प्रकाश के रे
साल 610 के रमजान के मुबारक महीने में मक्का के मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह को देवदूत जिब्रइल के मार्फत अल्लाह का पहला संदेश आया. उसी साल हेराक्लियस ने रोमन साम्राज्य की कमान संभाली थी और फारस के शाह खुसरो द्वितीय ने बैंजेंटाइन इलाकों पर हमले शुरू किये थे. अगले बाइस सालों तक पैगंबर मोहम्मद को संदेश आते रहे जिनके संग्रह को हम पवित्र कुर’आन के नाम से जानते हैं. जन्म से पहले पिता को और छह साल की उम्र में माता को खो देने वाले मुहम्मद का लालन-पालन उनके चाचा अबु तालिब ने किया था. इन्हीं के साथ मुहम्मद ने सीरियाई शहर बुसरा की यात्रा की थी, जहाँ उन्होंने यहूदी और ईसाई धर्मों के बारे में जानकारी पायी और जेरूसलम की पवित्रता के बारे में जाना. एक तरफ रोमन और फारसी साम्राज्य सभ्यता की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, वहीं अरब कबीलों की आपसी रंजिश, धर्मांधता, अंधविश्वास और फरेब से त्रस्त था. अरबों का सबसे पवित्र स्थान का’बा बहुदेववाद का केंद्र बना हुआ था तथा हज और अन्य धार्मिक आयोजनों से मक्का के प्रभावशाली परिवार अच्छी आमदनी करते थे. ऐसे में मुहम्मद के एकेश्वरवाद के सिद्धांत को स्वीकार कर पाना उनके लिए मुश्किल था. मुहम्मद का बराबरी का संदेश भी कबीलों और फिरकों में ऊँच-नीच के भाव से बँटे समाज को स्वीकार न था.
आखिरकार, 622 में उन्हें मक्का छोड़ मदीना जाना पड़ा. उनके साथ करीब 70 परिवार और थे. इसी साल से इस्लामी कैलेंडर शुरू होता है. अब मुहम्मद अपने विचारों और कुर’आन के संदेशों को अमली जामा पहना सकते थे. बहुत जल्दी मुस्लिम सेना और प्रचारकों ने अरब के एक हिस्से पर अपना कब्जा बना लिया और 630 में मुहम्मद और उनके अनुयायी बिना किसी खून-खराबे के मक्का में दाखिल होने में कामयाब रहे. चूँकि जेरूसलम की हमारी दास्तान का यह विषय नहीं है, पर यह उल्लेख करना जरूरी है कि पैगंबर मुहम्मद की जिंदगी और इस्लाम के शुरुआती सालों का इतिहास बेहद महत्वपूर्ण है. इस हिस्से को जाने बगैर दुनिया के इतिहास को समझना संभव नहीं होगा.
चूँकि इस्लाम के उदय के समय हेराक्लियस रोमन सम्राट था, इस कारण इस्लामी परंपरा में उसका उल्लेख विस्तार से हुआ है तथा इस्लामी आख्यानों में हेराक्लियस को अच्छे शासक के रूप में दर्ज किया गया है. जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, कुछ इस्लामी लेखकों ने यह भी दावा किया है कि उसने मोहम्मद को पत्र लिखा था और इस्लाम को अपनाने की इच्छा जाहिर की थी. लेकिन इसमें संदेह है. कुछ विद्वानों का मत है कि हेराक्लियस या उसके दरबारियों ने अगर इस्लाम का नाम भी सुना होगा, तो उसे यहूदी धर्म के एक संप्रदाय के रूप में ही देखा होगा. अरबी टुकड़ियाँ रोमनों पर यत्र-तत्र हमले भी करती थीं, पर यह रोमनों के लिए कोई खास चिंता की बात नहीं थी क्योंकि अरबी कबीले बहुत जमाने से रोमन काफिलों पर हमलावर होते थे. इसके अलावा, फारसी और रोमन सेनाओं में अरब लड़ाकों के रूप में भी भर्ती हुआ करते थे.
मदीने की हिजरत से एक साल पहले मक्का में इस्लाम और उसके पैगंबर ने इसरा और मेराज (621 ईस्वी) के जरिये जेरूसलम पर अपने आध्यात्मिक अधिकार की घोषणा कर दी थी. मान्यता यह है कि एक रात मुहम्माद साहब का’बा के करीब सोये हुए थे और उन्हें देवदूर जिब्रइल ने जगाया. वे दोनों एक विचित्र घोड़े पर सवार होकर ‘सुदूर स्थित पवित्र स्थान’ पर गये. इस घोड़े के पंख थे और उसका मुँह इंसानी था. वहाँ मुहम्मद अपने पूर्वजों- आदम और अब्राहम- से तथा नबियों- हजरत मूसा, हजरत युसुफ और हजरत ईसा से मिले. वहाँ से वे एक सीढ़ी से जन्नत गये. उसी रात वे वापस मक्का आ गये. हालाँकि कुर’आन में उस सुदूर जगह को चिन्हित नहीं किया गया है, पर मुस्लिम मान्यता है कि वह जेरूसलम का टेंपल माउंट है. पैगंबर कुछ समय तक नमाज जेरूसलम की ओर होकर पढ़ते थे. बाद में नमाज की दिशा मक्का की गयी थी. आज भी इस्लाम में नमाज की पहली दिशा- अल किबला अल उला- का तात्पर्य जेरूसलम है.
इसके साथ ही, उन्होंने यहूदी और ईसाई पयंबरों को पूरा सम्मान दिया. मुहम्मद के संदेश भी उनकी तरह ही बराबरी, करुणा, न्याय जैसे विचारों की वकालत करता था. उन्होंने अपने अनुयायियों को पहले आये नबियों की बातों को मानने वालों यानी यहूदियों और ईसाईयों से बहस की मनाही की थी, और कहा था कि ऐसा करना भी पड़े, तो कहो कि हमारा और तुम्हारा ईश्वर एक है और हमें उसके प्रति समर्पित होना है. कुर’आन कहता है कि हमें अब्राहम के धर्म की ओर लौटना है, जो असली है. अब्राहम किसी धर्मग्रंथ के आने से पहले के हैं तथा यहूदियों और ईसाईयों के लिए उतने ही पवित्र हैं.
एक मान्यता यह है कि अरबी अब्राहम के बेटे इस्लाइल की संतान हैं. इस तरह से अब अरबियों के पास उनका पैगंबर था, ईश्वरीय किताब थी और अब्राहम की विरासत में हिस्सा था. पैगंबर के नेतृत्व में अरब का बड़ा हिस्सा इस्लामी झंडे के तले आ चुका था. ईसाई और यहूदी तबकों के साथ नरम होने के इस्लामी सिद्धांत का भी असर जेरूसलम पर जीत के बाद दिखायी देता है. एक बात और उल्लेखनीय है कि मुहम्मद के क़यामत के विचार ने भी इस्लाम को त्वरा देने में भूमिका निभायी. ईसाई और यहूदी भी मानते हैं कि क़यामत के दिन ईश्वर का फ़ैसला जेरूसलम में ही होगा. इस तरह से इस्लाम के जेरूसलम पहुँचने से पहले ही इस्लाम में जेरूसलम बहुत अहम हो चुका था.
साल 632 में छह जून को एक बेहद खास और शानदार 62 साल की जिंदगी जीने के बाद पैगंबर मोहम्मद का देहांत हो गया. इसके एक साल बाद जेरूसलम में सोफ्रोनियस ईसाई समुदाय के मुखिया बने और जिनके हाथों से सात साल बाद मुहम्मद के अनुयायियों को शहर की चाबी मिलनी थी. बहरहाल, इसी बीच इस्लाम के पहले खलीफा अबू बक्र की अगुआई में इराक और पैलेस्टीना में अरबी हमलावर हो रहे थे. साल 634 में खलीफा के देहांत होने तक अरबियों ने फारसियों से बहरीन जीत लिया था और पैलेस्टीना में रोमनों को पीछे धकेलते हुए गाजा पर दखल कर लिया था.
यहाँ यह बात जरूर कही जानी चाहिए कि मुहम्मद या अबू बक्र की जीतों के पीछे धर्म का दायरा बढ़ाने के इरादे को नहीं रखा जाना चाहिए. इस्लाम के इन शुरुआती सालों में धर्म का विस्तार करना उनके एजेंडे में नहीं था. उनकी नजर में उनका धर्म अरबों के लिए ही था और ईसाई या यहूदी जमातों को जोर-जबर से धर्म-परिवर्तन कराने का कोई मतलब न था क्योंकि ईश्वरीय संदेश तो उन जमातों के लिए भी आये थे. यही कारण है कि इन युद्धों में, या फिर जेरूसलम में जीत के बाद कत्लेआम जैसी वारदातें नहीं होती हैं, जो रोमन या फारसी हमलों की आम बातें थीं.
और, यह भी कि उस दौर में मुहम्मद और उनके अनुयायियों के सामने हमेशा यह खतरा था कि वे और उनका इस्लाम हमेशा के लिए दुनिया से मिटा दिये जायें क्योंकि मक्का के ताकतवर परिवारों के अलावा उनका मुकाबला अन्य मजबूत कबीलों से भी था, और बाहर के साम्राज्य तो थे ही. पैगंबर की शख्सियत और उनके साथ के लोगों के जज्बे की इस्लाम की उन जीतों में मेल-मिलाप और बराबरी में सबसे बड़ी भूमिका थी. और कारवाँ बनता गया…!
पहली किस्त: टाइटस की घेराबंदी
दूसरी किस्त: पवित्र मंदिर में आग
तीसरी क़िस्त: और इस तरह से जेरूसलम खत्म हुआ…
चौथी किस्त: जब देवता ने मंदिर बनने का इंतजार किया
पांचवीं किस्त: जेरूसलम ‘कोलोनिया इलिया कैपिटोलिना’ और जूडिया ‘पैलेस्टाइन’ बना
छठवीं किस्त: जब एक फैसले ने बदल दी इतिहास की धारा
सातवीं किस्त: हेलेना को मिला ईसा का सलीब
आठवीं किस्त: ईसाई वर्चस्व और यहूदी विद्रोह
नौवीं किस्त: बनने लगा यहूदी मंदिर, ईश्वर की दुहाई देते ईसाई
दसवीं किस्त: जेरूसलम में इतिहास का लगातार दोहराव त्रासदी या प्रहसन नहीं है
ग्यारहवीं किस्त: कर्मकाण्डों के आवरण में ईसाइयत
बारहवीं किस्त: क्या ऑगस्टा यूडोकिया बेवफा थी!
तेरहवीं किस्त: जेरूसलम में रोमनों के आखिरी दिन
चौदहवीं किस्त: जेरूसलम में फारस का फितना
पंद्रहवीं क़िस्त: जेरूसलम पर अतीत का अंतहीन साया
सोलहवीं क़िस्त: जेरूसलम फिर रोमनों के हाथ में
सत्रहवीं क़िस्त: गाज़ा में फिलिस्तीनियों की 37 लाशों पर जेरूसलम के अमेरिकी दूतावास का उद्घाटन!
अठारहवीं क़िस्त: आज का जेरूसलम: कुछ ज़रूरी तथ्य एवं आंकड़े
आवरण चित्र: Rabiul Islam