भाऊ कहिन-7
यह तस्वीर भाऊ की है…भाऊ यानी राघवेंद्र दुबे। वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र दुबे को लखनऊ,गोरखपुर, दिल्ली से लेकर कोलकाता तक इसी नाम से जाना जाता है। भाऊ ने पत्रकारिता में लंबा समय बिताया है और कई संस्थानों से जुड़े रहे हैं। उनके पास अनुभवों ख़ज़ाना है जिसे अपने मशहूर बेबाक अंदाज़ और सम्मोहित करने वाली भाषा के ज़रिए जब वे सामने लाते हैं तो वाक़ई इतिहास का पहला ड्राफ़्ट नज़र आता है। पाठकों को याद होगा कि क़रीब छह महीने पहले मीडिया विजिल में ‘भाऊ कहिन‘ की पाँच कड़ियों वाली शृंखला छपी थी जिससे हम बाबरी मस्जिद तोड़े जाते वक़्त हिंदी अख़बारों की भूमिका के कई शर्मनाक पहलुओं से वाक़िफ़ हो सके थे। भाऊ ने इधर फिर से अपने अनुभवों की पोटली खोली है और हमें हिंदी पत्रकारिता की एक ऐसी पतनकथा से रूबरू कराया है जिसमें रिपोर्टर को अपना कुत्ता समझने वाले, अपराधियों को संपादकीय प्रभारी बनाने वाले और नाम के साथ अपनी जाति ना लिखने के बावजूद जातिवाद का नंगानाच करने वाले संपादकों का चेहरा झिलमिलाता है। ये वही हैं जिन्होंने 40 की उम्र पार कर चुके लोगों की नियुक्ति पर पाबंदी लगवा दी है ताकि भूल से भी कोई ऐसा ना आ सके जिसके सामने उनकी चमक फ़ीकी पड़ जाए ! ‘मीडिया विजिल’ इन फ़ेसबुक संस्मरणों को ‘भाऊ कहिन’ के उसी सिलसिले से जोड़कर पेश कर रहा है जो पाँच कड़ियों के बाद स्थगित हो गया था-संपादक
हम अपने लिये कब लड़ेंगे साथी ?
अपने नाम के आगे से जाति सूचक शब्द तो उन्होंने हटा लिया लेकिन , मोटी खाल में छिपा जनेऊ , जब – तब सही मौके पर दिख ही जाता है ।सांस्कृतिक प्रिवलेज्ड वे , पूंजी के एजेंट हैं और दलाली में माहिर । उनकी जिंदगी का हर क्षण उत्सव है ।
शाम की तरंगित बैठकों में वे छत की ओर देख कर कहते हैं – ‘ जिंदगी मुझ पर बहुत मेहरबान रही । मुझे जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है ! ‘
वह पहले जहां थे , कोई उनसे मिलना चाह रहा था । उसे , उनके पीए ने बताया कि वह फलां तारीख ( 15 दिन बाद की ) को फोन करके पूछ ले कि साहब से कब समय मिल सकता है । बहुत मुश्किल और सामान्य लोगों के लिए तकरीबन असंभव , उनकी उपलब्धता भी दिल्ली में चटख और लंबी कहानी है । जो आतंक , रहस्य और रईसी की छोटी – छोटी अंतरकथाओं से प्रवाह पाती है ।
एक साहब किसी अखबार में कार्यकारी संपादक हैं । मालिक संपादक से वार्तालाप के दौरान उनकी रीढ़ में अद् भुत लचक पैदा हो जाती है ।
रीजनल या नेशनल मीट के दौरान ( जैसा कि देखा गया है ) उनकी नजर हर क्षण मालिक की आंख की पुतलियों की ओर होती है । वह हर इशारा समझते हैं । पुतली फिरी नहीं कि वह दौड़कर मालिक की कुर्सी के बगल में कच्च से घुटनों के बल बैठ जाते हैं और अपना कान उनके मुंह से सटा देते हैं । किसी का ‘ काम लगवा दें ‘ जनाब ।
एक संपादक ने तो दरअसल मालिक के करतूत की सजा भुगती । जेल गये । एक अखबार समूह में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों में से दो – एक एवज में जेल जाने के लिये ही होते हैं ।
याद आ रहा है विभिन्न शहरों में अलग -अलग अखबारों की लांचिंग के समय का मंजर । एक संपादक ने अपने अखबार के नाम का स्टिकर , खुली छाती वाली अपनी कोट के दोनों ओर सामने , पीठ पर , बांहों पर ,कलाई पर चिपका रखी है।
सेंटर पर डांसर बुलाई गयी है और कुछ गुंडे भी । प्रतिस्पर्धी अखबार ने भी अपनी सेना जुटा ली ।
नगाड़ों और बैंड के कानफाड़ू शोर के बीच पत्रकार नाम की मजदूर बिरादरी , आमने – सामने की खूखांर और एक – दूसरे के रक्त पिपासु पलटन में बदल जाती है ।
लाठियां मंगवा ली गई हैं । दोनों ओर अवैध असलहे भी हैं । धांय …. धांय .. यह लीजिये गोली भी चली ।
मालिक जो वस्तुतः एक ही होते हैं , कई मायनों में , अपनी -अपनी सेना के शौर्य प्रदर्शन से खुश हैं । एक आदमी बस इसलिए संपादक बना दिया गया क्योंकि उसने प्रतिस्पर्धी को डराने के लिए धुआंधार फायरिंग कराई । और एक तो बस इसलिए कि वह हाकरों का नेता था ।
मीडिया के इस ढांचे में सबसे ज्यादा प्रताड़ित और बेचैन असल पत्रकार है । एक हिस्सा चाँदी काट रहा है , दूसरा भूजा फांक रहा है । पता नहीं कैसे मात्र 10 – 12 साल की ही नौकरी में कोई पत्रकार किसी लीडिंग चैनल में पार्टनर हो जाता है या अपना खुद का चैनल और अखबार ला देता है ।
हम असल पत्रकार अपना दुख किसको ई-मेल करें । पूंजी तो मालिक की है क्या फर्क पड़ता है रोशनाई , हमारे खून की हो ।
रामेश्वर पाण्डेय ‘काका ‘ ने ठीक कहा है — हम दोनों ओर से पूरे मनोयोग से लड़ेंगे साथी ।
क्यों आलोक जोशी जी , हमारी नियति भी यही है न ?
न्यूज़ एडिटर के कमरे में रिवाल्वर नचाने वाला अब संपादक है
बखूबी जानता हूं , उनके पीछे संस्थान की पूरी ताकत खड़ी है । राजनीति और नेताओं से कुत्सित रिश्ते भी ।
लेकिन , देवरिया , बलिया , गोरखपुर और बनारस के लोग चोटिया कर लड़ना जानते हैं । फिर 63 – 64 की उम्र में मेरे पास गंवाने को क्या है ?
तकरीबन 36 की उम्र में आया पत्रकारिता में । आठ – 10 साल पॉलिटिकल एक्टिविज्म , रंगकर्म और शुरूवाती दौर में अच्छी चल निकली 6 साल की वकालत छोड़ कर । उन दिनों देवरिया में एक जज थे , आर. सी. चतुर्वेदी । जिला जज संगम लाल पाण्डेय ।
चतुर्वेदी जी जैसे कड़क जज , मुझे बेटे का प्यार देते थे । माथुर चौबे ( मूलतः मथुरा के चौबे ) लेकिन मैनपुरी के रहने वाले थे ।
( वकालत के दिनों की यादें बाद में )
तब जागरण गोरखपुर में संपादक थे , यशस्वी पत्रकार डा . सदाशिव द्विवेदी । शब्द वही अर्थ देने लगते थे , जो वह चाहते थे ।
सोचता हूं अगर उन्होंने मुझ 36 पार के व्यक्ति को , अपने साथ रखने से इनकार कर दिया होता , तो क्या होता ?
रामेश्वर पाण्डेय ‘ काका ‘ की जोरदार सिफारिश के बावजूद किसी ने 48 साल की उम्र में मुझे स्टेट ब्यूरो में रखने से इनकार कर दिया होता तो क्या होता ?
बिहार में मैंने इस छोर से उस छोर तक आम लदी , डोंगी में बैठकर , जिद्दी और करार तोड़ती बेलगाम नदियों से 8 – 8 किलोमीटर तक की यात्रा की । बाढ़ के साथ जी रहे लोगों को देखने के लिये । जिनका सपना आर्द्र हो चुका था । कांवरियों के साथ 100 किमी. की पैदल यात्रा की ।
अयोध्या और बाबरी ध्वंस के बारे में तो कई कड़ी लिख चुका हूं ।
उसी कम तनख्वाह में संस्थान की ओर से आयोजित लिट्रेचर फेस्टिवल , फिल्म फेस्टिवल भी मुझ अकेले के ही जिम्मे होता था । ‘ गंगा संसद ‘ भी ।
वो आंच और जोखिम लेने का हौसला मुझमें आज भी है , लेकिन उस औपनिवेशिक कानून का क्या करूं जो 58 साल के एक सेकेंड पहले तक हमें सक्षम और एक सेकेंड बाद अक्षम मान लेता है ।
अब तक के 30 साल के कैरियर में कितना भूत लेखन किया , संपादक और निदेशक की बात न्यायसंगत या वजनदार बनाने के लिये कितनी रफूगीरी की , नहीं बता सकता । लेकिन , वह पाप मेरे माथे भी है , नाहक । बिना कुछ पाये ।
बड़ा नाश किया अनपढ़ , गुंडे और मालिक या सरकार का तलवा चाटने वाले कुछ संपादकों ने । हमें या हमारे जैसों को इनके ही बीच रहना है और मुट्ठियां ताने मैदान में भी हैं क्योंकि मालिक ने कहा है –
अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हुआ है ।
एक कार्यकारी संपादक का सधा वाक्य होता है —
कुछ समझा भी करो … ।
जो संपादक ढाबे के बुझे चूल्हे में फायर झोंक कर जला सकते हैं उनकी पसंद देखिये ।
तब कम्प्यूटर पर खुद ही टाइप कर लेना अभी नहीं शुरू हुआ था ।
वह लंबा – छरहरा – गोरा लड़का याद है जो समाचार संपादक के कमरे में जाकर अपनी रिवाल्वर लोड और अनलोड करता था ।
वह संपादक जी की पहली पसंद है । सुना है वह भी किसी यूनिट का संपादक हो गया है ।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े और अच्छी समझ के लिए मशहूर एक पत्रकार के भी बारे में लिखूंगा । बता दूं कि वे किसी जाति के हों , जो अपने नाम के आगे जाति सूचक शब्द नहीं लगाते , बड़े जातिवादी हैं । सरनेम हटा लेने से ही वे जाति विघटित नहीं हो जाते । और दिल्ली तो कुछ ऐसे क्षद्म और अधकचरे बुद्धिजीवियों से आज कल भर गयी है ।
और फिर महिला पत्रकार गड़बड़ औरत कह कर निकाल दी जाती है
ये संपादक अखबारों में नयी संस्कृति ( दरअसल कुसंस्कृति ) के नये साहूकार हैं ।
बीते दो दशकों में परवान चढ़ी चलन के ये , या तो डॉन हैं या कामातुर लपकहे ।
जो किसी को रातों – रात स्टार बना सकते हैं ।
बाजार की तूती वाले इस दौर में उनकी मर्द दबंगई और बेझिझक हुई है , कभी मालिक यानि निदेशक या वाइस प्रेसिडेंट के लिये और कभी अपने लिये । पहले अपने लिये । पद के लिये ऊपर चढ़ते जाने की यह भी एक सीढ़ी है ।
पत्रकारीय कौशल , उसके लिये जरूरी संवेदना या नागरिक – सामाजिक हैसियत से ज्यादा , इनकी निगाह किसी की आंख , देह रचना , खुले रंग और गोगेल्स पर होती है ।
खास बात यह कि ऐसी चीजें चटख कानाफूसी बनती हैं और अंततः महिला पत्रकार के खिलाफ ही जाती हैं । वे बाद में गड़बड़ औरत करार देकर निकाल भी दी जाती हैं ।
— उसमें स्पार्क है , उसकी मदद करो
— डाउन द लाइन कुछ अच्छे लोग तैयार करना तुम्हारी भी की – रोल जिम्मेदारी है । लगता है तुमने कुछ पढ़ना – लिखना कम कर दिया है ।
— जी …
और मैं यह कह कर ठंडे कमरे से बाहर चला आया था । उस कमरे की ठंड हालांकि किसी घिन की तरह मेरी देह से बहुत देर तक चिपकी रही ।
लखनऊ में एक अंग्रेजी अखबार के संपादक आज तक नहीं भूले हैं । मेरे खासे परिचित हैं । वह जब -तब , एक महिला पत्रकार को बुला कर , उसे सामने बैठने को कह कर वक्ष की घाटी ( क्लीवेज ) और गोलाईयां देर तक निहारते रहते थे ।
उस महिला को भी इसका भान था लेकिन , कई सहूलियतों की वजह से वह यह जस्ट फन , अफोर्ड कर सकती थी । उसमें पेशेवराना दक्षता थी । पत्रकारिता को अब ऐसे ही प्रोफेशनल्स चाहिये ।
स्पॉट रिपोर्टिंग के दौरान धधकती धूप में जले और धुरियाये रिपोर्टर की देह से संपादक जी को प्याज और लहसुन की बदबू आती थी ।
— जाओ मिश्र जी ( चीफ रिपोर्टर या ब्यूरो हेड ) को दे दो ( खबर या रिपोर्ट की कॉपी )
— जी…
— और सुनो थोड़ा प्रजेन्टेबुल बनो , इस तरह नहीं चलेगा । अखबार का हर कर्मचारी उसका ब्रांड दूत होता है ।
— जी …
उस निहायत कम तनख्वाह पाने वाले रिपोर्टर ने सब्जी और नून – तेल से कटौती कर अपने लिए एक ब्रांडेड शर्ट खरीदी ।
उस दिन पखवारे वाली मीटिंग के दौरान वह नहा – धोकर , वही शर्ट पहन कर आया ।
निदेशक की निगाह बार – बार उसकी ही ओर जाती थी ।
— आजकल मॉडलिंग करने लगे हो क्या ? पत्रकारिता करो … वरना लात मार कर निकाल दिये जाओगे । और तुम जानते हो लात कहां पड़ती है ।
संपादक , जी भैया … जी भैया … कह कर बिछा जा रहा था ।
इस डाइरेक्टर की पहनी हुई शर्ट संपादकीय बैठक में नीलाम की जाती है और चतुर संपादक कहता है —
इसकी बोली कौन लगा सकता है ? यह अनमोल है ।
वह संपादक आफिस आने और अपनी कैबिन में घुसने के बाद मेज पर रखे शीशे के नीचे भगवानों की फोटो को हाथ से छू – छू कर प्रणाम करता है । शीशे में अपनी मांग सवांरता है । वह राज्य के संपादकों में सबसे ज्यादा समझदार था ।
— वे सनकी हैं थोड़ा । दोनों । एक किसानी की बात करता है और उसकी अर्थ व्यवस्था की । दूसरा मार्क्स , सार्त्र , ग्राम्सी और देरिदा की ।
वे दोनों 50 के ऊपर हो चले थे । अखबार को जो चाहिए नहीं दे पा रहे थे । सुना है निकाल दिये गए ।
चूंकि वे ढाबे के बुझे चूल्हे में फायर नहीं झोंक सकते , इसलिए अब भाड़ झोंक रहे है ।
असल पत्रकार अब भाड़ ही झोकेंगे ।
और मालिक ने कहा – अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हुआ है । इसलिए मुट्ठियां ताने मैदान में भी होंगे ।
पत्रकार और पत्रकारिता दोनों मरेगी । मोटाएगा मालिक । इसीलिये उसने निष्ठावान , आज्ञाकारी मूढ़ संपादकों की नियुक्तियां की हैं ।
दारोग़ा का सपना देखने वाला अब संपादक है
एक स्टेट हेड ( राज्य संपादक ) की बहुत खिंचाई तो इसलिए नहीं करुंगा क्योंकि उन्होंने मुझे मौका दिया । अपने मन का लिखने – पढ़ने का । ऐसा इसलिए संभव हो सका क्योंकि मैंने उन्हें ‘अकबर ‘ कहना और प्रचारित करना शुरू किया जो नवरत्न पाल सकता था ।
उनपर जिल्ले इलाही होने का नशा चढ़ता गया और मैं अपनी वाली करता गया ।
( मुगल बादशाहों ने अपने रुतबे के लिये यह संबोधन इज़ाद किया था )
उन्होंने बहुतों को नौकरियां दीं ।
लेकिन अपने गृह नगर से ऐसे लोगों को भी संपादकीय टीम में लेते आये जिनमें से एक ऑटो के लिये सवारियां चिल्लाता था — एक सवारी .. एक सवारी …।
एक किसी साईं भरोसे चिट फंड कम्पनी में काम करता था । एक किसी निजी प्राइमरी स्कूल में ठेके पर मास्टर था ।
एक को दारोग़ा बनना था । यह उसके जीवन की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा थी । उसके बाप भी दारोगा थे ।
एक किसी अखबार में स्ट्रिंगर था और उसके दो सैलून थे ।
दोनों उस राज्य संपादक की मेहरबानी से आज संपादक हैं ।
दारोग़ा बनने का सपना रखने वाला जो अब संपादक है , सत्य कथाएं पढ़ता है और शहर के एक बुजुर्ग और नामी जेवर व्यवसायी के पैर छूता है । इसलिये कि दीवाली पर उसे चांदी की गिन्नियां मिल जायें । वह हर दीवाली लाखों की गिफ्ट लेकर घर जाता है । कार्यकारी संपादक का बहुत खास है और स्टेट हेड चूंकि रिटायर हो गए , इसलिये उनको कभी फोन तक नहीं करता । तोता चश्म है या फूल सूरजमुखी का , नहीं जानता ।
स्टेट हेड के लिये वे दिन , जब वे जिसे चाहें , किसी को सड़क से उठा कर सितारों की पांत में बिठा सकते थे , अब गहन अंधेरे की स्मृतियां हैं । अपनों से मिले घाव अबतक रिसते हैं ।
उन्हें सेवा विस्तार न मिल सके , इसकी सुपारी दूसरे कार्यकारी संपादक ने ली । जो मरकजी हुकूमत और संस्थान के बीच अच्छे रिश्तों की सेतु हैं ।
एक विल्डर उनका बड़ा प्रसंशक है ।
एक बात याद आती है ।
यशस्वी पत्रकार स्व . जयप्रकाश शाही को गोरखपुर में उनके गांव के लोगों ने , तब काबिल पत्रकार माना , जब उनकी बाइलाइन पढ़ी — ‘ सुखोई विमान से जयप्रकाश शाही ‘।
तब मुलायम सिंह यादव जी रक्षा मंत्री थे ।
गांव वाले कहते थे —
बाप रे , जहजिए से खबर लिख देता ।
जब मैं लखनऊ में था , देवरिया – गोरखपुर के लोग किसी न किसी काम से आते रहते थे ।
— कहां क्वाटर बा ?
— अमीनाबाद में लेले बानी एगो कोठरी
— सरकारी रऊवां के ना मिलल ?
— अब्बे ना
और मेरे ना कहते ही गांव – जवार में सफल पत्रकार होने की मेरी रेटिंग गिर जाती थी ।
अब सफल पत्रकार वह माना जाता है जो अफसरों से अपने घर में एयर कन्डीशन लगवा ले । फ्रीज पा ले ।
वो और ज्यादा बड़े पत्रकार हैं जो भूखंड खरीद रहे हैं , मॉल बनवा रहे हैं ।
समाज भी खासा बदला है । क्या अपना समाज ही पत्रकारों को करप्ट होने के लिए नहीं विवश कर रहा ।
राजेंद्र माथुर संपादक थे, पर ख़ुद से ज़्यादा वेतन रामशरण जोशी को दिलाया
एक बार , बक्सर ( बिहार ) में शिवपूजन सहाय स्मृति व्याख्यानमाला में , मैं भी एक प्रमुख वक्ता था ।
इस तरह की व्याख्यानमाला , संगोष्ठियों और सेमिनार में ( पटना , भोपाल , कोलकाता तक ) कई यशस्वी लेखकों और पत्रकारों के साथ मंच साझा करने का अवसर मिला है ।
बक्सर में मैं , आदरणीय राम शरण जोशी जी के साथ था । शाम को फुर्सत में वह अपनी पत्रकारीय यात्रा बताने लगे ।
जंगल – जंगल अपनी फरारी के खासे दिनों बाद , उन्हें राजेन्द्र माथुर जी का संदेश मिला ।
तब माथुर जी नई दुनिया के संपादक थे । अब जोशी जी से ही सुनें ।
” …. ब्यूरो चीफ के पद के लिये मेरा इंटरव्यू लेने कुल पांच लोग और सभी दिग्गज , बैठे थे। अभय छजलानी , राहुल वारपुते और खुद माथुर जी ।
मुझसे दो घण्टे तक तो मेरी राजनीतिक रुझान और वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में जाना गया । यह भी पूछा गया कि मैं कम्युनिस्ट क्यों हूं ।
घण्टो बातचीत के बाद मेरा चयन हुआ और माथुर जी ने मेरा वेतन , खुद से कुछ ज्यादा निर्धारित कर दिया ।
अब एक दूसरी बहस शुरू हो गई । ब्यूरो चीफ का वेतन संपादक से ज्यादा कैसे हो सकता है ।
माथुर जी ने मुस्कराते हुए कहा था —
जोशी जी किसी तरह तो अरण्य से लौटे हैं ।
मैं नहीं चाहता ये फिर वहीं लौट जायें ।
फिर मैं इन्हें बुर्जुआ बना रहा हूं , इन्हें बांध रहा हूं । मुझे ऐसा कर लेने दीजिये ।
तब बाकी लोग चुप हो गये ।..”
अब न माथुर जी नहीं रहे और रामशरण जोशी जी किसी अखबार में नहीं हैं ।
मालिक के तलुवे चाटने वाले आज के संपादकों को अगर किसी में स्पार्क दिख गया तो वे कसाई हो जायेंगे । अव्वलन तो नौकरी नहीं देंगे , और देंगे भी तो ऐसी जगह बिठा देंगे जहां से आप अपना श्रेष्ठ दे ही नहीं सकते । फिर आपको नाकारा घोषित कर देंगे ।
संपादक बनने और बनाने की पूरी प्रक्रिया ही उलट चुकी है ।
संपादक पद के लिए संपादन , उत्कृष्ट लेखन , अखबार को हर वर्ग आम , बौद्धिक , किसान , मजदूर और ब्यूरोक्रेट के लिए भी जरूरी पठनीय सामग्री से सजा सकने की क्षमता , अब कोई कसौटी नहीं रही ।
माने – जाने जन बुद्धिधर्मी अभय कुमार दुबे , आलोक तोमर , यशस्वी पत्रकार स्व . जय प्रकाश शाही का व्यक्तित्व आज के या कभी के किसी समूह संपादक से बहुत बड़ा रहा है ।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना या श्रीकांत वर्मा भी संपादक नहीं थे ।
दिनमान का वह दिन भी याद है जब उसके लिए कालजयी कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु , पटना में बाढ़ की त्रासद कथा लिखते थे ।
हिन्दी की आधुनिक पत्रकारिता ने बीते दशकों में जो उर्ध्व यात्रा की , अब ढलान पर है । तेजी से अपने पतन की ओर । और ढाबे के बुझे चूल्हे में फायर झोंक कर जला देने वाले संपादकों के बूते ।
अरे गुंडा हैं तो गैंगवार में उतरें ।
पोलैंड में तानाशाही के दिनों में अखबार और दृश्य मीडिया पर सरकार और वर्चस्वशील समूहों का कब्जा हो गया ।
टीवी सरकारी भोंपू हो गये । तब लोगों ने टीवी का मुंह अपने घर की खिड़की की ओर कर दिया था । वे टीवी को उधर ही चलने देते और घर छोड़कर सड़क पर आ जाते थे ।
भारत में भी ऐसा हो सकता है ।
शायद ऐसा न भी हो । क्योंकि सुरेन्द्र प्रताप सिंह के बाद टीवी मीडिया में आम और परेशान लोगों के भरोसे की एक शख्सियत तो है । रवीश कुमार ।
थू … गोदी मीडिया पर ।
जारी….
पढ़ें भाऊ कहिन -6 – संपादक ने कहा-ये रिपोर्टर मेरा बुलडॉग है, जिसको कहूँ फाड़ डाले !