‘सुपर सेंसर’ बनेगी सरकार! फ़िल्मकारों के खड़े हुए कान, शुरू हुआ हस्ताक्षर अभियान!


फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड के फ़ैसले को चुनौती देने के लिए भारत में फ़िल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (एफसीएटी) की व्यवस्था थी लेकिन मोदी सरकार ने बीते अप्रैल में उसे भंग कर दिया। अपने नये संशोधनों के ज़रिये वह फ़िल्म उद्योग का माई-बाप बनना चाहती है।


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अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले के आरोप से बेपरवाह  मोदी सरकार ने अब फ़िल्मवालों को दुरुस्त करने की ठानी है। सरकार क़ानून में बदलाव करके ख़ुद ‘सुपर सेंसर’ होना चाहती है। यानी वह सेंसर बोर्ड से पास की गयी फ़िल्मों को भी प्रदर्शित न होने देने का अधिकार चाहती है। अगर सरकार की मर्ज़ी के मुताबिक़ क़ानून बन गया तो फिर फ़िल्म उद्योग महज़ सरकार का भोंपू बन कर रह जायेगा।

लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी बुनियादी चीज़ है। फ़िल्में भी अभिव्यक्ति का बेहद सशक्त माध्यम हैं और सच्चे लोकतंत्र में फ़िल्मकारों को हमेशा प्रयोग करने की छूट होती है। इसीलिए जिस बोर्ड को कुछ ग़लत समझ के आधार पर सेंसर बोर्ड कहा जाता है, वह दरअसल ‘फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड’ है। इरादा  यह था कि किसी भी फ़िल्म पर पाबंदी न लगायी जाये, बल्कि यह तय कर दिया जाये कि किस आयु वर्ग के लोग किसी फ़िल्म को देख सकते हैं। इसी के तहत कई श्रेणियाँ हैं। चूँकि ज़्यादा दर्शकों तक पहुँच के लिए फ़िल्मकार यू यानी यूनिवर्सल सर्टिफिकेट चाहते हैं, इसलिए विवाद होता रहता है। लेकिन प्रमाणन बोर्ड फ़िल्मों को रोकता नहीं है।

वैसे, फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड के फ़ैसले को चुनौती देने के लिए भारत में फ़िल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (एफसीएटी) की व्यवस्था थी लेकिन मोदी सरकार ने बीते अप्रैल में उसे भंग कर दिया। अब नये संशोधनों के ज़रिये वह फ़िल्म उद्योग का माई-बाप बनना चाहती है।

ज़ाहिर है, फ़िल्मों से जुड़़े तमाम लोग सरकार के इस रवैये को लेकर सतर्क हैं और आने वाले आफ़त की आहट सुन रहे हैं। फ़िल्मकार शिल्पी गुलाटी बताती हैं कि फ़िल्म निर्माताओं, शिक्षाविदों तथा वकीलों के एक छोटे समूह ने फ़िल्म सेंसरशिप के अपने सामूहिक अनुभवों और न्यायमूर्ति मुद्गल समिति (2013 ) तथा श्याम बेनेगल समिति (2016) द्वारा की गयी फ़िल्म सेंसरशिप की सिफ़ारिशों के आधार पर वर्तमान प्रस्तावित संशोधनों पर सुझावों का मसौदा तैयार किया है। सुझावों के मसौदे के समर्थन और हस्ताक्षर के लिए इसे 27 जून 2021 की रात प्रसारित किया गया। सुझाव तैयार करने वाले समूह में शिल्पी के अलावा  अकादमिक जगत की भार्गव रानी, फ़िल्मकार प्रतीक वत्स और वकील सहाना मंजेश तथा मणि चंदर शामिल हैं।

शिल्पी के मुताबिक इस मसौदे के समर्थन में अब तक 1430 लोगों ने हस्ताक्षर किया है और यह संख्या लगातार बढ़ रही है। हस्ताक्षर करने वालों में फ़िल्म समुदाय के विजय कृष्ण आचार्य, दिबाकर बनर्जी, ज़ोया अख़्तर, वेट्री मारन, अनुराग कश्यप, नंदिता दास, सुरभि शर्मा, शीबा चड्ढा, शबाना आज़मी, हनी ईरानी, आमिर बशीर, तनुजा चंद्रा, आदिल हुसैन, रेणुका शहाणे, सुहासिनी मणिरत्नम, नितिन बैद, जबीन मर्चेंट, नम्रता राव, वरुण ग्रोवर, संजय जोशी और संजना कपूर, रोहिणी हट्टंगड़ी, लक्ष्मी चंद्रशेखर, डॉली ठाकोर, अरुंधति नाग अनामिका हक्सर, लिलेट दुबे, ज्योति डोगरा जैसी थियेटर हस्तियाँ शामिल हैं। इसके अलावा द वीमेन इन सिनेमा कलेक्टिव (केरल) और सिनेमा ऑफ रेज़िस्टेंस भी इन सुझावों के समर्थन में है।

जो लोग भी इन सुझावों पर हस्ताक्षर करना चाहते हैं, वे यहाँ क्लिक करके ऐसा कर सकते हैं। इसके अलावा dhanpreet.kaur@ips.gov.in पर अपनी सिफ़ारिशें सीधे भी भेजी जा सकती हैं।

ज़ाहिर है, फ़िल्मों को केवल मनोरंजन या कमाई का ज़रिया न मानने वाली जमात सरकार के रवैये से बेहद चिंतित है। हाल के दिनों में भारतीय फ़िल्म उद्योग में जिस तरह से मुख्यधारा और समानांतर सिनेमा का अंतर ख़त्म करने वाली फ़िल्में बनी हैं उन्हें एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। लेकिन ऐसी फ़िल्मों ने वर्चस्वशाली राजनीतिक सत्ता और उसकी विचारधारा को भी चुनौती दी है। उन तमाम समता विरोधी मूल्यों को चुनौती दी है जिन्हें भारतीय संस्कारों के नाम पर बचाने की कोशिश की जाती है। सरकार की कोशिश रुपहले पर्दे पर होने वाले इन लोकतांत्रिक प्रयासों का अंत न कर दे, इसके लिए एक बड़े प्रयास की ज़रूरत है।