जेएनयू छात्रसंघ की पूर्व उपाध्यक्ष और मशहूर राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता शेहला राशिद तमाम पत्रकारों के निशाने पर हैं। कहा जा रहा है कि 6 सितंबर को उन्होंने रिपब्लिक टीवी के पत्रकार को प्रेस क्लब में जाने से रोका या उसे भाग जाने को कहा। सच्चाई यह है कि प्रेस क्लब में गौरी लंकेश की हत्या के ख़िलाफ़ कार्यक्रम 3 बजे था जबकि यह घटना काफ़ी पहले की है। प्रेस क्लब के बाहर दोपहर 12 बजे से ही तमाम कार्यकर्ता जुटे हुए थे। सड़क पर (ध्यान दीजिए प्रेस क्लब के अंदर नहीं) शेहला लोगों को संबोधित कर रही थीं। तमाम चैनलों की तरह रिपब्लिक का कैमरामैन भी फुटेज बना रहा था। इसमें कोई दिक्कत नहीं थी। अचानक रिपब्लिक का रिपोर्ट अपना माइक शेहला के मुँह पर लगाने लगा। शेहला इसी पर भड़कीं और रिपब्लिक के पूरे रुख को लेकर उन्होंने निशाना बनाया। हमें भूुलना नहीं चाहिए कि रिपब्लिक चैनल, अर्णव गोस्वामी के नेतृत्व में शेहला जैसे लोगों के प्रति शिकारी की तरह पेश आता है। इस मुद्दे पर राज्यसभा टीवी से जुड़े युवा पत्रकार दिलीप ख़ान ने कुछ तथ्यात्मक बातें रखी हैं —
दो दिनों से कई पोस्ट पढ़ चुका हूं जिसमें Shehla Rashid की इस बात पर आलोचना की जा रही है कि उसने Republic के पत्रकार को क्यों हड़काया। कुछ बातें कहने को हैं:
- ये जो ताज़ा रिपब्लिक है और जिसका डॉन पहलेTIMES NOWमें था, उसने कैसी रिपोर्टिंग और कैसी डिबेट की JNU को लेकर? ज़्यादा नहीं, बस डेढ़ साल पहले की बात है। पूरे देश में जेएनयू की जो ख़ास तरह की छवि बनाई गई, उसमें अर्नब गोस्वामी का बड़ा रोल है।
- टाइम्स नाऊ जब जेएनयू, शेहला, Umar, Kanhaiya, Anirbanइन सबको देशद्रोही बतारहा था तो वो कौन सी Neutrality और Objectivity दिखा रहा था? Objectivity नाम के शब्द को पत्रकारिता में बार-बार रटाया जाता है। पहले मीडिया इसे फॉलो करे। शेहला एक्टिविस्ट है। उसे पक्ष-विपक्ष चुनने की आज़ादी है। उसे आज़ादी है कि वो किसी चैनल को बाइट दे और किसी की माइक सामने से हटा दे। आप ज़बर्दस्ती मुंह पे माइक टांग देंगे क्या?
- ये भी हो सकता है कि वो रिपोर्टर अपने चैनल की आइडियोलॉजिकल फ्रेम से अलग हो। ऐसा होता भी है। लेकिन माइक जिस संस्था की थी उसका एजेंडा बिल्कुल क्लीयर है। पहले दिन से साफ़ है। उस एजेंडे को शेहला अपने विरोध में पाती है। इसलिए उसकी मर्जी है कि वो माइक हटाने को कह दें।
- जिस प्रोटेस्ट में शेहला ने ऐसा किया वो 3 बजे प्रेस क्लब के भीतर वाला प्रोटेस्ट नहीं था, जिसे “सिर्फ़ पत्रकारों” का कहकर प्रचारित किया जा रहा है। शेहला वाला मामला उससे पहले का है, जो पत्रकारों के अलावा एक्टिविस्टों की साझे कॉल पर हो रहे प्रोटेस्ट में घटित हुआ।
- मान लीजिए किसी मीडिया हाउस ने किसी संस्था के ख़िलाफ़ रिपोर्टिंग की। हफ़्ते भर बाद उस संस्था का कोई आदमी न्यूज़रूम पहुंच जाए और ज्ञान देने लगे तो चैनल वाले क्या करेंगे?
- गौरी लंकेश की हत्या पर जो खेमा जश्न मना रहा है, रिपब्लिक उस खेमे को आइडियोलॉजिकल खुराक देता है। ऐसे मेंGauri Lankeshकी हत्या के ख़िलाफ़ प्रदर्शन में अगर रिपब्लिक की माइक कोई मुंह पर तान दे तो स्वाभाविक ग़ुस्सा निकलेगा।
- पत्रकारिता में या कहीं भी objectivity सबसे बेकार चीज़ है। इसपर किसी को कोई डाउट हो तो अलग से बात कर लेंगे। ऑब्जेक्टिविटी की जो वैचारिक hegemony है वो बहुत ख़तरनाक है। तराजू से तौल कर निष्पक्षता नहीं आती। आप टास्क के तौर पर मुझे कोई बढ़िया डिबेट/लेख दे दीजिए मैं बता दूंगा कि कहां कहां ऑब्जेकेटिविटी नहीं है। लेख अगर ऑब्जेक्टिविटीवादी का हो तो और बढ़िया।देखिए घटना का वीडियो