जो पाकिस्तान ने नहीं किया, वो भाजपा ने कर दिखाया। दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज की प्रशासकीय बॉडी के अध्यक्ष भाजपा नेता और बड़े वकील अमिताभ सिन्हा हैं, जिन्होंने शाम के कॉलेज का नाम बदल डाला। वंदे मातरम कॉलेज कर दिया। अतीत के आइडेंटिटी क्राइसिस से ग्रस्त एक ब्राह्मणवादी संगठन के बनिया मुखौटे ने एक झटके में जेएनयू से पढ़े एक कायस्थ का इस्तेमाल कर के राजपुत्र की विरासत को मिट्टी में मिला दिया। हाथ घुमा कर शेर-ए-पंजाब की नाक काट ली गर्इ। अतीत के सबसे बड़े राष्ट्रवादियों में से एक दयाल सिंह मजीठिया की आधी मूंछ उड़ा दी गई। इसे ही नए राष्ट्रवाद का नाम दिया जा रहा है।
शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह जब मरे, तो सिक्ख साम्राज्य का राजकाज गड़बड़ाने लगा। उनके खासमखास नंबर एक विश्वस्त जनरल लहना सिंह इस सब से बचने के लिए बनारस निकल लिए। बनारस में ही रहते हुए उन्हें पैदा हुए दयाल सिंह। दयाल सिंह बड़े आदमी रहे। ट्रिब्यून अख़बार शुरू किए। पंजाब नेशनल बैंक बनाए। एनी बेसेंट ने लिखा है कि कांग्रेस में सबसे सच्चे और विवेकवान 17 पुरुषों में दयाल सिंह एक थे। वे तीस साल तक स्वर्ण मंदिर के मुखिया रहे। बड़े धर्मार्थी पुरुष थे। लाहौर और दिल्ली में कॉलेज खोले। लाइब्रेरी बनाई। विभाजन के बाद पाकिस्तान में तमाम संस्थानों के नाम बदले गए, लेकिन दयाल सिंह के कॉलेज और लाइब्रेरी से छेड़छाड़ आज तक नहीं की गई।
दयाल सिंह पश्चिम की शिक्षा प्रणाली और प्रेस की आज़ादी को लेकर बहुत संजीदा थे। उन्होंने 2 फरवरी, 1881 को साप्ताहिक ट्रिब्यून की शुरुआत की थी और 1898 में इसे हफ्ते में तीन बार निकालने लगे। 1906 में यह अखबार दैनिक हुआ। दयाल सिंह विद्वानों, कवियों, कलाकारों और खिलाडि़यों का बहुत सम्मान करते थे और उन्हें संरक्षण भी देते थे। वे खुद ‘मशरिक़’ नाम से कविताएं रचते थे।
उनका जीवन आदर्श आचार-व्यवहार और सौहार्द का उदाहरण है, जिसके बारे में उन्होंने लिखा था:
”आपका आचार ऐसा हो कि आपका दुश्मन भी उसकी दाद दे, भले ही वह ऐसा दिल ही दिल में करे और सामने मुंह पर न कहे।”
लाहौर में अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा देने वाली एक युनिवर्सिटी बनाने के लिए युवाओं ने जो आंदोलन चलाया, सरदार दयाल सिंह ने उसकी अगुवाई की। 1882 में इस आंदोलन की जीत हुई और कलकत्ता, बॉम्बे व मद्रास युनिवर्सिटी की तर्ज पर पंजाब युनिवर्सिटी की स्थापना की गई।
दयाल सिंह न सिर्फ कांग्रेस के स्तंभ थे, बल्कि उन चंद लोगों में शामिल थे जिन्होंने कांग्रेस की स्थापना की। मद्रास के थियोसॉफिकल कनवेंशन में दिसंबर 1884 में तय किया गया था कि एक अखिल भारतीय संगठन बनाया जाना है। उसके बाद बम्बई में 1885 में इंडियान नेशनल कांग्रेस का पहला अधिवेशन संभव हुआ। लाहौर, कराची, अमृतसर, गुरदासपुर और दिल्ली में उन्होंने संस्थानों की एक श्रृंखला खड़ी की। उनकी मौत के बाद दो ट्रस्ट बनाकर इन संस्थानों के काम को आगे बढ़ाया गया। दि ट्रिब्यून का दफ्तर उसके बाद शिमला गया, फिर अम्बाला और अंत में चंडीगढ़ में उसे स्थापित कर दिया गया। भारत की उनकी तमाम जायदाद को दयाल सिंह कॉलेज ट्रस्ट ने ले लिया जो करनाल में दयाल सिंह कॉलेज चलाता है।
लाहौर में सरकारी दयाल सिंह कॉलेज और लाइब्रेरी आज भी उनके नाम पर है। दिल्ली और करनाल में भी दयाल सिंह कॉलेज हैं। दिल्ली में उनके नाम पर लाइब्रेरी है। उन्नीसवीं सदी के इस महान राष्ट्रवादी के काम को पाकिस्तान में आज तक संरक्षित कर के रखा गया है, उसका सबसे अहम प्रमाण यही है कि उनके संस्थानों के नाम के साथ विभाजन के सात दशक में छेड़छाड़ नहीं की गई। उसके बरक्स भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने भारत में राष्ट्रवाद के नाम पर एक महान राष्ट्रवादी का नाम आधा मिटा डाला।
एक राष्ट्र अपनी संस्थाओं का समुच्चय होता है। सरदार दयाल सिंह एक राष्ट्र के रूप में भारत के निर्माण की प्रक्रिया में संस्थानों को खड़ा करने वाले शख्स थे। अखबार से लेकर बैंक, लाइब्रेरी और कॉलेज जैसे अहम संस्थान उन्होंने खड़े किए। जिनका भारतीय राष्अ्रवाद में शाखा लगाने के अलावा कभी कोई योगदान नहीं रहा, वे अपने पहचान के संकट को हल करने के लिए सदियों के राष्ट्र-निर्माण पर फर्जी राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ाने में लगे हैं। दिक्कत वंदे मातरम से नहीं है, दिक्कत राष्ट्रवाद के प्रतीकों को नष्ट करने के लिए बहाने के तौर पर उसका इस्तेमाल किए जाने से है।