सोशल मीडिया पर छायी किसान आंदोलन की गतिविधियों को देखते हुए एक दृश्य पर मेरी नज़रें बरबस ठहर गई हैं। दृश्य है कि किसान संघर्ष के बीच साथ आये बच्चों और आस -पास के गांव के गरीब परिवार के बच्चों की कक्षा चल रही है। केरल और अन्य क्षेत्रों से आए युवा समाजकर्मी बुनियादी तालीम दे रहे हैं। देखा यह भी कि विद्यार्थी आंदोलनकारी ‘ऑन लाइन’ क्लास ले रहे हैं और परीक्षा की तैयारी भी कर रहे हैं।
ये दृश्य सहज ही में महात्मा गांधी के आन्दोलनों -सत्याग्रहों का इतिहास ताज़ा कर देते हैं। वे अपने परिवर्तनधर्मी या प्रतिरोधी आन्दोलनों-सत्याग्रहों को ‘रचनात्मक कर्म’ से भी जोड़ दिया करते थे। जब कोई प्रतिरोधी आंदोलन रचनात्मक गतिविधियों से सम्बद्ध हो जाता है तो उसमें ताज़गी का संचार होता रहता है और उसकी आयु बढ़ जाती है। दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत के स्वतंत्रता आंदोलन तक उन्होंने आंदोलन और रचनात्मक गतिविधियों की दीर्घजीवी ‘केमिस्ट्री ‘ का प्रयोग किया और सफल भी रहे ; बुनियादी तालीम, चरखा आंदोलन, नमक सत्याग्रह, चम्पारण आंदोलन, प्राकृतिक चिकित्सा व स्वास्थ्य, स्त्री शिक्षा व दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हरिजन बस्तियों में निवास जैसे कार्यक्रमों ने प्रतिरोध में ऊर्जा फूँकी और निरंतरता बनाये रखी। वर्तमान आंदोलन गांधी -रणनीति की कार्बन कॉपी है , मेरा यह कहने का आशय बिल्कुल नहीं है। इतना कहना ज़रूर है कि स्वतंत्र भारत के आंदोलन- इतिहास में यह बेनज़ीर संघर्ष ज़रूर है जिसमें प्रतिरोध , रचनात्मकता और भावी पीढ़ी का प्रशिक्षण का संगम ऐसी शिद्दत के साथ रेखांकित हो रहा है। बेशक़, परिवर्तित परिवेश में आधुनिक ‘हाई टेक ‘( उच्च प्रौद्योगिकी ) का भी इस्तेमाल किया जा रहा है। दिल्ली के चारों दिशाओं के प्रवेश द्वार पर फैली मीलों लम्बी तम्बुओं की आकर्षक लघु बस्तियाँ किसानों के बुलंद इरादों की जीवंत प्रतीक हैं।
मैंने अपने पत्रकारिता जीवन में अनेक आंदोलनों को कवर किया है, अनेक में शिरकत भी की, लेकिन मौजूदा किसान आंदोलन का रूप,तेवर, तैयारी और संकल्पबद्धता पहले कभी देखने को नहीं मिले। यह कम उल्लेखनीय नहीं है कि इसका संचालन किसी परम्परागत राजनीतिक नेतृत्व के पास नहीं है बल्कि किसान -समाज के नैसर्गिक नेतृत्व के पास है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि किसी प्रतिरोध,संघर्ष और आंदोलन के संचालन के लिए संगठित विचारधारा रहे, यह ज़रूरी नहीं। अलबत्ता वृहतस्तर के हितों की रक्षा से सरोकार रखने वाली सामूहिक चेतना और ऊर्जा की अंतर्धारा आंदोलन में ज़रूर रहती है। यदि देश के आदिवासी और किसानों के संघर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो ज्ञात होगा कि शोषण,उत्पीड़न, विषमता ,अन्याय,अत्याचार, अमानवीयता,उपनिवेशीकरण, वर्चस्वाद,दासता , भू -जंगल -खनिज -जल डाकाजनी जैसे कारकों ने प्रतिरोधों को जन्म दिया है; 1728 से लेकर 1971 के दौरान करीब एक सौ उल्लेखनीय संघर्ष हो चुके हैं जिन्होनें विदेशी और देशी सत्ताओं को अपने ढंग से झकझोर कर रखा दिया। पूरा भारत इनसे प्रभावित रहा है; कोली, छोटानागपुर, कोया, भील,संथाल, मुण्डा,,भूमकाल, तेभागा,असम का तीर्थ सिंह विद्रोह,नागा ,मिज़ो,वर्ली, कोया , इंडिगो किसान हड़ताल,दामोदर नहर कर विरोध, तेलंगाना जैसे बहु आयामी संघर्षों को भुलाया जा सकता है ? पिछली आदि सदी में भी दर्ज़नों छोटे -बड़े किसान -आदिवासी संघर्ष हुए हैं। यध्यपि पिछले कतिपय संघर्षों शक्ति वामचेतना रही है। लेकिन 18 व 19 वीं सदियों के संघर्ष या प्रतिरोध सामूहिक चेतना के परिणाम थे। 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास खंगालें तो उस समय दक्षिण या वाम विचारधारा नहीं थी. यदि कोई विचारधारा थी तो वह थी शासकों के अन्यायों के खिलाफ ‘ न्यायपूर्ण विद्रोह’; क्या मंगल पांडेय वामपंथी थे या बिरसा मुण्डा या भूमकाल का नायक गुण्डाधुर? भारत में ही ऐसा हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। दक्षिण अमेरिका में पश्चिम के श्वेत आक्रमणकारियों के खिलाफ स्थानीय मूलनिवासियों या आदिवासी किसानों ने सालों सशस्त्र संघर्ष किया था जिसमें लाखों मूलनिवासियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। कनाडा में आज भी शांतिपूर्ण संघर्ष जारी है। वास्तव में प्रतिरोध एक ‘सार्विक परिघटना’ है जिसे राज्य -हिंसा के बल पर कुचला नहीं जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो यह फिर से ‘राख के ढेर’ से उठ कर आ जायेगा।
वर्तमान आंदोलन किसानों के विभिन्न वर्गों की घनीभूत पीड़ा का परिणाम है। मुझे याद है ,भारत जन आंदोलन के पूर्व अध्यक्ष स्व. डॉ, ब्रह्मदेव शर्मा ने करीब ढाई दशक पहले ‘ किसान संकट’ ( अग्रेरियन क्राइसिस ) की आवाज़ उठाई थी। अनेक पर्चे लिखे थे। कुछ संगठनों ने छत्तीसगढ़ से दिल्ली तक की पैदल आदिवासी -किसान यात्राएँ निकाली थीं। रामलीला मैदान में डेरे डाले थे। पिछले साल तमिलनाडु के किसानों ने जंतर मंतर पर धरना भी दिया था। लेकिन दिल्ली की सत्ता चेती नहीं। पर गत सितम्बर में संसद से पारित तीन विधेयकों ने भारत के किसानों को हिला कर रख दिया है। इसका विस्फोट ऐसे समय हुआ है जब चरम दक्षिण पंथी शक्तियां भारतीय राष्ट्र राज्य पर काबिज़ हैं। जहां तक मुझे ज्ञात है यह पहला अवसर है जब मोदी-अमित शाह जोड़ी (प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ) को कॉर्पोरेट बादशाह अम्बानी -अडाणी जोड़ी के साथ गहनता के साथ नत्थी किया जा रहा है। सातवें दशक के प्रारम्भ में तत्कालीन इंदिरा -सरकार को एकाधिकारपति बिड़ला -टाटा की संरक्षक कहा जाता था। कांग्रेस के युवा तुर्क नेता (चंद्रशेखर, कृष्णकांत ,मोहन धारिया आदि ) ने इसके खिलाफ आवाज़ भी उठाई थी। लेकिन, पिछले सात सालों में मोदी-सरकार का जैसा चेहरा सामने आया है वैसा इंदिरा-सरकार का नहीं था। इत्तफ़ाक़ है कि कॉर्पोरेट जोड़ी गुजरती है और राजनीतिक जोड़ी भी गुजराती। किसान आंदोलन में इन दोनों गुजराती जोड़ियों को लेकर गुस्सा काम नहीं है; पुतले जलाये गए हैं, नारेबाजी हुई है, अम्बानी के जिओ -टॉ वरों पर हमले हुए हैं,अम्बानी -अडानी उत्पाद के बहिष्कार के नारे लगे हैं, हरियाणा में निर्माणाधीन अडानी के कोल्ड स्टोरेज की तस्वीर सामने आई है.. ऐसे प्रतिरोध किसानों का विस्फोट इंदिरा -सरकार के विरुद्ध नहीं हुआ था।
अफ़सोस इस बात का भी है कि भाजपा के कतिपय जनप्रतिनिधियों ने इस आंदोलन को खालिस्तान,पाकिस्तान, नक्सलपंथियों आदि के साथ जोड़ दिया। यहाँ तक कि यह भी कहा गया कि भारत-सीमा पर तैनात सेना को रसद ले जारहे ट्रकों को आंदोलनकारी रोक रहे हैं। यह कितनी घिनौनी -बेहूदा -बदतमीज़ किस्म की सोच है ! इसलिए रक्षामंत्री राजनाथ सिंह को 30 दिसंबर को अफ़सोस ज़ाहिर करना पड़ा। यह भी कहना पड़ा कि भारत की रक्षा में सिख किसानों -सैनिकों के अवदान को कैसे भुलाया जा सकता है। देश के प्रति उनकी वफादारी पर ऊँगली नहीं उठाई जा सकती। ऐसे शब्द निराशाजनक हैं। रक्षामंत्री को यह भी कहना पड़ा कि “किसान हमारे अन्नदाता हैं।” यह सच है कि आंदोलन का नेतृत्व खाते-पीते किसानों के हाथों में है लेकिन इसकी रीढ़ मझोले,सीमान्त और भूमिहीन खेतिहर श्रमिक हैं। इस आंदोलन ने वर्ग-जाति -धर्म -क्षेत्र की सीमाओं से मुक्त सामूहिक किसान -चेतना का आकाश रचा है क्योंकि इसकी चिंताओं में शहरी भारत के हित भी शामिल हैं। यदि कृषि भारत में नग्न कॉर्पोरेट पूँजी का हस्तक्षेप बढ़ेगा तो कृषि उपजों का महंगा होना लाज़मी है। इस भय से सिर्फ विभिन्न परतोंवाला कृषि भारत ही भयभीत नहीं है, शहरी भारत को भी इस पूँजी के दंश देर-सबेर झेलने पड़ेंगे। इसलिए, मेरी दृष्टि में किसानों की मौज़ूदा आवाज़ को “ साझा भारत आंदोलन या प्रतिरोध” कहना अधिक उपयुक्त रहेगा। मुख़्तसर से , देश में परिवर्तन के लिए नए माध्यमों अपनाने की ज़रूरत है। इस आंदोलन को ‘परिवर्तन की प्रयोगशाला ‘ भी कहा जा सकता है।