जाति तोड़ना, आदमी को इंसान बनाने की राह में अनिवार्य सोपान है। अफ़सोस इस संबध में अकादमिक जगत में विमर्श लगभग शून्य हो गया है और सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर जाति को नये सिरे से मज़बूत करने का महाप्रयास हो रहा है। ऐसी परिस्थिति में जाति तोड़ने के विमर्श की विरासत को मीडिया विजिल आगे बढ़ा रहा है। पाठकों से अनुरोध है कि इस संबंध में अपने विचार MEDIAVIGILINDIA@GMAIL.COM पर लिख भेजें। पढ़िये, पहली कड़ी बतौर प्रख्यात लेखक कँवल भारती के विचार- संपादक
संभवत: डा. आंबेडकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने जाति का विनाश क्यों और कैसे होना चाहिए, विषय पर विचार किया था. जाति की उत्पत्ति और विकास पर तो बहुत सी किताबें लिखी गईं, लेकिन जाति के विनाश पर एकमात्र किताब डा. आंबेडकर की ही है—जाति का उच्छेद.
सवाल यह नहीं है कि जाति के विनाश पर यह पहली किताब है, बल्कि सवाल यह है कि जाति खत्म करने के लिए डा. आंबेडकर की इस किताब पर अमल क्यों नहीं हुआ? इसका कुछ जवाब इस किताब के इतिहास से भी मिल सकता है. जाति का उच्छेद नाम से डा. आंबेडकर ने एक व्याख्यान लिखा था, जो उन्हें लाहौर में जातिपांति तोड़क मंडल के अधिवेशन में देना था. मंडल के पदाधिकारियों ने डा. आंबेडकर से अनुरोध करके व्याख्यान की प्रति अग्रिम मंगा ली, ताकि उसे छपवाकर वितरित किया जा सके. लेकिन भाषण को पढ़ने के बाद मंडल के पदाधिकारियों ने डा. आंबेडकर के विचारों से असहमत होकर अधिवेशन स्थगित कर दिया, और वह भाषण पढ़ा नहीं जा सका. तब डा. आंबेडकर ने उस भाषण को सार्वजानिक करने के उद्देश्य से पुस्तकाकार में मुद्रित करवा दिया. पुस्तक के रूप में जब वह भाषण जनता के बीच पहुंचा, तो समझ में आया कि डा. आंबेडकर ने जाति के विनाश के लिए जो उपाय सुझाए थे, वह जाति-पांति तोड़क मंडल के लिए आपत्तिजनक थे.
डा. आंबेडकर ने पहले दो योजनाओं पर विचार किया. ये योजनाएं ऐसी थी, जिन्हें अक्सर जाति के विरोधी लोग दोहराते रहते हैं. इनमें एक है उपजातियों को खत्म करना. लेकिन डा. आंबेडकर का कहाँ था कि उपजातियां खत्म होने से जाति तो खत्म नहीं होगी, वह तो फिर भी बनी रहेगी. दूसरी योजना अंतरजातीय भोज की है. यह योजना जाति के विनाश में कुछ हद तक कारगर हो सकती है, पर पूरी तरह नहीं. इस योजना के पक्ष में गाँधी भी नहीं थे. लेकिन आधुनिकीकरण के इस दौर में अंतरजातीय भोज कोई समस्या नहीं रह गई है.. शादी-ब्याहों, जन्मदिन और अन्य मांगलिक अवसरों पर एक ही पंडाल के नीचे आज अनेक धर्मों और जातियों के निमंत्रित मेहमान साथ-साथ भोज करते हैं. लेकिन क्या इससे जातियां समाप्त हुईं? कतई समाप्त नहीं हुईं. जातियां आज भी मजबूत हैं, फिर वास्तविक उपचार क्या है? डा. आंबेडकर की दृष्टि में जातियों के विनाश का वास्तविक उपचार अंतरजातीय विवाह है. लाहौर का जाति-पांति तोड़क मंडल भी इसी मत का था. डा. आंबेडकर ने अपने भाषण में मंडल को बधाई देते हुए कहा कि ‘आपने बीमारी की जड़ पहचान ली.’
लेकिन इसके आगे जो डा. आंबेडकर ने कहा, वह मंडल के लिए नागवार था. डा. आंबेडकर ने पूछा था कि अंतरजातीय विवाह को अमलीजामा कैसे पहनाया जा सकता है, जबकि हिंदू अंतरजातीय विवाह और भोज से भी घृणा करते हैं? उन्होंने प्रश्न किया कि ऐसी घृणा उनमें कहाँ से आई? उन्होंने कहा कि जाति कोई ईंट की दीवार या कांटेदार तार की बाड़ जैसी कोई भौतिक चीज नहीं है, जो हिंदुओं को एक-दूसरे के निकट आने से रोक रही है और इसलिए उसे गिराना है, बल्कि जाति एक धारणा है, एक मन:स्थिति है. इसलिए जाति के विनाश का मतलब किसी भौतिक बाधा का विनाश नहीं है, बल्कि इसका मतलब है धारणा में परिवर्तन करना.
और हिंदू समाज अपनी धारणा में परिवर्तन इसलिए नहीं करता, क्योंकि उसका धर्म उसे जाति में विश्वास करना सिखाता है. डा. आंबेडकर के अनुसार हिंदू क्रूर नहीं हैं, बल्कि वे अपने धर्म के पालक हैं, जो उन्हें जाति के प्रति कठोर बनाता है. इसलिए डा. आंबेडकर ने कहा था, कि जब तक धर्म के नाम पर लिखे गए उन तमाम शास्त्रों को डायनामाइट लगाकर उड़ाया नहीं जायेगा, जो जातिभेद की शिक्षा देते हैं, तब तक अंतरजातीय विवाह का उपचार भी सफल नहीं हो सकता.
डा. आंबेडकर के भाषण में यही वह सुझाव था, जो जाति-पांति तोड़क मंडल के पदाधिकारियों को पसंद नहीं आया था. उन्होंने इस अंश को भाषण में से निकाल देने का उनसे अनुरोध किया था, पर डा. आंबेडकर ने उसे ठुकरा दिया था. जाति-पांति तोड़क मंडल आर्यसमाज के लोगों ने बनाया था, जिनमें एक सुधारवादी नेता संतराम बीए उसके महामंत्री थे. संतराम वेदों के सिवा अन्य शास्त्रों को प्रामाणिक नहीं मानते थे. इसलिए वे कुछ हद तक उन शास्त्रों के विरोधी थे, जिनमें जातिभेद और अस्पृश्यता की शिक्षा दी गई थी, किन्तु मंडल के अधिकांश सदस्य शास्त्र-समर्थक थे, जिन्हें शास्त्रों को डायनामाइट से उड़ाने का सुझाव बुरा लगा था.
इस बात को आज लगभग एक सदी होने जा रही है, लेकिन आज भी हिंदू समाज की श्रद्धा शास्त्रों में तनिक भी कम नहीं हुई है. फिर जाति का विनाश कैसे होगा? फिर जाति में ही नहीं, क्या परलोक में विश्वास खत्म हुआ? क्या पुनर्जन्म में विश्वास खत्म हुआ? अगर इन सब में विश्वास खत्म नहीं हुआ, तो सिर्फ इसलिए कि हिंदू समाज शास्त्रों में विश्वास करना नहीं छोड़ना चाहता.
डा. आंबेडकर के ‘जाति का विनाश’ भाषण को दलितों ने भी पढ़ा है, और वे उससे प्रभावित भी हैं. लेकिन जाति को खत्म करना उनके बूते की बात नहीं है. इसलिए जो लोग दलितों को दोष देते हैं कि वे जाति को खत्म नहीं करते, वे वास्तव में स्थिति को समझने में गलती करते हैं. दलित वर्ग न तो शासक वर्ग है, जो जाति के विरुद्ध नीतियां बना सके, और न पुरोहित वर्ग है, जो जाति के विरुद्ध हिंदू समाज को अनुशासित कर सके. हिंदू समाज का नेतृत्व पुरोहित वर्ग करता है, जो ब्राह्मण वर्ग है. ब्राह्मण वर्ग ही हिंदू समाज का बौद्धिक वर्ग भी है. पुरोहित और बौद्धिक दोनों रूपों में वह शास्त्र-जीवी है, ब्राह्मण हिंदू समाज में शास्त्र की सत्ता को स्थापित करता है और शास्त्र हिंदू समाज में ब्राह्मण की सत्ता को स्थापित करते हैं. इस तरह हिंदू समाज जन्म से मृत्यु पर्यन्त ब्राह्मणों के नियंत्रण में रहता है. अत: डा. आंबेडकर का सुझाव गलत नहीं था कि शास्त्रों को नष्ट किए बगैर हिंदू समाज जाति का विनाश नहीं कर सकता.
जहां तक दलित वर्गों द्वारा जातियों के विनाश का प्रश्न है, तो यह सम्पूर्ण रूप से हिंदू समाज से भिन्न प्रश्न नहीं है. अगर जातियों का निर्माण दलित वर्ग ने किया होता, तो यह हिंदू धर्म के सुधार का प्रश्न ही नहीं होता. चूँकि जाति का प्रश्न हिंदू धर्म का प्रश्न है, इसलिए हिंदू धर्म के सुधार में दलितों की भूमिका कोई मायने नहीं रखती. दलित जातियाँ जाति के विनाश में एक ही स्थिति में भूमिका निभा सकती हैं, और वह स्थिति है कि दलित जातियां सामूहिक रूप से हिंदू धर्म का त्याग कर दें. तब शायद जाति के विनाश में उनकी भूमिका निर्णायक हो, पर क्या यह संभव है? दलितों का शतप्रतिशत धर्मान्तरण संभव नहीं है, और अगर हो भी गया, तो भी ब्राह्मण वर्ग अपने को बदलने वाला नहीं है. जाति उसके लिए तब भी महत्वपूर्ण बनी रहेगी, क्योंकि उसकी सत्ता जाति के अस्तित्व पर ही जीवित है.
क्या आप जाति तोडना चाहते हैं? यह एक ऐसा सवाल है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप से पूछना चाहिए. अगर जवाब हाँ में है, तो बताइए कैसे?