मोतिहारी चीनी मिल की चिमनी में भरा है मोदी का धुआँ हुआ वादा!


बिहार की चीनी मिलें हों या जूट उद्योग, सब राम भरोसे है। मिलों का परिसर खंडहर बन चुका है। हर तरफ़ झाड़-झंखाड़ और आवारा पशु दिखते हैं। सरकार का कोई भी मुलाजिम सुध लेने वाला भी नही है । चुनावी माहौल में डूबे बिहार में कुछ नेता उद्योग-धंधों की बात कर रहे हैं लेकिन जब ‘महाबली’ पीएम मोदी का वादा ही टाँय-टाँय फ़िस्स रहा तो फिर उम्मीद जगे भी कैसे?




ऊपर की तस्वीर बिहार के मोतिहारी में बंद पड़ी चीनी मिल की है। बायें एक बाक्स में इस मिल की ठंडी पड़ी चिमनी है और दायें पीएम मोदी की 2015 की मोतिहारी रैली की तस्वीर जिसमें वो इस चिमनी से धुआँ निकालने का वादा कर रहे थे। आज की तरह उनकी लंबी दाढ़ी नहीं थी और ज़्यादा जवान लगते थे, लेकिन चिमनी की उम्र ठहरी हुई है। वह इस उदास परिसर में एक बार फिर मोदी की रैली का इंतज़ार कर रही है। 1 नवंबर को मोदी जी फिर यहाँ आने वाले हैं। चिमनी सोच रही है कि क्या उन्हें अपना वादा पूरा न होने का कोई अफ़सोस होगा, या फिर जुमलों के जाल में इस मिल बंदी का मसला  उलझा देंगे।

बहरहाल, चिमनी की तरह बिहार के दिग्गज नेताओं को कोई अफ़सोस नहीं है।

बिहार के मुख्यमंत्री कह चुके हैं कि यह राज्य समुद्र किनारे नहीं है, इसलिए कारख़ाने नहीं लग पाये। ज़ाहिर है, इस तर्क को हास्यास्पद बताते हुए विपक्ष ने काफी ताना मारा था। इसलिए भी कि जो झारखंड कभी बिहार का हिस्सा था, वहाँ उद्योगों और कारख़ानों की बड़ी तादाद रही है। बहरहाल नीतीश कुमार और उनके सहयोगियों के लिए इस मोर्चे पर की कमज़ोरी का अहसास है, इसलिए चुनाव में इसका ज़िक्र भी उनकी ओर से नहीं होता। हद तो ये है कि जदयू और भाजपा, दोनों के ही संकल्पपत्र से चीनी मिल का मुद्दा भी ग़ायब है जो कभी बिहार के उद्योग परिदृश्य की ख़ास पहचान थीं।

एक समय था जब देश की कुल चीनी का 40 फ़ीसदी उत्पादन अकेले बिहार करता था। अब यह आँकड़ा बमुश्किल चार फ़ीसदी पर अटका हुआ है। बिहार में गन्ना और चीनी का सिलसिला आज़ादी के पहले ही शुरू हो गया था। बिहार में 1940 तक 33 चीनी मिलें स्थापित हो चुकी थी किंतु सरकार की उदासीनता के कारण अब मात्र 28 चीनी मिलें बची हैं। इनमे से सिर्फ 10 मिलें चालू हैं 18 खंडहर में तब्दील हो चुकी हैं। सभी चालू चीनी मिलें, यानी 10 कि 10 निजी क्षेत्र की हैं। बिहार में गन्ने से चीनी का रिकवरी रेट 9% है जो देश की औसत दर 10.36% से कम है।

2014 का लोकसभा चुनाव हो या 2015 का बिहार विधानसभा चुनाव, चीनी मिलों को खोलने के लिए चुनावी मंच से बड़े-बड़े वादे किए गये लेकिन चुनाव खत्म होते ही सरकार अपना वादा भूल गई। 2014 की रैली में जब नरेंद्र मोदी मोतिहारी आये थे तो चंपारण की जनता को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो यहां के लिए उनकी पहली प्राथमिकता होगी चीनी मिल को चालू करवाना, ताकि अगली बार जब आयें तो यहीं के मिल के चीनी की चाय पीकर उसकी मिठास दिल्ली जायें। लेकिन सरकार बनी तो वादा भूल गये। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुबारा मोतिहारी आए ज़रूर चीनी मिल को लेकर ज़ुबान पर दही जमी रही। अब एक बार फिर 1 नंवबर को प्रधानमंत्री मोदी चुनाव प्रचार के लिए मोतिहारी आ रहे हैं। दिलचस्प बात है कि उनकी चुनावी रैली मोतीपुर के बंद पड़ी चीनी मिल परिसर में होने वाली है। इसको लेकर पिछले दिनों नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तंज भी कसा था। तेजस्वी ने कहा था “प्रधानमंत्री जी ने 2014 में बंद मोतिहारी चीनी मिल शुरू कर उसकी चाय पीने की बात कही थी आज छह वर्ष हो गये लेकिन शुरू नहीं कर पाये। अब हम वादा करते हैं कि हमारे मुख्यमंत्री बनने के बाद जब आप मोतिहारी आएंगे तो उसी शुगर मिल की चीनी की चाय आपको पिलाएंगे।”

गौरतलब हो कि आरजेडी नेता तेजस्वी यादव लगातार अपने चुनावी सभाओं में घोषणा कर रहें है कि अगर उनकी सरकार बनती है तो राज्य में बंद पड़े चीनी मिलों को पुनः चालू करेंगे। वही पुलरल्स पार्टी की मुखिया पुष्पम प्रिया चौधरी भी शुरुआत से ही बंद पड़े कल- कारखानों, उद्योग को लेकर नीतीश कुमार उर्फ़ सुशासन बाबू पर निशाना साध रही हैं।

एक तरफ सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात करती है वही चीनी मिलें बंद होने से खेती और किसानी दोनों की कमर टूट गई है। यह दर्द चंपारण, मुजफ्फरपुर, सारण से लेकर बिहार के अनेक क्षेत्रों के किसानों का है जहां पिछले चार दशकों में एक-एक कर एक दर्जन से अधिक चीनी मिलें बंद हो चुकी हैं। पिछले कुछ दशकों में बंद हुई चीनी मिलों में मोतिहारी, चकिया, मुजफ्फरपुर की मोतीपुर चीनी मिल, सारण की मढ़ौरा चीनी मिल , गोपालगंज की हथुआ चीनी मिल, नवादा जिले की वारिसलीगंज, मिथिला क्षेत्र में सकरी और लोहट चीनी मिल, पूर्णिया की बनमनखी चीनी मिल, वैशाली की गोरौल चीनी मिल और गया की गुरारू चीनी मिल शामिल हैं। इन मिलों के बंद होने से हजारों की संख्या में लोग बेरोजगार हुए हैं। साथ ही गन्ने की खेती पर आधारित कृषि व्यवस्था ध्वस्त हो गई है। गन्ने की खेती कर किसान खुशहाल से रहते थे, उन्हें गन्ने की खेती से नकद पैसे मिल जाते थे जिससे परिवार चलाना आसान था । चीनी मिल से अन्य रोजगार भी मिलते थे।

चुनाव के समय सरकारी स्तर पर मिल दोबारा खोलने की बात जोर पकड़ती तो है लेकिन होता कुछ नहीं है । गोपालगंज जिले के हथुआ चीनी मिल को लेकर भी सुशील मोदी, नीतीश कुमार से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने चीनी मिल खोलने के लिए वादे किए लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ नही हो पाया । हथुआ चीनी मिल बिहार की पहली ऐसा चीनी मिल थी, जिसकी चीनी विदेशों में निर्यात की जाती थी। अब इस मिल के कलपुर्जों में ज़ंग लग गया है। हथुआ शुगर मिल में आखिरी बार वर्ष 1996-97 में गन्ने की पेराई हुई थी उसके बाद से यह मिल बंद है । उसी तरह सारण जिले में स्थित मढ़ौरा चीनी मिल को लेकर भी, 2015 के विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री ने अपनी चुनावी सभा में मिल की चिमनी से धुआं उगलवाने का वादा किया था। यहां के बीस हजार से अधिक किसान परिवारों में एक आस जगी थी लेकिन यह वादा भी हकीकत में नही बदल पाया। मढ़ौरा के किसान-मजदूरों का मिल चलने का सपना अब तक पूरा नहीं हो पाया है। 1998 से मढ़ौरा की चीनी मिल भी ठप पड़ा हुई है। चीनी मिल के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हो या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, दोनों ने चुनाव के समय पर जनता को सिर्फ बरगलाने का काम किया।बिहार के पश्चिम चंपारण में स्थित चनपटिया चीनी मिल को लेकर भी नीतीश कुमार ने जनता से खूब वादे किए थे। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी चनपटिया चीनी मिल का मुद्दा जोरों पर है। लगातार स्थानीय नेता चीनी मिल और किसानों के मुद्दे पर सरकार की खामोशी पर सवाल उठा रहे हैं। चनपटिया चीनी मिल में भी ताला लगे तकरीबन 20 वर्ष हो गये हैं।

जूट मिल की नींव में सरकार के वादों का “झूठ”

सरकारी की उदासी का रवैया सिर्फ चीनी मिलों को लेकर नही है। लापरवाही की वजह से जूट उद्योग भी बंद हो चुका है। बिहार के समस्तीपुर जिले के कल्यानपुर विधानसभा क्षेत्र के भागीरथपुर पंचायत में स्थित रामेश्वर जूट मिल बीते तीन वर्ष से बंद है जिसके कारण वहाँ काम करने वाले कामगार बेरोजगार हो गये हैं । हर तरह की कोशिश करने के बाद भी जब मिल नहीं खुली तो वहाँ काम करने वाले लगभग 4 हज़ार कामगारों ने अपने परिवार के साथ मतदान का बहिष्कार करना शुरू कर दिया था।इसके पहले भी वहां के वोटर मतदान का बहिष्कार करते रहें है। कांच घर में सरदार के पद तैनात फूलकांत झा बंद पड़ी मिल के बीच ही 2019 में सेवानिवृत हुए हैं। वे बताते हैं, “पिछले साल रिटायर हुए है लेकिन अभी तक कागज़ (दस्तावेज़) नहीं मिला। 2017 से मिल भी पूर्ण रूप से बंद है और तबसे भटक रहे है। न रोजी-रोटी की जुगाड़ है और न ही कोई मैनेजमेंट ही है। कोई काम भी नहीं मिलता। मिल में काम करने वाले सेवानिवृत्त लगभग 500 कर्मियों का बकाया वेतन और पीएफ तक का भुगतान तक लंबित है।”

आगे वे कहते हैं, “मिल में काम करने वालों की संख्या 4 हज़ार से अधिक हैं। जबकि इस क्षेत्र में लगभग 20 हज़ार ऐसे वोटर हैं, जो मतदान का बहिष्कार करते हैं। जूट मिल के कामगारों ने इस चुनाव का भी खुलकर बहिष्कार किया।” वोट न देने के सवाल के जवाब में विनोद पासवान कहते हैं, “वोट कैसे देंगे! जब हमारा रोजी-रोटी ही नहीं चलेगा तो वोट क्यों गिराएंगे ! इसीलिए हमलोग वोट का बहिष्कार करते हैं।” उन्होंने कहा “इस बार भी हम लोग वोट नहीं करेंगे क्योंकि मिल चालू ही नहीं है तो पेट कैसे भरेगा।” मिल में काम करने वाले एक अन्य शख्स कहते हैं, “यहाँ सिर्फ ऐसे पार्टी या प्रत्याशी को वोट दिया जायेगा, जो पूर्णतः सुचारु रूप से मिल को चलवायेगा। यहाँ के लोगों के पेट का भरण-पोषण हो सके इसीलिए वैसे ही पार्टी के लोगों का समर्थन किया जा सकता है। यहाँ के लोगों के रोजगार का मुख्य स्रोत ही जूट मिल है। इसे ही बंद कर दिया गया है। जिसका प्रभाव लगभग 4 हज़ार परिवारों पर पड़ा है। इसीलिए पंचायत के लोगों ने सामूहिक निर्णय लेकर चुनाव का बहिष्कार किया हैं।” आगे वे कहते हैं, “आवाज़ उठाने वाले कई नेता-पार्टी आये लेकिन मिल का सायरन सिर्फ चुनाव के समय ही बजता है।”

हालाँकि अधिकारिक तौर पर पिछले ही महीने यानी 12 सितम्बर से मिल चालू है लेकिन मिल में काम करने वाले विनोद पासवान का कहना हैं,” कहने के लिए चार मिस्त्री लगा दिया गया है। इधर दो और उधर दो, और कह रहे हैं कि मिल चालू है। कच्चा माल मंगाया ही नही जा रहा है तो क्या उम्मीद की जा सकती है! महज़ चुनाव के कारण ही यह सीटी बजाई गई है, नहीं तो पांच साल से कहाँ थे वह मंत्री जी! उस कुर्सी पर तो वे ही बैठे थे न! अब वोट लेने की बारी आई तो बिगुल फूँकने आयें हैं।”

गौरतलब है, जूट मिल का यह क्षेत्र कल्यानपुर विधानसभा में आता है जहाँ से विधानसभा सदस्य के रूप में महेश्वर हजारी को जनता ने चुनकर भेजा हैं, जो राज्य सरकार में उद्योग मंत्री भी हैं। इसके बावजूद इस मिल का हाल यह है तो राज्य के बाक़ी उद्योगों के हाल का अंदाज़ा बख़ूबी लगाया जा सकता है।

बिहार की चीनी मिलें हों या जूट उद्योग, सब राम भरोसे है। मिलों का परिसर खंडहर बन चुका है। हर तरफ़ झाड़-झंखाड़ और आवारा पशु दिखते हैं। सरकार का कोई भी मुलाजिम सुध लेने वाला भी नही है । चुनावी माहौल में डूबे बिहार में कुछ नेता उद्योग-धंधों की बात कर रहे हैं लेकिन जब ‘महाबली’ पीएम मोदी का वादा ही टाँय-टाँय फ़िस्स रहा तो फिर उम्मीद जगे भी कैसे?

 

बेतिया निवासी हर्षित श्रीवास्तव मीडिया विजिल के इंटर्न हैं।