फ़्रांस में गत शनिवार को फिर एक चर्च पर आतंकी हमला हुआ। एक पादरी को गोली लगी। फ्रांस में आतंकी हमले थम नहीं रहे हैं।किसी -न – किसी शक्ल में अन्यत्र भी जारी हैं। भारत पहले से ही आतंकी महामारी से ग्रस्त है। पिछले दिनों मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री व राजनेता डॉ. महातिर के बयान से आतंकवाद के और हौसले बुलंद होंगे। एक तरह से इसे वैधता मिल जायेगी। इतिहास की कोख में जमा अपराधों का प्रतिशोध लेने का बहाना मिल जायेगा। डॉ. महातिर ने कहा था कि मुसलमानों को नाराज़ होने और लाखों फ्रांसीसियों को मारने का पूरा हक़ है क्योंकि फ़्रांस ने मुसलमानों का भी कत्लेआम किया था। पूर्व प्रधानमंत्री की यह प्रतिक्रिया बेहद गैरज़िम्मेदाराना ,असभ्य और छिछोरी किस्म की है। इस पत्रकार को उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। 1985 में या पत्रकार डॉ. महातिर से भामा की राजधानी नसाऊ में मिल चूका है और उनका सम्बोधन सुन चुका हूं। वे राष्ट्रमंडल -सम्मलेन को सम्बोधित कर रहे थे। तब उनका ज़बरदस्त प्रगतिशील और उपनिवेशवाद विरोधी विचारों की धूम मची थी। लेकिन पिछले सप्ताह के विचारों से वे दकियानूसी व कट्टरवादी ही सिद्ध हुए हैं।
सवाल यहाँ अकेले फ्रांस का नहीं है , आतंकवाद के पटकथा लेखकों का भी है। हम यह सोचने के लिए मज़बूर हैं की आखिर इन भयानक मंज़रों से किसको असली फायदा पहुँच रहा है ,और भविष्य में इसके क्या क्या नतीजे निकलेंगे। वैसे इसका अंतिम फैसला तो इतिहास करेगा। लेकिन जैसी ईबारत सभ्य समाज की इमारत पर लिखी जा रही है उससे सवाल तो पैदा होंगे ही। इनसे हम पलायन नहीं कर सकते।
इतना तो साफ़ है कि आतंकी अपने दम पर कुछ नहीं हैं। वे प्यादे हैं, कठपुतलियां हैं जिनकी डोर अदृश्य उँगलियों से बंधी हुई हैं। उँगलियों के स्वामी अपनी मर्ज़ी से इन्हें धर्म-मजहब, पहचान ,ऐतिहासिक ज्यादतियों -अपराधों के नाम पर नचाते रहते हैं ,विस्फोट कराते रहते हैं। अंध आस्था आतंकवाद की ऑक्सजीन है इसलिए आतंकवादी विवेक की हत्या करके मासूमों की हत्या का कारोबार शुरू कर देते हैं। चूंकि विवेक -विभेद -तर्क कोमा में रहते हैं इसलिए ये परिणामों के बारे में सोचने से परहेज़ करते हैं। उन्हें सिर्फ पटकथालेखकों की प्रायोजित हिदायतें याद रहती हैं जिन्हें वे हिंसात्मक संवादों -कारनामों में प्रदर्शित कर देते हैं।
इन हिंसात्मक कारनामों का सबसे बड़ा और सीधा प्रखर आघात रहे-सहे उदार लोकतंत्र पर ज़रूर पड़ता है। विभिन्न कारणों से एशिया -अफ्रीका -इस्लामी देशों में लोकतंत्र पहले से ही कमज़ोर होता जा रहा है। नस्ल, धर्म, पहचान, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सैन्यवाद के आवरण में अधिनायकवादी प्रवृतियां बढ़ती जा रही हैं। लोकतंत्र औपचारिक वोटतंत्र में क़ैद होता जा रहा है। लोकतंत्र एक जीवन पद्धति या जीवन संस्कार में नहीं ढल सका है। पूर्व साम्राज्यवादी शासक यही चाहते हैं। वे दिखाना चाहते हैं कि पूर्वशासित या गुलाम लोगों में लोकतंत्र का एहसास पैदा नहीं हो सकता। वे स्वव शासन के काबिल नहीं हैं; नागरिक समाज ,मानवाधिकार ,अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, वैज्ञानिक मानस ,संविधान के प्रति आदर जैसी बुनियादी लोकतान्त्रिक शर्तों का पालन नहीं करना चाहते हैं। यह लेखक ऐसी बात क्यों कह रहा है ? इसकी भी ठोस वजह है। 2003 में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर के रणनीतिक सलाहकार रोबर्ट कूपर ने तत्कालीन शासक दल लेबर पार्टी के अधिवेश में एक अवधारणा रखी थी। करीब 30 पेजी अवधारणा में उनका निष्कर्ष था कि पूर्व औपनिवेशिक देशों में लोकतंत्र असफल हो चूका है। इसके भयावह परिणाम निकलेंगे। इसलिए पश्चिमी देशों को चाहिए कि वे “ सुरक्षात्मक साम्राज्यवाद “ ( Defensive Imperialism ) की सोचें .हम साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की काफी आलोचना कर चुके हैं। अब इस ग्रंथि से मुक्त होना चाहिए और सुरक्षात्मक साम्राज्यवाद के सम्बन्ध में सोचना चाहिए , वरना हमारी सभ्यता के लिए संकट पैदा हो जायेगा। रोबर्ट कूपर वहीँ हैं जिन्होंने ब्लेयर को अमेरिकी नेतृत्व में हुए दूसरे खाड़ी युद्ध में कूदने की सलाह दी थी। पिछले सालों में इस मुद्दे पर ब्लेयर की काफी फ़ज़ियत भी हुई थी। लेकिन कूपर की अवधारणा से यह बात तो साफ़ हो जाती है कि वे पिछड़े -विकासशील देशों में विकलांग लोकतंत्र देखना कहते हैं ताकि उन्हें बीती सदियों के ‘साम्राज्यवादी परियोजना ‘ ( Imperialism Project ) को पुनर्जीवित करने का बहाना मिल जाए। ज़ाहिर है यह नए किस्म का होगा जिसमें आर्थिक शक्तियां महत्वपूर्ण या निर्णायक भूमिका निभाएंगी। निभा भी रही हैं। विश्व बैंक , अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी वित्तीय संस्थान पर किसका कब्ज़ा है ? यह सभी जानते हैं। यूरो -अमेरिकी ब्लॉक इन संस्थाओं को हांकते हैं। ज़ाहिर है ये ‘ मुक़्क़मल अमन ‘ कभी नहीं चाहेंगे। ये विभिन्न पोशाकों में नए नए ‘ शत्रु ‘ पैदा करते रहेंगे। इसके लिए प्यादे -कठपुतलियां ज़रूरी हैं।
नेपथ्य में सक्रीय आतंकवाद के सूत्रधार कठपुतली आतंकियों के ज़रिये नफरत , कट्टरवाद और तानाशाही का माहौल दुनिया में पैदा कर रहे हैं। लाज़मी है ऐसे माहौल से किसी-न-किसी वर्ग को फायदा भी पहुँच रहा होगा ! इससे इंकार नहीं किया जा सकता। दुनिया में कुछ भी बेसबब नहीं होता है। अमीर देशों ने ‘ मिलिट्री इंडस्ट्रियल काम्प्लेक्स ‘ किसके लिए बनाया हुआ है ? सोवियत संघ के विघटन के बाद ही ‘ वारसा संधि ‘ समाप्त करदी गई थी लेकिन अमेरिका और उसके मित्र राष्ट्रों ने तीस साल के बाद भी ‘ नाटो ‘ को जीवित रखा है ; ताकि खाड़ी जंग थोपी जा सके ;, अफगानिस्तान पर चढ़ाई की जा सके; अल क़ायदा , तालिबान , इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी तंज़ीमों को पाला-पोसा जा सके और शांत देशों अशांति फैलाई जा सके। इससे हथियार खपते रहेंगे और शस्त्र बाजार गरम रहेगा। हथियारों का सबसे बड़ा निर्यातक देश अमेरिका है। क्या यह सही नहीं है कि आरम्भ में अमेरिका और उसके मित्र देशों ने सद्दाम हुसैन , ओसामा बिन लादेन जैसे तानाशाह व आतंकी को बहु आयामी पनाह दी थी। आज भी आतंकवाद को बड़ी शक्तियों का संरक्षण प्राप्त है।
वास्तव में , आतंकवाद और आतंकियों के सफाया के नाम पर लोकतान्त्रिक सरकारें और सख्त होती जाएँगी ;नागरिक अधिकारों -आज़ादियों पर प्रहार होगा ; राज्य की ज्यादतियों के विरुद्ध होनेवाले आन्दोलनों -प्रतिरोध के स्वरों को दबाया जायेगा ; विभिन्न सुधारों के नाम पर श्रमिकों व अन्य लोगों के अधिकारों को कम किया जायेगा ; राज्य की दंडात्मक कार्रवाई बढ़ेगी ; सरकार विरोध को राज्य विरोध -राष्ट्र विरोध – देश भक्ति से जोड़ेंगे; सैन्यवाद और अर्ध सैन्यबलों को बढ़ावा मिलेगा ; स्वयं को सुरक्षित व सुद्रढ़ करने के लिए शासक वर्ग हर संभव हथकंडे अपनाएगा। संक्षेप में , लोकतंत्र के आवरण में अधिनायकवादी लोकतंत्र को शासन – व्यवहार में लाया जायेगा। यह सिलसिला सार्विक बनता जा रहा है; टर्की ,रूस , चीन , बेलारूस,भारत और अन्य देशों के शासक ( राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री ) इसकी ताज़ातरीन मिसाल हैं। इन देशों में उदारवादी लोकतंत्र दिन-ब-दिन कमज़ोर हुआ है या सिमटता जा रहा है।
तानाशाही में पूंजीवाद अपनी दीर्घकालीन किलेबंदी करता है। राज्य की महत्वपूर्ण सत्ताबुर्ज़ों पर कॉर्पोरेट पूँजी अपने निर्वाचित पहरेदारों को तैनात करती है। कानून की ढाल और धार्मिक राष्ट्रवाद से अपनी काया का राक्षसी फैलाव करती है। आतंकवाद उसका फिलहाल अचूक शस्त्र है। आशंकाएं यह भी है कि कॉर्पोरेट संस्थाएं ‘पारम्परिक राज्य संस्था ‘ को प्रतिस्थापित करने के मंसूबे रखती हैं। वे राज्य का संचालन स्वयं के द्वारा नियुक्त कारकूनों के हाथों में देने के मंसूबे रखती है। इससे लोकतान्त्रिक राजनीति का अवसान काल शुरू हो जायेगा। इन खतरों से आतंकवादी कितने परिचित हैं या नहीं , कहना मुश्किल है। लेकिन उनके हिंसक कारनामों से सभ्य समाज और लोकतान्त्रिक राजनीति व संस्थाओं के लिए ख़तरे निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए आतंकवाद के असली रचियेताओं की पहचान ज़रूरी है। इसके लिए ज़रूरी है हम धर्म-मज़हब-संस्कृति -भाषा से ऊपर उठकर उन्हें बेनक़ाब करें। याद रहे, शासक वर्ग और कॉर्पोरेट पूँजी के बीच एक अदृश्य जिस्मानी रिश्ते रहते आये हैं।आतंकवाद से ये रिश्ते और मज़बूत होंगे. कॉर्पोरेट पूँजी को निर्बाध खेलने का अवसर मिलता रहेगा
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, 4 दशक से भी अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं और राजेंद्र माथुर राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार, शरद जोशी सम्मान समेत गणेशशंकर विद्यार्थी सम्मान से सम्मानित हैं।