अब्बासी खुल्फा ने जेरूसलम से मुंह मोड़ा

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प्रकाश के रे

फरवरी, 750 में अबु अल अब्बास अस सफाह ने बगदाद के पास जाब नदी के तट पर आखिरी उमय्यद खलीफा मारवान को हराकर अब्बासी खिलाफत की स्थापना कर दी. इसी के साथ 661 से चले आ रहे उमय्यद खिलाफत का खात्मा हो गया. पराजित मारवान दमिश्क पहुंचा, पर उसे शहर का समर्थन न मिला और भटकते-भागते उसी साल अगस्त में मिस्र में उसका कत्ल हो गया. अस या अल सफाह को उसकी क्रूरता के कारण यह उपनाम मिला था. पैगंबर मोहम्मद के खानदान- बानु हाशिम- से ताल्लुक रखनेवाले अल सफाह उनके चाचा और सहयोगी अब्बास से अपनी पैदाईश मानते थे. अब्बासियों ने अपनी राजधानी इराकी शहर कूफा में बनायी और इसी के साथ इस्लामी साम्राज्य में दमिश्क समेत सीरिया का केंद्रीय महत्व भी खत्म हो गया. इस फैसले का बड़ा असर जेरूसलम पर भी पड़ा. हालंकि अब्बासी भी शहर की पवित्रता को अहमियत देते थे, पर अब वे शहर के लिए खजाना लुटाने के लिए तैयार न थे.

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कहते हैं कि सुलह के बहाने अल अब्बास ने उमय्यद वंश के तमाम वारिसों को दावत के लिए कूफा बुलाया और भोजन परोसे जाने से पहले ही सभी को मार डाला. एक अब्द अल रहमान इब्न मुआविया ही बच सका. वह भागकर स्पेन पहुंचा, जहां एक इलाके में उसने अपना राज स्थापित किया और वहां उमय्यद खिलाफत तीन सदियों तक कायम रही. इस बाबत दूसरी कथा यह यह है कि सीरिया के गवर्नर अब्द अल्लाह इब्न अली ने उमय्यदों को खोज-खोजकर मारा. जून, 754 में चाचा अल अब्बास की मौत के बाद इस गवर्नर ने खलीफा के भाई अल-मंसूर के बरक्स खुद के खलीफा बनने का दावा पेश किया, पर उसे कैद कर लिया गया और 764 में मार डाला गया. पर, सीरिया की गवर्नरी उसके परिवार के पास ही रही और उसके पकड़े जाने के बाद उसका भाई सालिह को यह पद मिला. अब्द अल्लाह ने सीरिया में अब्बासी खिलाफत को मजबूत करने में बड़ी भूमिका निभायी थी और उसी के दायरे में जेरूसलम भी आता था.

महज चार साल की खिलाफत में अल अब्बास ने शासन-प्रशासन में बड़े बदलाव किये. उसके अधिकारियों में मुस्लिमों के अलावा अच्छी-खासी तादाद में यहूदी, ईसाई और फारसी भी थे. उमय्यदों के उलट उसने सेना में गैर-मुस्लिमों और गैर-अरबों को भी शामिल किया. उसका सेनापति वही अबु मुस्लिम था, जिसने खुरासान से बगावत की शुरूआत की थी. अबु मुस्लिम 37 साल की उम्र में अपनी मौत तक इस पद पर रहा था. अबु अब्बास और फिर मंसूर की खिलाफत ने अब्बासी शासन को न सिर्फ ठोस मजबूती दी, बल्कि इस्लामी सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के प्रसार में बहुत बड़ा योगदान दिया. अबु अब्बास के समय ही समरकंद में कागज की फैक्ट्री लगायी गयी जिसे युद्ध में जीते गये चीनी चलाते थे.

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खलीफा बनने के साथ ही मंसूर ने हजरत अली के खानदान का कत्लेआम कराया और सेनापति अबु मुस्लिम को मार डाला. अब्द अल्लाह भी मारा गया. इस तरह से अब उसके राज को चुनौती देनेवाला कोई नहीं बचा था. उसके अत्तार जामरा के हवाले से कहानी कही जाती है कि मंसूर के खास कमरे की चाबी हमेशा अपने पास रखता था और उसकी हिदायत थी कि इस कमरे को उसकी मौत के बाद ही खोला जाये. जब 775 में उसकी मौत के बाद उसके बेटे ने वह कमरा खोला, तो पाया कि उसमें हजरत अली के खानदान के बच्चों-बूढ़ों की लाशें नाम-पते के साथ करीने से रखी हुई हैं.

इस पूरे प्रकरण में इनका ध्यान जेरूसलम से हटा हुआ था. साल 757 में हज कर मक्का से कूफा लौटते हुए मंसूर जेरूसलम आया. गृहयुद्धों और वित्तीय संकट ने शहर को लगभग वीरान बना दिया था. साल 747 के भयावह भूकंप से क्षतिग्रस्त इमारते मरम्मत की बाट जोह रही थीं. मंसूर ने अल-वालिद की बनायी अल-अक्सा मस्जिद का मरम्मत तो कराया, पर इसके खर्चे के लिए उसे डोम ऑफ द रॉक के सोने-चांदी को पिघला दिया. लेकिन 771 के भूकंप ने फिर इसे तबाह कर दिया. तीसरे अब्बासी खलीफा अल महदी ने मस्जिद को न सिर्फ दुरुस्त कराया, बल्कि उसे बड़ा विस्तार दिया. इसी दौर में इसका नाम अल-अक्सा पड़ा.

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जैसा कि करेन आर्म्सट्रॉन्ग समेत अनेक लेखकों ने रेखांकित किया है, अब यह जगह पैगंबर मुहम्मद की रात में की गयी यात्रा की मान्यता से पूरी तरह जुड़ गयी थी. अब्बासियों के उसी दौर में महान लेखक और इतिहासकार मोहम्मद इब्न इशाक ने पैगंबर की जीवनी में इस वाकये को विस्तार से लिखा था. कई मुस्लिम इस प्रकरण को सच्ची घटना मानते हैं, तो कई इसे एक आध्यात्मिक अनुभव मानते हैं जिनमें पैगंबर की बीवी हजरत आयशा भी शामिल हैं.

साल 762 में मंसूर अब्बासी खिलाफत की राजधानी कूफा से बगदाद ला दिया. उसने तो एक दफा जेरूसलम की यात्रा भी की, पर उसके बाद अनेक खलीफा कभी उस पवित्र शहर में नहीं गये. लेकिन पैगंबर मुहम्मद के साथ जुड़ जाने तथा डोम ऑफ द रॉक के बनने के बाद इस्लामी आध्यात्म में इस शहर का आकर्षण लगातार बढ़ता जा रहा था. इसी खिंचाव में सूफियों का रेला इस शहर का बाशिंदा बना जिसमें सूफीवाद के संस्थापकों में एक माने जानेवाले अबु इशाक इब्राहिम इब्न अदम भी शामिल थे. अल-अक्सा मस्जिद की मरम्मत के दौरान ही मशहूर महिला सूफी राबिया का देहांत जेरूसलम में हुआ.

पर, सूफियों की आध्यात्मिकता तथा उमय्यद और अब्बासी खलिफाओं की सहिष्णुता की नीति जेरूसलम के मुस्लिम, ईसाई और यहूदी बाशिंदों में आपसी नजदीकी को मजबूती न दे सकी तथा इनमें लगातार दरार बढ़ती गयी. खलीफाओं के जेरूसलम से हाथ खींचने के कारण शहर और आसपास के मुसलमान आर्थिक रूप से कमजोर होने लगे थे. इनमें से कईयों ने गिरोह बनाकर ईसाई चर्चों को लूटना भी शुरू कर दिया था. उन्हें लगता था कि ईसाईयों के पास बहुत धन है. गवर्नरों और खलीफाओं ने देने के बजाये इस इलाके से धन उगाहना शुरू कर दिया. इसी बीच प्लेग की महामारी ने भी कहर ढाया. साल 786 में खलीफा बने हारून अल रशीद की दरबारी शानो-शौकत और इल्मो-अमाल की बढ़त के किस्से आज भी चाव से कहे और सुने जाते हैं, पर इराक के बाहर अपने राज को ठीक से चला पाने में इसे कामयाबी न मिली. करीब चौथाई सदी तक राज करनेवाला यह खलीफा कभी जेरूसलम नहीं गया.

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खलीफा हारून जेरूसलम के मुस्लिम बाशिंदो के लिए भले ही एक खलीफा भर रहे, पर सुदूर रोम में ऐसा कुछ घटित हो रहा था कि ईसाईयों के लिए हारून महान शासक बन गया. साल 800 में क्रिसमस के दिन पोप लियो तृतीय ने फ्रैंक्स और लोम्बार्ड के राजा चार्ल्स को पश्चिमी रोमन साम्राज्य का शासक बना दिया. उसके राज्यारोहण समारोह में जेरूसलम के ईसाई पादरी भी मौजूद थे. पांच दशकों से उपेक्षा के शिकार रहे जेरूसलम के दिन बहुरने वाले थे, पर यह कृपा बगदाद से नहीं, रोम से आनेवाली थी. जाहिर है, इसका फायदा ईसाईयों को ही होना था.

पहली किस्‍त: टाइटस की घेराबंदी

दूसरी किस्‍त: पवित्र मंदिर में आग 

तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्‍म हुआ…

चौथी किस्‍त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया

पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना

छठवीं किस्त: जब एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा 

सातवीं किस्त: हेलेना को मिला ईसा का सलीब 

आठवीं किस्त: ईसाई वर्चस्व और यहूदी विद्रोह  

नौवीं किस्त: बनने लगा यहूदी मंदिर, ईश्वर की दुहाई देते ईसाई

दसवीं किस्त: जेरूसलम में इतिहास का लगातार दोहराव त्रासदी या प्रहसन नहीं है

ग्यारहवीं किस्तकर्मकाण्डों के आवरण में ईसाइयत

बारहवीं किस्‍त: क्‍या ऑगस्‍टा यूडोकिया बेवफा थी!

तेरहवीं किस्त: जेरूसलम में रोमनों के आखिरी दिन

चौदहवीं किस्त: जेरूसलम में फारस का फितना 

पंद्रहवीं क़िस्त: जेरूसलम पर अतीत का अंतहीन साया 

सोलहवीं क़िस्त: जेरूसलम फिर रोमनों के हाथ में 

सत्रहवीं क़िस्त: गाज़ा में फिलिस्तीनियों की 37 लाशों पर जेरूसलम के अमेरिकी दूतावास का उद्घाटन!

अठारहवीं क़िस्त: आज का जेरूसलम: कुछ ज़रूरी तथ्य एवं आंकड़े 

उन्नीसवीं क़िस्त: इस्लाम में जेरूसलम: गाजा में इस्लाम 

बीसवीं क़िस्त: जेरूसलम में खलीफ़ा उम्र 

इक्कीसवीं क़िस्त: टेम्पल माउंट पहुंचा इस्लाम

बाइसवीं क़िस्त: जेरुसलम में सामी पंथों की सहिष्णुता 

तेईसवीं क़िस्त: टेम्पल माउंट पर सुनहरा गुम्बद 

चौबीसवीं क़िस्त: तीसरे मंदिर का यहूदी सपना

पचीसवीं किस्‍त: सुनहरे गुंबद की इमारत

छब्‍बीसवीं किस्‍त: टेंपल माउंट से यहूदी फिर बाहर