72वें गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में जहाँ एक ओर मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रतीक बना कर पेश किया जा रहा राफेल विमान राजपथ की भव्य शासकीय परेड में अपने करतब दिखा रहा था, वहीं दो महीने से कड़ी ठंड में दिल्ली सीमा पर चारों ओर राजमार्गों पर डटे किसान हजारों ट्रैक्टरों पर सवार होकर बाहरी रिंग रोड की दिशा में अपनी अलग गणतंत्र परेड की घोषणा के तहत महानगर के अन्दर बढे चले आ रहे थे। ऐतिहासिक विरोधाभास का अभूतपूर्व प्रदर्शन! सरकारी आयोजन में तंत्र की ऐंठ ही ऐंठ भरी हुयी थी जबकि किसानी आयोजन गण की जिद से ओत-प्रोत था| भारतीय गणतंत्र में गण और तंत्र एक दूसरे से कितने दूर हो चुके हैं, उस का भी परिचायक रहीं ये दो अलग-अलग परेड|
कहना न होगा कि दिल्ली बहुत सस्ते में छूट गयी| किसान परेड के शुरुआती घंटों की उत्तेजना के दौरान मार्च करते किसानों में व्याप्त भ्रम और उन्हें नियंत्रित करती पुलिस की दिशाहीनता स्पष्टतः देखे जा सकते थे| यदि इसके बावजूद चंद दुर्घटनाओं, जहाँ-तहां बैरियर पर पुलिस और किसान टकराव, लाठी चार्ज, आंसू गैस तक ही दिन सीमित रहा तो मुख्यतः दो कारणों से- एक, किसानों की तमाम जत्थेबंदियों ने अपने लक्ष्य के प्रति अनुशासन दिखाया। कोई राह चलता व्यक्ति उनका निशाना नहीं बना और वे आगजनी या लूट-पाट से दूर रहे। दूसरे, पुलिस के गोली चलाने की नौबत नहीं आयी। अन्यथा, कोई दावा नहीं कर सकता कि दिल्ली की सडकों पर अभूतपूर्व उत्तेजना और अनिश्चितता का वह विस्फोट क्या दिशा पकड़ता।
फिलहाल किसान अपने ठिकानों यानी दिल्ली सीमा पर वापस लौट गये हैं लेकिन उनकी ओर से 1 फरवरी को संसद मार्च का ऐलान किया गया है। यहाँ, कानून-व्यवस्था के नजरिये से, 26 जनवरी की किसान परेड से तीन महत्वपूर्ण सबक रेखांकित किये जा सकते हैं|
1. राजनीतिक गुत्थियों को सुलझाने की रणनीति में पुलिस (या अदालत) को केन्द्रीय भूमिका देने से गतिरोध नहीं टूटेगा| किसानों से 11 दौर की बातचीत के बाद मोदी सरकार को राजनीतिक निर्णय की दिशा में बढ़ते दिखना चाहिए था, न कि पहले अदालत और अब पुलिस की आड़ से पैंतरेबाजी करते रहना। यह समीकरण उसके सामने आज भी ज्यों का त्यों खड़ा है।
2. दिल्ली पुलिस को किसान जत्थेबंदियों के अनुशासन को शांति बनाए रखने के पक्ष में इस्तेमाल करना होगा। स्पष्ट दिशा-निर्देशों के अभाव में वे भीड़ के सामने भीड़ बन कर रह जायेंगे जैसा कि 26 जनवरी को बहुत सी जगहों पर दिखा भी। वहीं, लाल किले में घुसी किसान भीड़ के निहित अनुशासन ने ही स्थित को बिगड़ने नहीं दिया।
3. आज आन्दोलनकारी किसान ‘करो या मरो’ की वर्गीय मनःस्थिति में पहुँच रहा है। किसी बड़े सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को शत-प्रतिशत अहिंसक रख पाना इतिहास में शायद ही कभी संभव हुआ हो, लेकिन करो या मरो का मतलब ‘आत्महत्या करो’ तो नहीं हो सकता| इस मोड़ पर किसान की लड़ाई राजनीतिक व्यवस्था से है न कि कानून-व्यवस्था से।
मोदी-शाह जोड़ी की राजनीति के हाथ में, उनके गुजरात पोग्राम के दिनों से ही, कानून-व्यवस्था की स्थिति बंदर के हाथ में उस्तरा देने जैसी सिद्ध हुयी है। फरवरी, 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली के साम्प्रदायिक दंगों में भी यही अफसोसजनक नजारा देखने को मिला था। जाहिर है, वे रातों-रात अपनी राजनीति नहीं बदल सकते। लेकिन क्या वे 26 जनवरी के किसान परेड के अनुभवों से कुछ सीख ले सकते हैं? बशर्ते वे समझें कि उन्हें अपने कॉर्पोरेट दोस्तों को नहीं, इतिहास को जवाब देना है।
विकास नारायण राय रिटायर्ड आईपीएस हैं। क़ानून-व्यवस्था और मानवाधिकार के मुद्दों पर लगातार सक्रिय हैं। हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।