RSS की ‘हिंदू रक्षा’ में दलित शामिल नहीं! अस्पृश्यता को धर्मग्रंथों का समर्थन!


आरएसएस कहता है कि इसे मुगलों ने बनाया है. कैसे बनाया है? उसका जवाब है कि मुगलों ने युद्ध में जीते हुए राजपूतों और ब्राह्मणों को जबरन मुसलमान बनाया, जो नहीं बने, उनसे उन्होंने अपने पाखाने साफ़ करवाए, वे ही बाद में भंगी कहलाये और अछूत हो गए.  क्या गजब की कहानी है ! कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि भंगी मुगलों ने बनाए. फिर चमार किसने बनाए? पासी किसने बनाए? और चंडाल किसने बनाए, जो बुद्ध काल मे भी मौजूद थे, और उस गुप्त काल में भी, जिसे  हिन्दू स्वर्ण काल कहते हैं ? अगर आरएसएस का मुगल-सिद्धांत सही है, तो ऐसे अस्पृश्यों की उसने ‘घर वापसी’ क्यों नहीं कराई ? उन्हें वापस ब्राह्मण और राजपूत वर्ण में शामिल क्यों नहीं किया गया ? क्यों उन्हें अस्पृश्यता के ही नर्क में पड़े रहने दिया गया?




प्रिय पाठकों, चार साल पहले मीडिया विजिल में  ‘आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म’ शीर्षक से प्रख्यात चिंतक कँवल भारती लिखित एक धारावाहिक लेख शृंखला प्रकाशित हुई थी।  दिमाग़ को मथने वाली इस ज़रूरी शृंखला को हम एक बार फिर छाप रहे हैं। पेश है इसकी  ग्यारहवी कड़ी जो  20 अगस्त 2017 को पहली बार छपी थी- संपादक

 


आरएसएस और राष्ट्रजागरण का छद्म–11

 

सच और मिथक

 

अस्पृश्यता को धर्मग्रंथों से प्रमाणित करने से पहले यह जान लिया जाए कि अस्पृश्यता का मतलब क्या है? क्या यह सिर्फ किसी को छूने भर से सम्बन्धित है ? या कुछ और भी है ? सच यह है कि यह कुछ और भी है. यह अछूत की छाया से भी दूर रहने की बात है, इतना दूर कि उसकी छाया भी सवर्ण पर न पड़े. हम आगे देखेंगे कि धर्मग्रंथों में अछूत-चंडाल की छाया अमंगल मानी गयी है. पर यह अस्पृश्यता सिर्फ सवर्णों में ही नहीं है, बल्कि दुर्भाग्य से दलित जातियों में भी है. चमार के लिए भंगी अछूत है, और भंगी के लिए कंजड़ अछूत है.  लेकिन यह सुखद है कि दलित आन्दोलन ने दलित जातियों के अंदर की अस्पृश्यता को लगभग खत्म ही कर दिया है. किन्तु रूढ़िवादी सवर्णों में यह अभी भी मौजूद है. हालाँकि, पूंजीवाद के उत्तरोत्तर विकास से इसे खत्म ही होना है. अस्पृश्यता के अंतर्गत, सामाजिक बहिष्कार, पढ़ने और धनार्जन करने से रोकने, अमंगल-सूचक नाम रखने और जबरन बेगार कराने की बाध्यताएं भी आती हैं.

किन्तु यह उल्लेखनीय है कि अस्पृश्यता चाहे जैसे भी पैदा हुई हो, उसका विकास धर्मग्रन्थों के समर्थन के बिना नहीं हो सकता. अगर धर्मग्रन्थों ने अस्पृश्यता का समर्थन नहीं किया होता, तो भारत का एक विशाल समुदाय कभी भी अछूत नहीं बन सकता था. आरएसएस कहता है कि इसे मुगलों ने बनाया है. कैसे बनाया है? उसका जवाब है कि मुगलों ने युद्ध में जीते हुए राजपूतों और ब्राह्मणों को जबरन मुसलमान बनाया, जो नहीं बने, उनसे उन्होंने अपने पाखाने साफ़ करवाए, वे ही बाद में भंगी कहलाये और अछूत हो गए.  क्या गजब की कहानी है ! कुछ देर के लिए मान लेते हैं कि भंगी मुगलों ने बनाए. फिर चमार किसने बनाए? पासी किसने बनाए? और चंडाल किसने बनाए, जो बुद्ध काल मे भी मौजूद थे, और उस गुप्त काल में भी, जिसे  हिन्दू स्वर्ण काल कहते हैं ? अगर आरएसएस का मुगल-सिद्धांत सही है, तो ऐसे अस्पृश्यों की उसने ‘घर वापसी’ क्यों नहीं कराई ? उन्हें वापस ब्राह्मण और राजपूत वर्ण में शामिल क्यों नहीं किया गया ? क्यों उन्हें अस्पृश्यता के ही नर्क में पड़े रहने दिया गया?

अस्पृश्यता कैसे और कब पैदा हुई, इस विषय पर डा. आंबेडकर की ‘Who were the Shudras’ और ‘The Untouchables’ नाम की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं, जो इस विषय  पर किसी भी अछूत लेखक का पहला शोधकार्य है. उन्होंने अपने तमाम प्रमाणों और अकाट्य तर्कों से यह साबित किया है कि आर्यों में दास प्रथा थी, और वे दास आर्य घरों में तथा सड़कों पर सफाई का काम करते थे. उन्होंने यह भी स्पष्ट  किया है कि बुद्ध ने सड़क पर सफाई करने वाले सुनीत नाम के भंगी को धम्म दीक्षा दी थी. जब भंगी मुगलों ने बनाए, तो बुद्ध काल में सुनीत भंगी कहाँ से आ गया? उन्होंने अपने शोध में इस बात पर जोर दिया है कि ब्राह्मणों ने बौद्धधर्म का उच्छेद करने के बाद, बचे हुए बौद्धों को शेष समाज के लिए अस्पृश्य बना दिया था.  विस्तार भय से मैं यहाँ उन किताबों से उद्धरण देना उचित नहीं समझ रहा हूँ. ये किताबें डा. आंबेडकर की रचनावली में देखी जा सकती हैं. लेकिन मैं आरएसएस के नीतिकारों को यह जरूर बताना चाहता हूँ कि भारत में पेशवाओं के राज्य में अछूतों को गले में हांड़ी और कमर में झाड़ू बांधकर चलने की राजाज्ञा थी. यह तो मुगल काल के अंतिम समय की ही बात है. अगर अछूत मुगलों ने बनाए, तो पेशवाओं ने यह अमानवीय व्यवहार उनके साथ क्यों किया?

डा. विवेकानंद झा ने भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद की शोष पत्रिका ‘इतिहास’ के जनवरी 1992 के अंक में ‘चंडाल और अस्पृश्यता का उद्भव’ नाम से एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने उन तमाम धर्मग्रंथों को रेखांकित किया है, जो  अस्पृश्यता का समर्थन करते हैं. पहले चंडाल को लेते हैं, जिनकी मुक्ति के लिए बंगाल में चाँद गुरु ने आन्दोलन चलाया था, और घृणास्पद चंडाल के स्थान पर नामशूद्र’ नामकरण किया था. आज वे अपने संघर्ष के बल पर विकास की धारा में हैं. डा. झा के अनुसार, धर्मसूत्रों में चंडाल को पशुवत माना गया है. गौतम का विधान है कि कुत्तों और चंडालों को देख लेने से अंत्येष्टि का भोजन अशुद्ध हो जाता है-श्वचंडालपतितावेक्षणे दुष्टम्. [XV. 24] आपस्तम्ब [II. 1. 2. 8-9] के अनुसार चंडाल को देखने का प्रायश्चित सूर्य और चन्द्रमा को देखकर करना होगा. सांख्यायन गृह्यसूत्र [II. 12. 9-10] विधान करता है कि चंडाल को देखने से बचना चाहिए. कौटिल्य प्रथम विधायक है, जिसने स्पर्श के लिए दंड का विधान किया है. [III. 19. 9] मनु कहता है कि चंडाल पूर्व जन्म का ब्रह्महत्यारा है, इसलिए वह उसे अस्पृश्य मानता है. [XI. 24] वह चंडाल को रात में चलने-फिरने की भी इजाजत नहीं देता है. [X. 54] मनु ने चंडाल और अन्य अस्पृश्यों के प्रति ज्यादा कठोर विधान किये हैं. वह चंडाल को अपपात्र बनाने का आग्रह करता है, और कहता है कि उसको जमीन पर रखकर खाना दिया जाए. [III. 92] चंडाल के प्रति मनु की नफरत सबसे ज्यादा है. डा. आंबेडकर इसका कारण यह बताते हैं कि चंडाल शूद्रों की ब्राह्मण स्त्रियों से उत्पन्न संतान थे.

डा. झा लिखते हैं, ‘तीसरी से छठी सदी ई. के ब्राह्मण-परम्परा के विधायकों, जैसे विष्णु, याज्ञवल्क्य, नारद, बृहस्पति और कात्यायन से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि अस्पृश्यता के पालन का विस्तार हुआ और उसमें तीव्रता आई, तथा इस काल में चंडाल की स्थिति में और भी गिरावट आई. इसी काल में हमें ‘अस्पृश्य’ शब्द का प्रथम प्रयोग भी देखने को मिलता है. विष्णु [तीसरी सदी ई.] ने इसका प्रयोग दो स्थलों पर किया है. [V. 104; XLIV.9] अस्पृश्य योनि में जन्म लेने का कारण मलिन कर्म करना [कृतमलिनीकरणकर्मणाम] बताया गया है, और किसी अस्पृश्य द्वारा जानबूझकर किसी स्पृश्य का स्पर्श करने के लिए मृत्युदंड का विधान किया गया है [अस्पृश्य:कामकारेणस स्पृशयं स्पृशंवध्य:, V. 104].’ लेकिन यह अस्पृश्यता स्त्रियों के साथ सहवास करने में रुकावट नहीं बनती थी. डा. आंबेडकर ने ‘रिडिल्स ऑफ़ हिन्दूइज्म’ में ठीक ही सवाल उठाया है कि मनु ने वर्णसंकर जातियों का उल्लेख करके ब्राह्मण स्त्रियों का चरित्रहनन किया है.

यहाँ सवाल यह न उठाया जाए कि यह वर्णन तो चंडालों के बारे में है. यह चांडालों के बारे में नहीं, बल्कि अस्पृश्यता के सम्बन्ध में है. चंडाल भारत का पहला वर्ग है, जिस पर हिंदुत्व ने सबसे पहले अस्पृश्यता थोपी थी. चंडाल ही आज का नमोशूद्र है. यहाँ चंडाल के जरिये आरएसएस के नीतिकारों को यह बताना है कि धर्मग्रन्थ अस्पृश्यता का समर्थन करते हैं. धर्मग्रन्थ ही नहीं, काव्यों [संस्कृत साहित्य] तक में अस्पृश्यों के प्रति नफरत मिलती है. डा. झा के अनुसार, ‘वर्णव्यवस्था का कट्टर पोषक कालिदास [पांचवीं सदी ई.] तो चंडालों का बहेलियों और मछुआरों जैसे उन निम्न कोटि के लोगों से भी भेद करता है, जिनके साथ चंडालों का पेशागत सम्बन्ध है.’ [वही, पृष्ठ 33]

बौद्ध साहित्य ‘सुत्तनिपात’ में ‘चंडालपुत्तो सोपाको’ [सोपाक, चंडाल का पुत्र] का उल्लेख मिलता है. बुद्ध ने सोपाक को भिक्षु बनाया था,, जिसके बारे में लिखा है कि वह बहुत से ब्राह्मणों से श्रेष्ठ था. [1. 7. 137-39] लेकिन वर्णव्यवस्था के पोषकों की कर्मणा श्रेष्ठता में विश्वास ही नहीं है.

अस्पृश्यता का समर्थन करने वाले ये उद्धरण इसलिए  नहीं नकारे जा सकते कि ये डा. विवेकानंद झा के लेख से लिए गए हैं, जो मार्क्सवादी माने जाते हैं. हालाँकि मेरे अपने संग्रह में ऋग्वेद, उपनिषदें, एक-दो पुराण, आपस्तम्ब धर्मसूत्र और मनुस्मृति आदि कुछ ग्रन्थ हैं, पर जैसे अरबी का जानकार उलेमा ही कुरान की सटीक व्याख्या कर सकता है, इसलिए संस्कृत का जानकर ब्राह्मण ही धर्मग्रन्थों का ठीक-ठीक हवाला दे सकता है. मैं संस्कृत का विद्वान् नहीं हूँ, इसलिए मैंने डा. विवेकानंद झा के लेख को आधार बनाया. जो इस विषय के अधिकारी विद्वान् माने जाते हैं.  मैं संस्कृत के अन्य अधिकारी विद्वान् डा. पी. वी. काणे  के ‘धर्मशास्त्र के इतिहास’ से भी अस्पृश्यता के उद्धरण दे सकता हूँ, पर उससे अनावश्यक पुनरावृत्ति ही होगी, और लेख का आकार बढेगा. फिर भी, आरएसएस जिस ग्रन्थ को सबसे अधिक पवित्र मानता है, वह मनुस्मृति है. इसलिए मैं अस्पृश्यता पर मनु के विधान को जरूर रखना चाहूँगा. यथा—

  • ब्राह्मण का मंगलवाचक, क्षत्रिय का बलवाचक, वैश्य का धन से युक्त और शूद्र का निंदा से युक्त नाम रखना चाहिए. [2/31]
  • शूद्र के छूने से अन्न दूषित हो जाता है. [3/241]
  • पतित, चंडाल, पुल्कस और अन्त्यजों के साथ न बैठें. [4/79]
  • चंडाल को छूकर स्नान करके ही शुद्धि होती है. [5/85]
  • मरे हुए ब्राह्मण को शूद्र से न उठवाएं. क्योंकि शूद्र के स्पर्श से मृतक को स्वर्ग नहीं मिलता है. [5/104]
  • शूद्र आदि नीच वर्ण के लोग ब्राह्मण के साथ आसन पर न बैठें.
  • चंडाल और श्वपचों के रहने का स्थान गाँव के बाहर है, इनके बर्तन मिटटी के होने चाहिए. इनके साथ सामाजिक व्यवहार न करें. [10/51-54]
  • शूद्र को जूठा अन्न, फटे-पुराने वस्त्र, और जीर्णशीर्ण बिछौना देना चाहिए. [10/125]
  • शूद्र को धन का संग्रह नहीं करने देना चाहिए. [104/129]

अस्पृश्यता के समर्थन के लिए मनु के ये विधान पर्याप्त हैं. हालाँकि शूद्रों और अस्पृश्यों के प्रति मनु के दंडविधान को यहाँ नहीं दिया गया है, जो अत्यंत कठोर और हृदय-विदारक हैं, तथापि, यह जानना आवश्यक है कि मनु के विधान में दो तरह की  पवित्रताएँ हैं, एक स्थायी और दूसरी अस्थायी. भंगी, चमार, चंडाल आदि जातियां स्थाई रूप से अपवित्र हैं, जो किसी भी विधि-विधान से पवित्र नहीं हो सकतीं. इसलिए उन्हें अस्पृश्य माना गया है. लेकिन अस्थाई पवित्रता को दूर करने के लिए मनु ने कुछ विधि-विधान बताए हैं. यह अपवित्रता क्या है? इसका वर्णन मनुस्मृति के पांचवें अध्याय में विस्तार से दिया गया है. जिज्ञासु पाठक वहां देख सकते हैं कि मनु ने इस अपवित्रता को दूर करने के लिए  पंचगव्य [दूध, गोमूत्र, गोबर, दही और घी] के उपयोग का विधान किया है. हाल ही में उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने सरकारी आवास को, जिसमें पहले शूद्र मुख्यमंत्री रहते थे, पंचगव्य और गंगा जल से शुद्ध कराने का अनुष्ठान किया था. अस्तु.

गोलवलकर के इस वाक्य का क्या अर्थ है, ‘मम दीक्षा—हिन्दूरक्षा. अगर हिन्दुओं की रक्षा ही आरएसएस के स्वयंसेवक की दीक्षा है, तो इसमें प्राणिमात्र की सेवा और रक्षा का भाव कहाँ है? अगर इसलिए ‘मम दीक्षा हिन्दूरक्षा’ है, कि आरएसएस एक हिन्दू संगठन है, तो सहारनपुर के शब्बीरपुर गाँव में दलितों के घरों में आग क्यों लगाईं गयी? गुजरात में उसके हिन्दू जागरण मंच के लोगों ने दलितों को क्यों मारा? क्या इसका मतलब  यह नहीं निकलता है कि आरएसएस की ‘हिन्दू रक्षा’ में दलित जातियां नहीं आती हैं ?  शायद यही कारण है कि आरएसएस के किसी भी नेता ने सहारनपुर के शब्बीरपुर कांड की न निंदा की, और न उनके दुःख को बांटा.

फिर आरएसएस की समरसता कहाँ है? सच यह है कि वह दलित वर्गों का प्रतीकात्मक उपयोग करने में है. उदाहरण के लिए आरएसएस का यह जवाब देखिए—

‘1989 में अयोध्या में रामजन्मभूमि पर भव्य मन्दिर का शिलान्यास कार्यक्रम हुआ. इस समारोह के अवसर पर श्रेष्ठ धर्माचार्य मठाधिपति उपस्थित थे. रामजन्मभूमि न्यास द्वारा विश्व हिन्दू परिषद के तत्वावधान में आयोजित इस समारोह में प्रथम शिला श्री रामेश्वर चौपाल के हाथों स्थापित हुई, जो तथाकथित पिछड़ी जाति के माने जाते हैं. इस घटना से अपने करोड़ों बंधुओं ने अन्त:करण में सम्मान की अनुभूति की होगी.’ [प्रश्नोत्तरी, पृष्ठ 12]

यह प्रतीकात्मक प्रयोग यह दिखाने के लिए है कि रामजन्मभूमि मामले में दलित वर्ग भी आरएसएस के साथ है. हालाँकि यह झूठ है. लेकिन अगर रामेश्वर चौपाल जैसे दलित मन्दिर के साथ हैं भी तो वे कोमा में पड़े हुए दलित हैं, जिन्हें आरएसएस पालपोस रहा है. लेकिन होश वाले जागरूक दलितों की समस्या मन्दिर-निर्माण  या मन्दिर-प्रवेश की नहीं हैं, बल्कि शिक्षित होने और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने की है. वे हर क्षेत्र में अवसरों की वही समानता चाहते हैं, जो द्विजों [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य समुदाय] को न सिर्फ मिली हुई है, बल्कि दी भी जाती है. इस तरह की हरकतों से दलितों में कोई प्रेरणा या सम्मान की अनुभूति नहीं होती है, बल्कि वे इससे अपमानित होते हैं कि किस तरह दलित को झूठा सम्मान दिया जा रहा है? आरएसएस ने जिस रामेश्वर चौपाल का उपयोग किया, उसके बारे में कुछ नहीं बताया. वह कौन है? उसका परिवार किस स्थिति में रहता है? और उसका सामाजिक स्टेटस क्या है? आज उसकी क्या स्थिति है, यह भी कोई नहीं जानता.

इसी तरह की उपयोगितावादी समरसता का एक और विवरण आरएसएस ने इस प्रकार दिया है–

‘दिल्ली के कांस्टीटयूशन हाल में डा. आंबेडकर जयंती पर बोलते हुए ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद जी ने कहा कि ‘आचार्य होने के नाते मैं घोषणा करता हूँ कि किसी मन्दिर के गर्भगृह में जिस स्थान पर मुझको जाकर पूजन और देवदर्शन का अधिकार है, वहां तक किसी भी हिन्दू को प्रवेश का अधिकार है.’ [प्रश्नोत्तरी, पृष्ठ 13]

ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु स्वामी वासुदेवानंद जी के इस कथन पर गौर कीजिए-  ‘किसी भी हिन्दू को प्रवेश का अधिकार है.’ बिलकुल सही है. इसमें कुछ भी गलत नहीं है. पर उन्होंने यह नहीं कहा कि ‘किसी भी दलित को प्रवेश का अधिकार है .’ हिन्दू और दलित में उतना ही अंतर है, जितना पानी और अग्नि में. जब भक्तिकाल में रामानन्द स्वामी ने चंडाल को वैष्णव बनाकर मन्दिर के गर्भगृह में प्रवेश करने का अधिकार नहीं दिया, तो ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु और आरएसएस के गुरु जी कैसे अधिकार दे सकते हैं ? इसलिए उन्होंने हिन्दू शब्द का प्रयोग किया, दलित का नहीं. वे भूल गये, जब काशी में विश्वनाथ मन्दिर में ‘हरिजन-प्रवेश’ आन्दोलन चला था, और हरिजनों ने उसमे प्रवेश कर लिया था, तो वह मन्दिर अपवित्र हो गया था, और जगद्गुरु शंकराचार्य के आग्रह पर हिन्दू सेठों ने रातोंरात नया विश्वनाथ मन्दिर खड़ा कर दिया था.

अगर आरएसएस का यही समरसता कार्यक्रम है, तो दलितों को यह समरसता नहीं चाहिए.

[यहाँ पहली पुस्तिका ‘प्रश्नोत्तरी’ की समीक्षा समाप्त हुई. अगली कड़ी में आरएसएस के राष्ट्र जागरण अभियान की दूसरी पुस्तिका ‘राष्ट्रीय आन्दोलन और संघ’ की समीक्षा करेंगे.]

 

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वर्णव्यवस्था के पक्षधर आरएसएस की ‘समरसता’ केवल ढोंग है !

 

‘सेवा’ के नाम पर समाज को हिंसक और परपीड़क बना रहा है RSS !

RSS कभी मुस्लिम बन चुके ब्राह्मणों और राजपूतों की ‘घर-वापसी’ क्यों नहीं कराता ?

धर्मांतरण विरोध का असली मक़सद दलितों को नर्क में बनाए रखना है !

अल्पसंख्यकों के हक़ की बात ‘सांप्रदायिकता’ और बहुसंख्यक सर्वसत्तावाद ‘राष्ट्रवाद’ कैसे ?

‘हिंदुत्व’ ब्राह्मणों के स्वर्ग और शूद्रों के नर्क का नाम है !

‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं !’ मगर क्यों ?

आरएसएस की भारतमाता द्विजों तक संकुचित है !

भारत को गु़लामी में धकेलने वाली जाति-व्यवस्था को ‘गुण’ मानता है RSS !

RSS का सबसे बड़ा झूठ है कि वह धर्मांध संगठन नहीं !