(पिछले एक हफ्ते से जज बीएच लोया की मौत से जुड़ा विवाद सोशल मीडिया पर छाया हुआ है। सोहराबुद्दीन एनकाउंटर केस का फैसला मुख्य आरोपी रहे मौजूदा बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के पक्ष में सुनाने के लिए बंबई उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मोहित शाह द्वारा लोया को की गई 100 करोड़ रुपये की कथित पेशकश के आरोप से कानूनी हलका सदमे में है। आज से दो साल पहले वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यन्त दवे ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू को एक पत्र लिखकर जस्टिस मोहित की सुप्रीम कोर्ट में प्रोन्नति का विरोध किया था। बार एंड बेंच के मुरली कृष्णन ने दवे से इस मौजूदा विवाद और अन्य मसलों पर दवे से बात की है। उक्त साक्षात्कार के मुख्य अंश बार एंड बेंच से साभार – संपादक)
‘एक शख्स को बचाने के चक्कर में पूरा न्यायतंत्र ही बैठ गया है’!
जस्टिस मोहित शाह से जुड़ी ख़बर क्या चौंकाने वाली थी?
मैंने अब जजों के अविवेक पर चौंकना बंद कर दिया है। लेकिन हां, यह बेहद चौंकाने वाला है।
क्या आपको लगता है कि पिछले पांच से दस वर्षों के दौरान जजों के संदर्भ में ऐसे कथित अपराध आम हो चले हैं?
इस तथ्य में कोई संदेह नहीं है कि न्यायपालिका एक महान संस्था है। आज भी यहां महान जज हैं। हालांकि, दिक्कत यह है कि कुछ मुट्ठी भर लोग इस न्यायतंत्र में ऐसे बैठे हैं जो उसकी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं और दुराचार में लिप्त हैं जिससे न्यायपालिका का नाम बदनाम हो रहा है।
लेकिन मुझे सबसे ज्यादा दुख इस बात पर होता है कि अधिकतर अच्छे जज चुप रहते हैं और वे इस उभरती हुई महामारी के खिलाफ खड़े होने को तैरूार नहीं दिखते। मेरे खयाल ये यह बेहद निराशाजनक है।
दो साल पहले आपने तत्कालीन मुख्य न्यायााीश एचएल दत्तू को एक पत्र लिखकर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मोहित शाह की प्रोन्नति का विरोध किया था। उस वक्त मीडिया ने इसे चलाने से इनकार कर दिया था। क्या आपको एक आर फिर उसी चलन का दुहराव दिख रहा है?
आज मीडिया पूरी तरह समझौता कर चुका है। यह सबसे बड़ी चुनौती है। मैं हालांकि पूरा दोष उस पर नहीं डालता। देश में आज भय का माहौल है।
भारत में दिक्कत यह है कि मीडिया पर रईस कारोबारी घरानों का नियंत्रण है और इन कारोबारी घरानों के पास छुपाने के लिए बहुत कुछ है। उनके तहखानों में ढेरों कंकाल छुपे पड़े हैं। नतीजतन, उनके द्वारा नियंत्रित मीडिया चुप रहने को अपने आप बाध्य है।
जस्टिस मोहित शाह ने इस मामले पर बोलने से इनकार कर दिया है।
मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जस्टिस मोहित शाह ने न केवल खुद को और न्यायपालिका की संस्था को भारी नुकसान पहुंचाया है बल्कि खुद इंसाफ का नुकसान किया है।
न्यायिक तंत्र पूरी तरह नाकाम हो चुका है, वो भी केवल एक शख्स को बचाने में- अमित शाह। हम कोई कमज़ोर न्यायपालिका वाले कमज़ोर राष्ट्र नहीं हैं। हमारी न्यायपालिका बहुत अच्छी है। हां, एडीएम जबलपुर जैसी कुछ विकृतियां अवश्य हैं वरना हमारी न्यायपालिका हमेशा कानून की रक्षा के लिए आगे रही है और सुनिश्चित करती रही है कि नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा हो।
लेकिन सोहराबुद्दीन के भाई के अधिकारों का क्या? क्या उसके कोई अधिकार नहीं हैं? चलिए मान लेते हैं कि सोहराबुद्दीन और उसके दोस्त अपराधी रहे, लेकिन उसकी पत्नी का क्या दोष था जिसे बेहद चौंकाने वाली परिस्थितियों में मार दिया गया?
राज्य की बाध्यता है कि वह इसकी पड़ताल करे ताकि आगे कोई और ऐसा न करने पाए। सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी मुठभेंड़ को रोकने की बात बार-बार कही है। अगर हमने पुलिस को ही आरोपी, वकील और जज बनने की छूट दे डाली, तो फिर इस देश में क्या होगा? कोई भी महफूज़ नहीं रहेगा।
मैं बेहद खेद के साथ कह रहा हूं कि जो कुछ भी हुआ है, उसे जस्टिस मोहित शाह ने सक्रिय तरीके से उकसावे का काम किया है। उनकी भूमिका और इस मामले को संचालित कर रहे वकीलों की भूमिका की स्वतंत्र जांच किए जाने की जरूरत है। वे अकेले काम नहीं कर रहे थे। तमाम वकीलों के सुझाव पर वे काम कर रहे थे। यह सही वक्त है कि कोई इस मामले में हाथ डालकर पूरे मामले को एक बार फिर से खोले।
निचली अदालतों पर, खासकर गुजरात जैसे राज्यों में, भ्रष्ट होने के तमाम आरोप हैं। जज लोया की मौत संबंधी हालिया रिपोर्टों के संदर्भ में आप क्या सोचते हैं?
अकेले निचली अदालतों को ही दोष नहीं देना चाहिए। इस मामले के तथ्यों को भी समझना होगा। कुल तीन लोगों की हत्या हुई थी- सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नी कौसर बी और उसका दोस्त प्रजापति। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की जांच के लिए एसआइटी गठित की। एसआइटी में गुजरात पुलिस के अधिकारी थे जिनमें एक मौजूदा कार्यकारी डीजीपी गीता जौहरी भी थीं। इन्होंने सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपी और माना कि हत्या फर्जी मुठभेड़ में की गई।
यह सब उस वक्त की बात है जब मोदी गुजरात के गृहमंत्री और अमित शाह उप गृहमंत्री थे।
सुप्रीम कोर्ट ने फिर केस को सीबीआइ को दे दिया क्योंकि उसे लगा कि गुजरात पुलिस इसके साथ न्याय नहीं कर पाएगी।
सीबीआइ ने मामले की पड़ताल कर के आरोपपत्र दायर किया। अमित शाह और शीर्ष पुलिस अधिकारियों समेत अन्य आरोपितों के खिलाफ प्रथम दृष्टया केस बना।
2014 के चुनावों के बाद हालांकि परिदृश्य उलट-पलट हो गया। मामले की सुनवाई कर रहे पहले जज का बेहद संदिग्ध परिस्थितियों में चीफ जस्टिस मोहित शाह ने तबादला कर दिया। ऐसा इसके बावजूद किया गया कि सुप्रीम कोर्ट का साफ निर्देश था कि एक ही जज को शुरू से अंत तक सुनवाई करनी है।
यह निर्देश बंबई उच्च न्यायालय की प्रशासनिक कमेटी को दिया गया था। अनुच्छे 141 और 144 के तहत यह निर्देश उच्च न्यायालय पर बाध्यकारी होता है। इसका अनुपालन न कर के उच्च न्यायालय की प्रशासनिक कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की है।
अगर उन्हें ऐसा लगा कि माननीय जज स्वेच्छा से तबादला चाहते थे तो उनहें इसके लिए सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए था और उसकी मंजूरी लेनी थी। इससे ज्यादा वे कुछ नहीं कर सकते थे। इन्होंने ऐसा नहीं किया।
मामले की सुनवाई करने वाले दूसरे जज लोया थे। उन्होंने अमित शाह को कोर्ट में पेश होने के लिए कई बार निर्देश दिए। चूंकि यह एक फौजदारी का मामला है लिहाजा आरोपी बिना छूट के सुनवाई से बच नहीं सकता।
फिर लोया गुज़र गए। हमें पता नहीं कि उनकी मौत कैसे हुई लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि उनकी मौत बेहद संदिग्ध परिस्थितियों में हुई है। इसकी उच्चतम स्तरों पर तत्काल जांच होनी चाहिए।
सबसे बुरा यह है कि बंबई उच्च न्यायालय की प्रशासनिक कमेटी और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने अपने ही आदमी की मौत पर कोई जांच नहीं बैठायी। अगर आप अपने ही मातहत का अपमान करते हैं तो आपको हाइ कोर्ट का जज होने का कोई अधिकार नहीं है। आपका उनके प्रति निरपेक्ष कर्तव्य बनता है और आप उसमें नाकाम रहे हैं। मैं कहूंगा कि यह नाकामी निर्दोष नहीं थी, वे सचेतन रूप से नाकाम रहे हैं और इसमें उनकी बुरी मंशा शामिल थी।
मामला यहीं खत्म नहीं होता। आरोपित डिसचार्ज (छूट) हो जाते हैं। आखिर सीबीआइ ने इन्हें छोड़े जाने के खिलाफ कोई अपील क्यों नहीं डाली? मैंने बरी किए जाने का फैसला पढा है और कह सकता हूं कि सेकंडों में उसकी धज्जियां उड़ायी जा सकती हैं। यह पूरी तरह अपुष्ट है।
आज सीबीआइ हरसंभव नेता के पीछे दौड़ रही है, हो सकता है यह न्यायपूर्ण हो, मुझे इससे कोई शिकायत नहीं। लेकिन उसका बराबर कर्तव्य बनता है कि वह (सोहराबुद्दीन केस में) आरोपितों को डिसचार्ज किए जाने वाले फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करे।
हर्ष मंदर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील डाली थी। सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया क्योंकि उसे लगा कि मंदर अपील करने की योग्यता नहीं रखते। उस स्टेज पर सुप्रीम कोर्ट सीबीआइ से अपील डालने को कह सकती थी। यह एक ऐसा मामला था जिसे उसके तार्किक नतीजे पर पहुंचाया जाना चाहिए था। इसे डिसचार्ज के चरण पर छोड़ा नहीं जा सकता। यह डिसचार्ज का केस ही नहीं था।
न्यायतंत्र को तत्काल अनुच्छेद 142 के तहत दिए गए असाधारण अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए तत्काल हरकत में आना चाहिए और सुधारात्मक उपाय करने चाहिए ताकि नाइंसाफी को दुरुस्त किया जा सके। एक जिंदगी गई है। हम नहीं जानते वजह क्या है, लेकिन इसका सबसे बड़ा शिकार न्याय ही हुआ है।
यह साक्षात्कार बार एंड बेंच पर छपे दुष्यंत दवे के साक्षात्कार का संपादित रूप है और वहीं से साभार है