वाह नीतीश! बनाम आह नीतीश! 

कृष्ण प्रताप सिंह कृष्ण प्रताप सिंह
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हनुमान बेनीवाल की राजस्थान आधारित राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने गत शनिवार को यह कहते हुए भारतीय जनता पार्टी के प्रभुत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन {राजग} छोड़ दिया कि नरेंद्र मोदी सरकार को किसानों के हित की चिंता नहीं है और वह उनके आन्दोलन के प्रति सकारात्मक रवैया नहीं अपना रही। 2014 के बाद से राजग छोड़ने वाली वह उन्नीसवीं पार्टी है, जिसने संभवतः जानबूझकर गठबंधन के घटक दलों के प्रति भाजपा के सर्वग्रासी रवैये को उससे तलाक का कारण नहीं बताया। यह समझना बहुत कठिन नहीं है कि उसे किसानों के मुद्दे को आगे करने में ज्यादा राजनीतिक लाभ की उम्मीद होगी। यकीनन, पंजाब व हरियाणा आधारित शिरोमणि अकाली दल की तरह, जिसने आन्दोलित किसानों के प्रति हमदर्दी जताने के लिए सितंबर में ही राजग से नाता तोड़ लिया था।

हालांकि राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के इस कदम से एक दिन पहले दक्षिण चेन्नई में कमल हासन की मक्कल निधि मय्यम के महासचिव ए. अरुणाचलम ने भाजपा में शामिल होने की यह वजह बताकर कि वे क्या करते, कमल हासन कृषि कानूनों का समर्थन ही नहीं कर रहे थे, सिद्ध कर दिया था कि किसानों के एतराज वाले नए कृषि कानूनों को लेकर देश के राजनीतिक वर्ग में एकता नहीं है और वह दो फाड़ हो चुका है।

इस दो फाड़ का एक सबूत यह भी है कि बिहार में राजग के एक अन्य महत्वपूर्ण घटक जनता दल यूनाइटेड {जदयू} को किसान विरोधी कृषि कानूनों को लेकर कतई गुस्सा नहीं आया। इसके उलट महीने भर पहले भाजपा के समर्थन से फिर से मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार गाहे-बगाहे इन कानूनों का औचित्य ही सिद्ध करते दिखे। वे गुस्से से तब बिलबिलाये जब भाजपा ने अरुणाचल प्रदेश में जदयू के सात में से छह विधायकों को फोड़कर अपनी ओर कर लिया। स्वाभाविक ही राजग के कई दूसरे पूर्व और वर्तमान सहयोगियों की तरह अब उन्हें भी शिकायत है कि भाजपा अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा प्रवर्तित गठबंधन-धर्म का पालन नहीं करती।

यहां गौरतलब है कि भाजपा द्वारा जब तक कुख्यात ‘आपरेशन लोटस’ अपने विरोधी दलों पर आजमाया जाता रहा, जाहिर है कि उनकी सरकारें गिराने और अपनी बनाने के लिए, तब तक उसके गठबंधन सहयोगियों में से किसी की राजनीतिक नैतिकता नहीं जागी। लेकिन अब जब वह राजग के घटक दलों को भी इस आपरेशन से नहीं बख्श रही और छिपा नहीं रही कि सत्ता के ही नहीं, अपने आधार के विस्तार के खेल में भी वह ‘सब कुछ जायज व सब कुछ माफ’ समझती है, तो उनमें खलबली स्वाभाविक है।

बहरहाल, यह उम्मीद तो शायद ही किसी को हो कि भाजपा नीतीश या जदयू के बिलबिलाने का संज्ञान लेगी, लेकिन कई प्रेक्षकों ने यह उम्मीद लगा रखी थी कि अपने छह विधायक गंवाने के बाद शायद नीतीश कुमार का आत्मसम्मान जागे और हनुमान बेनीवाल की तरह वे भी कोई बड़ा फैसला करें। लेकिन दो दिनों तक चली जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में किसी बड़े फैसले का उनका इंतजार इंतजार ही रह गया तो इसका कारण यह है कि हनुमान बेनीवाल के पास राजग छोड़ने की स्थिति में गंवाने के लिए कोई कुर्सी नहीं थी, जबकि नीतीश के पास बिहार जैसे प्रदेश की कमान है।

हम जानते हैं कि बिहार के गत विधानसभा चुनाव में जदयू व भाजपा कुछ अन्य छोटे दलों के साथ गठबंधन कर बमुश्किल बहुमत हासिल कर पाई थीं। उसके बाद जदयू से ज्यादा सीटें पाने के बावजूद भाजपा ने अपने वादे के मुताबिक नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनाकर उन पर जो ‘अहसान’ किया, मजबूरी में ही सही, उसके कारण नीतीश पर उससे बनाकर चलने का दबाव है। वे कह भले रहे हैं कि मुख्यमंत्री बनने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी और उन्होंने भाजपा से कह दिया था कि वह अपना मुख्यमंत्री बना सकती है, लेकिन जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में दो पदों की जिम्मेदारी एक साथ न निभा पाने का वास्ता देते हुए उन्होंने जिस तरह मुख्यमंत्री पद के बजाय पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ा, उससे उनकी वास्तविक प्राथमिकताओं को समझा जा सकता है।

सवाल है कि ऐसे में वे भाजपा के साथ अपने गठबंधन को कैसे छेड़़ या छोड़ सकते हैं, जब तक उसका कोई विकल्प नहीं पा लेते? प्रेक्षक जानते हैं कि ऐसे विकल्प बनाने और पाने की उनकी योग्यता असंदिग्ध ही नहीं, असीम भी है। लेकिन अभी उनके पास दो ही विकल्प बचे दिखते हैं। पहला : वक्त की नजाकत देखकर अपने विधायक तोड़ने की भाजपा की हरकत पर ध्यान न देते हुए मुख्यमंत्री बने रहें और दूसरा : जिन तथाकथित सिद्धांतों और स्वाभिमान की बात वे करते रहे हैं, उनकी खातिर मुख्यमंत्री पद छोड़ दें। यों, एक तीसरा विकल्प यह भी है कि प्रतिद्वंद्वी महागठबंधन की ओर से उन्हें जो अनकहा संदेश भेजा जा चुका है, उसे समझते हुए फिर से उसमें शामिल होकर उसके साथ सरकार बना लें और भाजपा को उसकी करनी का मजा चखायें। वे पहले भी ऐसा पालाबदल कर चुके हैं, इसलिए उनके दोबारा ऐसा करने पर किसी को कोई आश्चर्य नहीं होगा।

लेकिन अभी तो वे अपने गृहजिले नालंदा के स्वजातीय आरसीपी सिंह को जदयू का अध्यक्ष बनाकर यह वाहवाही लूट रहे हैं कि उन्होंने अपने परिवार के बाहर का पार्टी अध्यक्ष बनाकर परिवारवादी पार्टियों को आईना दिखाया है। लेकिन क्या पता इसी से जुड़े इस तथ्य पर गौर कर पा रहे हैं या नहीं कि वे जातिवादी पार्टियों के सिरमौर बन गये हैं। निश्चित ही वे डरे हुए हैं कि कहीं ऐसा न हो कि वे मुख्यमंत्री पद संभालने में ही व्यस्त रह जायें और भाजपा उनके साथ बिहार में भी अरुणाचल जैसा विश्वासघात दोहरा डाले। ऐसे में वे आरसीपी सिंह की प्रशासनिक व सांगठनिक क्षमताओं का लोहा तभी मानेंगे, जब अध्यक्ष के रूप में वे जदयू में किसी भी तरह की फूट न पड़ने दें।

उन्होंने भाजपा से नाराजगी जताते हुए जदयू के प्रवक्ता के. सी. त्यागी से उसे यह नसीहत जरूरत दिलवाई है कि वह अटल बिहारी वाजपेयी के गठबंधन धर्म की अवज्ञा न करे, लेकिन वे इतने नादान कतई नहीं है कि सचमुच यह उम्मीद पाल लें कि भाजपा इस नसीहत पर समुचित ध्यान देगी।

उन्हें मालूम है कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नहीं, भाजपा के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह भी राजग के घटक दलों की शिकायतें नहीं सुनते। उन्नीस घटक दल गंवाने के बाद भी नहीं। क्योंकि उन्हें लगता है कि राजग उसको जितनी जनस्वीकृति दिला सकता था, दिला चुका और अब उसकी भूमिका समाप्त हो गई है। इसलिए उसके घटक दलों को भाजपा की आधार-विस्तार परियोजना की कीमत चुकानी ही होगी-वे राजग के साथ रहकर चुकायें या उससे बाहर जाकर।

जैसे ऊपर जाने के लिए सीढ़ी के इस्तेमाल के बाद कोई उस सीढ़ी को सिर पर लादे नहीं फिरता, तीन सौ तीन लोकसभा सीटों वाली भाजपा का राजग के घटकों को अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार की परियोजना की राह का कांटा मानकर उनके अवांछित व अतिरिक्त बोझ से छुटकारे के फेर में रहने लगना स्वाभाविक है। इसलिए और भी कि वह कई सहयोगी दलों की आधारभूमि तक में उनसे बेहतर स्थिति में पहुंच गई है।

इन हालात में नीतीश कुमार अपने बचे हुए विकल्पों का जैसे भी इस्तेमाल करें, भाजपा के चेहरे, चाल, चरित्र और साथ ही आत्मविश्वास में आये इस ‘बदलाव’ के कहर से खुद को शायद ही बचा पायें।


कृष्ण प्रताप सिंह लेखक और वरिष्ठ पत्रकार हैं। अयोध्या से निकलने वाले अख़बार जनमोर्चा के संपादक हैं।