शीतल पी. सिंह
जाति के दर्शनशास्त्र ने भारत के ग्रामीण महासागर को कूपमंडूक बनाकर तिल तिल कर मरने के लिए अभिशप्त कर रक्खा है।
भारत इसके उन्मूलन के बिना दिनोंदिन नष्ट ही होगा/ हो रहा है (यहाँ भारत से मतलब इसके नक़्शे से नहीं है बल्कि उस नक़्शे के भीतर बसे अवाम से है)।
पिछले क़रीब डेढ़ बरस से उत्तर प्रदेश के अपने पैतृक गाँव में रहने के दौरान मेरा यह अनुभव मेरे नज़रिए को स्पष्ट कर सका। सामंतवाद ने पिछली सदी के बदलाव से हुई टूट फूट की मरम्मत कर ली है और बदलाव को जीम लिया है। थोड़े बहुत हानि लाभ से ताल-मेल कर लिया है और केंद्रीय और सूबों की राज्यसत्ताओं में दक्षिणपंथी क़ब्ज़े के ज़रिये अपनी स्थिति को सुदृढ़ीकरण करने में लग गया है।
प्रचंड बहुमत के बावजूद कमज़ोर तबकों के और कमज़ोर/ बेबस होने का वक़्त है क्योंकि उनका बंटवारा स्थापित करती धाराओं का नियंत्रण दक्षिणपंथी सत्तासंरचना के हाथ है। चुनाव दर चुनाव यह सिद्ध हो रहा है । लूटे गये धन को बचाये रखने के लिये निरंतर प्रयासरत और परिवारवादी काकस में उलझा प्रतिरोध के लिए नियत नेतृत्व विचारविहीन है और उत्साहित दक्षिणपंथ के समक्ष अपनी आरामतलबी ,मौक़ापरस्ती ,छल और सिद्ध मूर्खता के चलते अनवरत क्षय की ओर है ।
फसल दर फसल ग्रामीण महासागर में दरिद्रता पसरती जा रही है। भयंकर बेरोज़गारी है। नई दुनिया के नित बदलते विधान के बाबत अज्ञानता पसरी हुई है और स्वास्थ्य के ह्रास से इसकी क़ीमत चुकाई जा रही है। इतना रुग्ण, रक्ताल्पता का और कुपोषण का मारा देहात कभी न था, धार्मिक और सामाजिक मूर्खताओं के चलते प्रोटीन इनके जीवन से ग़ायब है। महँगी होती दाल में पानी का स्तर लगातार बढ़ रहा है और दूध सिर्फ़ बाज़ार के लिए पैदा हो रहा है, गाँव में तो मट्ठा तक नहीं बचता (बहुमत आबादी के यहाँ)।
नोटबंदी,कोरोना और अब आर्थिक मंदी के चलते गाँव में मनीआर्डर की सप्लाई पर भी असर पड़ा है। बहुत से परदेसी नौकरी / रोज़गार छूटने से गाँव लौट आए हैं। जो काम कर भी रहे हैं उनकी पगार स्थिर रहने / कम किये जाने और महंगाई के लगातार बढ़ने से बचत सिकुड़ गई है तो मनीआर्डर की फ़्रीक्वेंसी और मात्र पर असर पड़ना स्वाभाविक ही है। यूपी बिहार मध्यप्रदेश झारखंड के गाँव इसी सप्लाई से पुष्पित पल्लवित जीवित थे/हैं ।
गाँव के लिए अड़ानी अभी तक बहस का विषय नहीं हैं पर ज़ुबैर हैं। मनीआर्डर और सरकारी योजनाओं से चुराये धन से ख़रीदे इंटरनेट पैक को चायनीज फ़ोन पर गटकते रेवड़ के लिए पाकिस्तान, रोहंगिया, कश्मीर, हिजाब और बुर्का, सड़क पर नमाज़ और गौकशी चर्चा का विषय हैं और लुटती अर्थव्यवस्था/ लोकतंत्र कोई न बताने आ रहा न बता पा रहा!
दो दिन से छिटपुट हो रही बारिश ने पीले पड़ गए धान को हरा होने की आस दी है…
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। आजकल उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर स्थित अपने पैतृक गाँव में हैं।