प्रकाश कुमार रे
ओ जेरूसलम, नबियों की ख़ूशबू से पूर
जन्नत और ज़मीन के दरम्यान कमतरीन दूरी…
नज़रें झुकाये ख़ूबसूरत बच्चा जिसकी उँगलियाँ जली हुई हैं…
ओ जेरूसलम, दुख के शहर
तुम्हारी आँखों में रुका हुआ इक आँसू…
कौन धोयेगा ख़ून से तर तुम्हारी दीवारों को?
ओ जेरूसलम, मेरे अज़ीज़
नींबू के पेड़ कल फलेंगे, जैतून के दरख़्त हुलसेंगे, तुम्हारे आँखें नाचेंगी;
और कबूतर फिर लौट आयेंगे तुम्हारी पवित्र मीनारों पर
– निज़ार क़ब्बानी
रोमन साम्राज्य पर 306 से 337 तक राज करने वाला कौंस्टेंटाइन पहला ऐसा सम्राट था जिसने ईसाई धर्म को अंगीकार किया था. लेकिन उसका बपतिस्मा उसकी मत्युशय्या पर ही हुआ था और वह जीवन भर पूर्ववर्ती राजाओं की तरह बहुदेववादी रहा. सम्राट बनने के कुछ समय बाद से ही उसने ईसाइयों के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनायी थी और उसके संरक्षण में ईसाई धर्म एक तरह से बहुदेववाद के साथ-साथ राजधर्म बन गया था. ब्रिटानिया में उसके पिता की मौत की बाद सैनिकों ने उसे रोम साम्राज्य के पश्चिमी हिस्से का राजा घोषित कर दिया था, किंतु पूरे साम्राज्य का स्वामी बनने के लिए उसे मैक्सेंटियस और लिसिनस से युद्ध करना पड़ा. करीब दो दशकों बाद वह 324 में ही पूरा अधिकार कर सका था. कहते हैं कि 312 में रोम के बाहर जब उसकी भिड़ंत मक्सेंटियस से हुई, तो उसने देखा कि आकाश में सूर्य की रौशनी के साथ कुछ ईसाई चिन्ह और शब्द लिखे हैं. इस दृश्य से प्रभावित होकर अपने सैनिकों की ढाल पर यूनानी भाषा में ईसा मसीह के नाम के दो शब्द लिखवाये. जैसा कि आकाश में उसने लिखा देखा था, इस शुभ के साथ उसकी जीत हुई और पूरे पश्चिमी हिस्से में उसका आधिपत्य हो गया. ईसाइयों के ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता जताते हुए अगले साल मिलान घोषणा में उसने यह आदेश जारी कर दिया कि उसके राज में ईसाइयों के साथ अब कोई भेदभाव न होगा. इस घोषणा में उसके साथ पूर्वी रोमन साम्राज्य का सम्राट लिसिनस भी था.
इस चमत्कार के प्रभाव के साथ एक तथ्य यह भी है कि उसकी माता हेलेना पहले से ही ईसाई थी और उसके असर को नकारा नहीं जा सकता. यह भी उल्लेखनीय है कि उसका पिता ऐसे संप्रदाय से प्रभावित था जो सूर्य के उपासक थे. बहुदेववाद से एकेश्वरवाद की ओर इस शासक को ले जाने में यह बात भी अहम रही होगी. परंतु जितनी जल्दी उसके धार्मिक रुझान में अंतर आया, उतनी जल्दबाजी उसने धर्म के मामले में राजनीतिक रूप से नहीं दिखायी. इससे उसकी परिपक्व समझ का भी पता चलता है. हालांकि अब ईसाई अपनी इमारतें बनवा सकते थे और आराम से अपने धर्म का प्रचार कर सकते थे. ईसाइयत के इतिहास में दोनों मां-बेटे के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें संत और ईसा मसीह के बारह प्रमुख शिष्यों के समकक्ष माना जाता है.
वर्ष 324 में पूरे साम्राज्य पर कब्जा करने के साथ ही उसने अपनी नयी राजधानी- कौंस्टेन्टिनोपल- स्थापित की. इस शहर को कुस्तुंतुनिया के नाम से भी जाना जाता है और आज यह तुर्की के इस्तानबुल का हिस्सा है. रोम में तो बहुदेववादियों के वर्चस्व के चलते ईसाइयों को किनारे-किनारे ही अपनी इमारतें और स्मारक बनवाने की गुंजाइश रही थी, पर नयी राजधानी तो पूरी तरह से ईसाईमय रही. कौंस्टेंटाइन ने ईसाइयत की मान्यताओं को लागू करने के सिलसिले में बहुदेववादी बलि, पवित्र वेश्यावृत्ति, धार्मिक सामूहिक सहवास, ग्लेडियटरों के खेलों आदि को प्रतिबंधित कर दिया. उसकी नीति एक सम्राट, एक साम्राज्य, एक धर्म की ओर अग्रसर होने की थी, जो ईसाई मान्यताओं के अनुरूप भी थी.
ईसाइयत की अपनी मान्यताओं की एकरूपता को लेकर खुद ईसाई धर्म के प्रमुखों और प्रचारकों में एका नहीं था तथा और वे अनेक मामलों- खासकर ईसा मसीह के देवत्व तथा धार्मिकता की आध्यत्मिकता और भौगोलिकता- को लेकर परस्पर विरोधी राय रखते थे. सभी अहम खेमे सम्राट को अपनी राय से प्रभावित करने की कोशिश में आपसी तकरार भी रखते थे. जो लोग इस विषय पर विस्तार से पढ़ना चाहते हैं, वे करेन आर्म्सस्ट्रॉन्ग की ‘जेरूसलम’ के साथ डायरमेड मैककुलॉक की ‘ए हिस्ट्री ऑफ क्रिश्चियानिटी’ देख सकते हैं. ईसाई बिशपों की खींचतान से क्षुब्ध सम्राट ने 325 में मामले को हमेशा के लिए निपटा देने के इरादे से नाइकिया में बैठक बुलायी और अपनी समझ के अनुसार मसले के समाधान की कोशिश की. यह ईसाइयों की पहली आधिकारिक उच्चस्तरीय धार्मिक बैठक थी. इस बैठक में इलिया कैपिटोलिना यानी जेरूसलम के बिशप मकारियस ने भूले-बिसरे शहर की ओर सम्राट का ध्यान खींचा. मोंटेफियोरे ने अनुमान लगाया है कि शायद जब कौंस्टेंटाइन आठ साल का था, तब वह सम्राट डायोक्लेशियन के काफिले के साथ इलिया की यात्रा कर चुका था. सम्राट ने जेरूसलम में उन जगहों पर शानदार धार्मिक इमारतें बनाने की अनुमति दे दी, जो ईसा मसीह और ईसाई धर्म के लिए खास थीं. इस मंजूरी के साथ साम्राज्य का खजाना भी इलिया कैपिटिलिना में ईसाई जेरूसलम बसाने के लिए खोल दिया गया.
इतिहास पढ़ा जाये, और इतिहासकारों तथा इतिहास लेखन के दावं-पेंच को न देखा जाये, तो फिर मामला अधूरा रह जाता है. ऐसे में कई बार भ्रम आगे की समझ के लिए गड़बड़ी का कारण भी बन जाता है. नाइकिया की कौंसिल के तुरंत बाद जिस तेजी से जेरूसलम में गतिविधियां तेज हुईं, उसको लेकर मोंटेफियोरे के लेखन और आर्म्सस्ट्रॉन्ग के टेक में अंतर दिखता है, हालांकि खुद मोंटेफियोरे ने आर्म्सस्ट्रॉन्ग की किताब की खूब प्रशंसा की है. चूंकि हमारी इस दास्तान का अभी तक बड़ा आधार ये दो किताबें हैं, तो यह बता देना जरूरी है कि मोंटेफियोरे उस परिवार के वारिस हैं जिसने 19-20वीं सदी में जेरूसलम में यहूदी समुदाय के लिए बहुत कुछ किया जिसके लिए इजरायली राज्य और दुनिया भर के यहूदी उसे बहुत आदर के साथ देखते हैं. करेन आर्म्सस्ट्रॉन्ग एक ईसाई नन हैं और ब्रिटेन की नागरिक हैं. मोंटेफियोरे परिवार का बड़ा हिस्सा भी ब्रिटिश नागरिक है.
खैर, जेरूसलम में तेज निर्माण के बारे में मोंटेफियोरे कहते हैं कि इसका कारण कौंसेटाइन परिवार में हुई दो मौतें हैं. पूरे साम्राज्य पर आधिपत्य होने के कुछ समय बाद ही सम्राट की पत्नी फाउस्टा ने सौतेले बेटे क्रिस्पस सीजर पर आरोप लगाया कि उसने शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश की. सम्राट ने इस अपराध के लिए अपने बेटे को मौत की सजा दे दी. अगर यह आरोप सही भी था, तो यह पहला या आखिरी ऐसा मामला नहीं था कि सौतेले बेटे ने सौतेली मां से संबंध बनाने की कोशिश की थी. मोंटेफियोरे अंदेशा जताते हैं कि फाउस्टा ईसाइयत पर आधारित नयी नैतिकता की आड़ में अपने बेटों की राह का रोड़ा दूर कर रही थी तथा शायद सम्राट भी अपने बेटे की सैनिक कामयाबियों से ईर्ष्या करता था. मौत के फरमान से सम्राट के ईसाई सलाहकार बेहद नाखुश थे और उसकी मां हेलेना ने भी उसे समझाया कि फाउस्टा ने बेबुनियाद आरोप लगाया था और शायद उसने यह भी समझा दिया कि फाउस्टा ने ही क्रिस्पस पर डोरे डाले थे.
अब व्याभिचार के आरोप में मारे जाने की बारी फाउस्टा की थी जिसे या तो खौलते पानी में जिंदा उबाल दिया गया होगा या फिर वह भाप से भरे बंद गर्म कमरे में घुट-घुट कर मरी हो. ये दोनों सजायें कहीं से भी ईसाइयत के सिद्धांतों के अनुरूप न थीं. मोंटेफियोरे कहते हैं कि ईसाइयत की महिमा का बखान करने वालों ने इस हिस्से को पूरी तरह बिसार दिया है. आर्म्सस्ट्रॉन्ग की किताब में यह हिस्सा नहीं है. मैककुलॉक के इतिहास में भी इस्का उल्लेख नहीं है. उन्होंने यह जरूर बताया है कि फाउस्टा की संपत्ति से सम्राट ने रोम में कुछ चर्च बनवाया. इस संदर्भ में यह भी दिलचस्प है कि जब फाउस्टा को मौत की सजा दी गयी, उसकी मां यानी सम्राट की सास यूट्रोपिया उसकी योजना के अनुसार शहर को फिर से बसाने और चर्च वगैरह इमारतें बनवाने के सिलसिले में जेरूसलम पहुंच चुकी थी. मोंटेफियोरे ने इसका जिक्र फुटनोट में करते हुए लिखा है कि फाउस्टा की मौत के साथ ही उसकी मां भी इतिहास से बाहर कर दी गयी. उनके आख्यान में हेलेना महत्वपूर्ण है. उसके काम को वे कौंस्टेंटाइन का प्रायश्चित कहते हैं. आर्म्सस्ट्रॉन्ग ने यूट्रोपिया का खूब उल्लेख किया है और हेलेना का बहुत कम.
बहरहाल, नये जेरूसलम के निर्माण के लिए आगस्टा- राजमाता- हेलेना शाही खजाने से मनमाना खर्च करने के अधिकार के साथ 327 में पैलेस्टीना पहुंच गयीं और उनकी निगरानी में रोमन इमारतों को गिरा कर ईसाइयत से जुड़ी जगहों की खोज और खुदाई का काम शुरू हुआ. खुदाई में ऐसी चीजें मिलनी थीं, जिनसे आगे की ईसाइयत की पूरी दिशा ही बदल जानी थी.
पहली किस्त: टाइटस की घेराबंदी
दूसरी किस्त: पवित्र मंदिर में आग
तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्म हुआ…
चौथी किस्त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया
पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना
(जारी)
Cover Photo : Rabiul Islam