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ये लेख दरअसल, हमारी निवर्तमान असिस्टेंट एडिटर सौम्या गुप्ता की फेसबुक पोस्ट पर लिखा गया, एक भावुक संस्मरण है। हमने इसको प्रकाशित करने का निर्णय लिया क्योंकि आप न केवल शाहजहांपुर जैसे प्रदर्शन स्थल की अहमयित समझ सकें, किसानों-उनके संघर्ष और जीवन को समझ सकें- बल्कि ये भी समझ सकें कि मीडिया विजिल और हमारे जैसे और स्वतंत्र मीडिया संस्थान के साथ जुड़े लोग किस कदर संवेदनशील पत्रकारिता करते हैं.. ये न केवल हमारे आसपास के सभी संघर्षशील लोगों, किसानों, मज़दूरों, गरीबों, बहुजनों, महिलाओं को समर्पित है- बल्कि उन सारे साथी पत्रकारों को भी, जिन्होंने पिछले 6 सालों में भारतीय पत्रकारिता को अपनी रिपोर्टिंग से समृद्ध किया है। सौम्या उसमें से एक और नाम है… – संपादक, मीडिया विजिल
1 जनवरी की सुबह, मैं राजस्थान की शाहजहांपुर प्रोटेस्ट साइट- शाहजहांपुर बॉर्डर से रिपोर्टिंग कर रही थी। मैं इन साइट्स को बॉर्डर कहना ही पसंद करती हूं, क्योंकि इससे ये पता चलता है कि दिल्ली बाकी देश से कितना कटी हुई है। मैं बार-बार इनको सीमा कहती हूं, क्योंकि ये बताता है कि कैसे दिल्ली अपने आप में एक राष्ट्र-राज्य हो गई है। दिल्ली से मेरा आशय, केवल दिल्ली-एनसीआर के भौगोलिक इलाके से नहीं है। मेरा मतलब हर उस शख़्स से होता है, जिसने अपनी सुविधा से अज्ञान को ही ज्ञान मान लिया है। ये अज्ञान कि उनके और उनके करीबी समूहों के अलावा, लोग किस हाल में रह रहे हैं। मुझे एक मित्र याद है, जो अमेरिका में काम करता है और लगभग 1 लाख 30 हज़ार यूएस डॉलर सालाना कमाता है, उसने एक बार कहा कि वो कुछ ख़ास नहीं कमा रहा। मुझे वे लोग भी याद हैं, जो बेंगलुरू में 1.5 लाख रुपए महीना कमाते थे और उनको वो कम लगता था। ख़ैर, ये कहानी शाहजहांपुर के बारे में है।
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ठीक, सरसों के खेतों के बीच में स्थित प्रदर्शन स्थल। आप जब बॉलीवुड बहुत ज़्यादा देखते हैं, तो आपको लगने लगता है कि सरसों का मतलब पंजाब है। लेकिन दरअसल सरसों का सबसे बड़ा उत्पादक, राजस्थान है और पंजाब इसके आसपास भी नहीं फटकता। तो हां, यहां सरसों के खेतों के बीचों-बीच एक प्रोटेस्ट साइट है। इसके एक ओर हरियाणा है और एक ओर राजस्थान। यहां एक ढाबा है, जिसका नाम ‘बाबा का धमाका ढाबा’ है। ये न केवल कावित्यपूर्ण है, बल्कि वहां बैठे ‘बाबओं’ के विस्फोटक विचारों के लिए उपयुक्त भी। सुबह की शुरूआत, ट्रैक्टरों से अमरूद बांटे जाने से हुई। मुझे अमरूद बेहद पसंद हैं- मुझे अमेरिका में रहते समय थाईलैंड के अमरूद कभी पसंद नहीं आए, अमरूद मेरे लिए दैवीय वस्तु है।
मैं आसपास घूम रही थी। चारों ओर हुक्का लेकर बैठे छोटे-छोटे समूह थे, जो कृषि क़ानूनों पर विस्तार में चर्चा कर रहे थे। मैं जाकर, उनमें से एक समूह में बैठ गई और फिर सांस्कृतिक मिलाप के विचार में, मैंने-उनसे हुक्के के लिए पूछा। उन पुरुषों ने तुरंत हुक्का मेरे सामने कर दिया- कोई सवाल नहीं.. क्योंकि उनके लिए महिलाओं का धूम्रपान, रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है। अब ज़रा अपनी चहारदीवार वाली कॉलोनी के रहवासियों के बारे में सोचिए.. ख़ैर मैंने एक कश लिया और अचानक जैसे खांसी का तूफ़ान आ गया। मैं सुरक्षित गढ़ों में पली हुई हूं, मेरे फेफड़े- वो नहीं झेल सकते थे। हम सब हंसने लगे- मुझे लगा, मैं घर पर हूं।
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हंसी लोकतांत्रिक होती है, कोई आप पर हंस दे, मतलब कि आप बराबर हैं। क्या आपने कभी अपने बॉस के सामने उनका मज़ाक उड़ाया है? नहीं न? आप अपने साथियों से मज़ाक करते हैं। वे बात करने लगते हैं- मैं रेकॉर्ड करने लगती हूं। वे मुझसे पूछते हैं, कि क्या मुझे श्रम क़ानूनों के बारे में पता है? क्या आपको सरसों के प्रति क्विंटल भाव के बारे में पता है? क्या आप जानती हैं कि कीटनाशकों के छिड़काव में कितना खर्च होता है? मैं नीचे देखने लगती हूं- क्योंकि मुझे इन सवालों के जवाबों का अंदाज़ा नहीं था। वे अपनी कहानियां साझा करते हैं, बल्कि कहानियां नहीं… अपना जीवन मुझसे साझा करते हैं।
एक नौजवान, एक विशेष दवा की ज़रूरत में निशा सिद्धू जी को हड़बड़ी में खोज रहा था। कुछ लोग निशा जी को इसलिए खोजने में लगे हैं, क्योंकि उनको सुबह का कार्यक्रम शुरू करना था। निशा जी ने 2020 में ही अपने नौजवान बेटे को, एक अप्रत्याशित सड़क दुर्घटना में खोया है। उसके बावजूद वे और उनके पति, प्रदर्शनों को हर रोज़ आयोजित, समर्थन करने के साथ लगातार यहां धरने पर बैठे हैं और सारी ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर लिए हैं। जबकि ऐसा प्रतीत होता है कि दुख भी, अमीरों का एक विशेषाधिकार ही है।
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लंगर शुरू हो गया है। मैं भोजन को लेकर अति उत्साहित रहती हूं। ख़ासकर कड़ा-प्रसाद (सिख लंगर का सबसे अहम हिस्सा-हलवा) और जलेबी। मैं सुनिश्चित करती हूं कि मैं दोनों खा सकूं। एक नवयुवती, आटा गूंथ रही है, वह उसैन बोल्ट की रफ्तार से 10 किलो आटा गूंथती है। उसे अभी भी लगता है कि उसे कुछ ख़ास आता ही नहीं।
कोई भी शाहजहांपुर के बारे में, अधिक बात नहीं करता। वह सिंघू जैसा विशाल या ग़ाज़ीपुर जैसा गतिविधिपूर्ण नहीं है। लेकिन वहां एक दृढ़ निश्चय है, एक निश्चय जो सीकर में किसानों ने 2017 में लिया था, जब लगभग 1 लाख किसानों ने 250 जगहों को जाम कर दिया था। पूर्व एमएलए और किसान नेता अमराराम ने तब कहा था, “अगर सरकार स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों से सहमत नहीं होती, साथ ही लोन माफ़ नहीं करती तो उनके महापड़ाव और चक्का जाम जारी रहेंगे।” इसलिए ये विरोध केवल पंजाब में ही शुरू नहीं हुआ- लेकिन वे क्षेत्रवार सभी जगहों पर शुरू हुए, अलग-अलग तरीकों से। ठीक ऐसा ही फरवरी, 2019 में भी हुआ था।
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