति-निरपेक्ष हैं? वे जाति-निरपेक्ष रहते तो खुद को अतिपिछड़ा और तेली बताते फिरते? आपकी आंख पर कोई अगर पट्टी बांध रहा है तो वह भारतीय मीडिया है। उसे लगता है कि यह मोदी के राष्ट्रवाद की जीत है। पूछने का मन करता है कि यह कैसा राष्ट्रवाद है जो सवर्ण वर्चस्ववाद को स्थापित करता है? संसद से लेकर पंचायत तक? यह कैसा राष्ट्रवाद है जो पीएम तक को जाति बताने पर मजबूर करता है?
क्या मोदी ने ईवीएम नहीं हिन्दू दिमाग को हैक कर लिया है
बहुत से लोग शंका व्यक्त कर रहे हैं मोदी और शाह ने ईवीएम को हैक कर चुनाव जीता है। चुनाव आयोग का मोदी के प्रति नरम रवैया, जरूरत से ज्यादा छूट देने और आयोग द्वारा अपारदर्शिता बरतने के कारण यह शंका स्वाभाविक है। फिर भी इस प्रश्न को स्थगित करते हुए एमआइएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी के उस वक्तवरू पर एक बार गौर करते हैं जिसमें उन्होंने एक टीवी इंटरव्यू में कहा था कि बीजेपी ने ईवीएम नहीं, हिन्दू दिमाग को हैक कर लिया है। यह कहना उनकी राजनीति को सूट करता है और बीजेपी को भी। क्या खुद उनकी राजनीति में हिन्दू बेदखल हैं? क्या ऐसा कहना चाहते हैं वे? क्या उनकी जीत में हिन्दुओं का लेशमात्र योगदान नहीं? क्या टीआरएस हिन्दुओं और ब्राह्मणों की पार्टी नहीं है जिससे उनका गठजोड़ है? क्या प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघड़ी हिन्दुओं की पार्टी नहीं जिसके साथ उनका गठबंधन है? यह कहना कि बीजेपी हिंदुत्व फैला रही है यह राजनीति को सरलीकृत कर देना है। हिन्दू -मुस्लिम की बाइनरी तैयार करना है।
बाबासाहेब ने कहा था हिन्दू समाज एक मिथ है। अगर सही कहें तो बीजेपी हिंदुत्व नहीं जातिवाद फैला रही है। पश्चिम बंगाल में उसने यही किया। वहां मतुआ संप्रदाय के साथ गठजोड़ किया। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मतुआ संप्रदाय दो सौ साल पुराना है। इसने आधुनिक भारत में धार्मिक रूप से सबसे पहले ब्राह्मणवाद के खिलाफ बिगुल बजाया। इतिहास में नामशूद्रों को बहुत प्रताड़ित किया गया है। बांग्लादेश द्वारा भी और पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार और वहां के भद्रलोक द्वारा भी। इनकी आबादी पूरे पश्चिम बंगाल में 17 प्रतिशत है और करीब सत्तर विधानसभा के नतीजे प्रभावित करने की ये क्षमता रखते हैं। बीजेपी ने उनको साधा क्योंकि दशकों से इनको बंगाल के समाज में हाशिए पर खड़ा कर दिया गया था। इनके खिलाफ घृणा अभियान चलाया गया। इनकी इंटिग्रिटी और देशभक्ति पर सवाल उठाए गए।
इनको बीजेपी ने एक राजनीतिक स्पेस मुहैया करायी जिसमें ये खुद समाहित होते चले गए। भले दीर्घकालीन राजनीति में ये बीजेपी के साथ नहीं टिक पाएंगे, लेकिन अभी बंगाल में बीजेपी की ताकत बन चुके हैं। इस तरह बीजेपी ने वहां जातिवाद फैलाया। केवल नामशूद्री में नहीं, वहां पूर्वांचल और बिहार से गए उच्चवर्णी ब्राह्मण, भूमिहार जैसी जातियों में राष्ट्रवाद के नाम पर बीजेपी ने जातिगत अस्मिता को भुनाया और बंगाल के स्थानीय भद्रलोक यानी कुलीन ब्राह्मण, वैद्य और कायस्थों में सुषुप्त जाति अस्मिता को जगाया। इसलिए यह कहना कि बीजेपी हिंदुत्व फैला रही है, गलत है। वह सब जगह जातिवाद ही फैला रही है। जाति गौरव की परिभाषा गढ़ रही है, जिसे वे अपनी भाषा में राष्ट्रवाद कहते हैं।
क्या बीजेपी की जीत ने साबित कर दिया है कि ब्राह्मणवाद अपराजेय हैं
कुछ लोग डरे हुए हैं। उन्हें लग रहा है कि ब्राह्मणवाद, जो संविधान लागू होने के बाद शिथिल हो रहा था, पुनः स्थापित हो रहा है। भय निर्मूल नहीं है लेकिन वास्तविक परिस्थिति यह है कि ब्राह्मणवाद पहले से ज्यादा समावेशी हुआ है। अब वह किसी जाति को बहिष्कृत करने की बात नहीं करता बल्कि वह अपने खांचे में उसे समाहित कर रहा है। जातियों को वह जगह दे रहा है। पहले उसने कोइरी, राजभर को समाहित किया। बिहार में कुर्मी, पासवान को समाहित किया। चिराग पासवान के एक बार कहने पर छह सीट तुरंत दे दी गई। यह समावेश वह हिंदुत्व के नाम पर नहीं कर रहा है, बल्कि जातिगत अस्मिता के नाम पर कर रहा है। यह विपक्ष को चुनौती है क्योंकि उनका जातिगत नैरेटिव बीजेपी ने पूरी तरह हड़प लिया है। यही एक अस्त्र था जिससे वे बीजेपी को अतीत में परास्त करते थे। बीजेपी ने उनका अस्त्र ही छीन लिया। यह बीजेपी की मजबूती है और यहीं भविष्य में कमजोरी साबित होगी क्योंकि बीजेपी ने अपने अंदर इतना अंतर्विरोध इकट्ठा कर लिया है कि एक दिन यही उसके विघटन का कारण बनेगा।
बदली हुई परिस्थितियों में विपक्ष क्या करे
विपक्ष थोड़ा सांस ले। सोचे, कि समाज और परिस्थिति कितनी बदल गई है। जाति की राजनीति से जाति का खात्मा नहीं होगा। जो आंबेडकरवादी हैं वे जानते हैं कि बाबासाहेब का अंतिम लक्ष्य था जाति का उन्मूलन। मिशनरी लोग इस बात पर कायम रहें। युग बदला है, युगधर्म बदला है। राष्ट्रवाद की परिभाषा बदल गई है। सवर्णों ने अपने सारे नैरेटिव बदल लिए हैं। उनके लिए अब महात्मा गांधी राष्ट्रपिता नहीं बल्कि देशद्रोही हैं और नाथूराम गोडसे महान देशभक्त। प्रज्ञा ठाकुर की जीत से यह साबित हुआ है। जिस गांधी की आंबेडकरवादी आलोचना करते नहीं थकते थे उसको उन्होंने खुद खारिज कर दिया है। अब नाथूराम गोडसे और उसके जैसे हत्यारा और आतंकवादी आपके सामने है, अपना नैरेटिव लेकर। वे अपना जातिवाद पूरे समाज पर थोपने की कोशिश करेंगे। उसको राष्ट्रवाद की भव्यता के रूप में समाज का श्रृंगार बनाने की कोशिश करेंगे। सबका साथ तो लेंगे लेकिन विकास गिने चुने लोगो का होगा। बहुत सारी चुनौतियां भारतीय समाज को मिलने वाली हैं जिससे निपटने के समेकित प्रयोजन नहीं किए गए तो भारतीय समाज की प्रगतिशीलता, स्वतंत्रता, भाईचारे को एक नए अंधकार-युग में प्रवेश करने से कोई नहीं रोक सकता।
अंत में निष्कर्षत: यही कहना है कि पूंजीवादी, पुरोगामी, जातिवादी तंत्र जो आधुनिक यंत्र-तंत्र से समृद्ध हो उससे पार पाना किसी राजनीतिक पार्टी के अकेले वश की बात नहीं। जिन्हें केवल राजनीतिक दल पर भरोसा है उन्हें केवल निराशा छोड़कर कुछ भी हाथ नहीं लगने वाली क्योंकि पूंजी प्रायोजित ब्रांड से निपटने की किसी राजनीतिक पार्टी के पास न तो इच्छाशक्ति है, न युक्ति है, न संसाधन है और न ही जोखिम उठाने का दम । वे अपने परंपरागत जाति-शस्त्रों से ही युद्ध लड़ने के लिए अभिशप्त हैं जबकि जाति अब एक भोथरा हथियार हो चुकी है। उन्हें संघ के विकल्प का दर्शन गढ़ना होगा जो उनके दायरे से बाहर की चीज प्रतीत होता है।