पुरानी कहावत है “ राजा कभी ग़लती नहीं करता है।( king commits no wrong )”. देश की सर्वोच्च अदालत ने विवादस्पद कानूनों की जांच-परख के लिए चार सदस्यीय समिति का गठन करके के इतना तो मान ही लिया है कि सरकारें ‘फूल प्रूफ’ नहीं होती हैं। हुक्मरानों में खामियाँ होती हैं और वे ग़लती या अपराध भी करते हैं।
तीन विवादास्पद कानूनों पर बहस के दौरान एक धारणा या अवधारणा उभरी कि बहुमत से निर्वाचित सरकार को चुनौती नहीं दी जा सकती। वह गलती नहीं करती है। वह जनादेश से लैस रहती है। बेशक मोदी -सरकार लोकसभा में 303 सीटें जीत कर बहुमत की ताक़त पर मज़बूती से खड़ी है पर उसके किसी क़दम का विरोध करना, जनादेश का विरोध करना है, यह हद दर्जे की लोकतंत्र विरोधी सोच है। दूर क्यों जायें, बीती सदी में जर्मनी में हिटलर को प्रचंड बहुमत मिला था, चांसलर बना था, उसने अपने देश की कैसी दुर्गति की? उसने नस्ल शुद्धता के नाम पर 60 लाख यहूदियों को गैस चैम्बरों में ठूँस दिया और क़त्ले आम किया। दोनों विश्वयुद्धों के लिए बहुमत से निर्वाचित सरकारें ही ज़िम्मेदार थीं। 1945 में जापान के शहरों पर परमाणु बम बरसाने का आदेश देने वाले राष्ट्रपति बहुमत से ही निर्वाचित हुए थे। 1916 में डोनाल्ड ट्रम्प भी तो बहुमत से अमेरिकी राष्ट्रपति बने थे, क्या घटा? उन्होंने अपनी ही संसद पर नस्ली मवालियों से हमला करवा दिया। इस समय तक उन्हें अपने कुकृत्य के लिए पछतावा नहीं है!
देश की तरफ लौटें। इमरजेंसी थोपने वाली सरकार बहुमत से निर्वाचित थी। 1971 के आम चुनावों में इंदिरा जी को नरेंद्र मोदी से 50 सीटें अधिक मिली थीं। यदि उन्होंने तथाकथित सम्पूर्ण क्रांति के नाम पर अराजकता पर काबू पाने के लिए इमरजेंसी लगायी तो क्या ग़लत किया था? क्या इंदिरा जी ने 1984 में गोल्डन टेम्पल में सेना भेज कर सही कदम उठाया था? इसकी क़ीमत उन्हें अपने प्राणों से चुकानी पड़ी। आज तक कांग्रेस को माफ़ी मांगनी पड़ रही है! क्या राजीव गाँधी सरकार ने शाह बानो -प्रकरण में बड़ी राजनीतिक ग़लती नहीं की थी? क्या उन्होंने बाबरी मस्जिद के ताले खुलवाकर और भूमि पूजन कराके ग़लती नहीं की? क्या श्रीलंका में ‘इंडियन पीस कीपिंग फोर्स’ भेजना सही था? उन्हें भी अपने उत्सर्ग से इसकी कीमत चुकानी पड़ी थी।
यह सोचना कि मोदी -सरकार कभी ग़लती है नहीं करती है, ‘मोदी है तो सब कुछ मुमकिन है’, एक घिनौना और तानाशाही को दावत देनेवाला सोच है। कल्पना करिये, यदि नरेंद्र मोदी जी को 2024 के आम चुनावों में 400 सीटें मिल जाती हैं तो क्या-क्या कहर ढा सकते हैं? पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनकी शासन शैली को ‘अधिनायकवादी’ कह चुके हैं। 1915 में भाजपा के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी भी कह चुके हैं कि लोकतंत्र के लिए खतरे मौजूद हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अब तक जितने भी कदम उठाये हैं बिलकुल निरापद हैं- यह लोकतंत्र विरोधी सोच है। क्या इतने प्रदेशों से आये लाखों किसान बेवकूफ हैं, भिखारी हैं, पागल है? जब धनपति हज़ारों करोड़ रूपये लेकर देश से चम्पत हो जाते हैं तो इसकी भरपाई कौन करता है? प्रधानमंत्री खामोश रहते हैं। क्या नोटबंदी सही कदम था? क्या दर्जनों लोगों की जानें नहीं गयीं? पिछले वर्ष कितने प्रवासी मज़दूर मरे, क्या आला अदालत ने इसके लिए सरकार को ज़िम्मेदार ठहराया है? इसलिए यह दलील देना कि बहुमत से निर्वाचित सरकार गलती-अपराध प्रूफ है, अपनी उपनिवेशवादी दासता का परिचय देना है। यह मान कर चलना है कि राजा या प्रधानमंत्री दैविक शक्तियों से लैस होता है या ईश्वर का अवतार होता है, एक मध्ययुगीन अवधारणा है। दुर्भाग्य से दक्षिण एशिया के देशों में ऐसी दास -मानसिकता की जड़ें शिखर से नीचे तक फैली हुई हैं, अमरबेल बनी हुई है।
निश्चित ही, समिति के गठन के मामले में आला अदालत के कदम को निरापद नहीं कहा जा सकता है। अब भी वक़्त है, अदालत अपने फैसले को दुरुस्त कर सकती है और न्यायिक इतिहास में निर्मल छवि के साथ प्रवेश कर सकती है। वरना इसे न्यायिक पाखंड ही कहा जायेगा। देश अभी पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई के कारनामे को भूला नहीं है। अब फैसला उनके उत्तराधिकारी पर है कि वे इतिहास में कैसा स्थान चाहते हैं?
रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।