1 जून को अख़बारों की सुर्ख़ी थी कि भारत की जीडीपी विकास दर गिरकर 6.1 फ़ीसदी हुई। इसी के साथ भारत से सबसे तेज़ी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था का तमगा छिन गया। जानकारों ने इसके लिए नोटबंदी को ज़िम्मेदार ठहराया।
लेकिन 2 जून को सारे अख़बारों में भारी भरकम सरकारी विज्ञापन छपा। इसमें दावा किया गया कि भारत की जीडीपी विकास दर 7 फ़ीसदी से ज़्यादा है और यह दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है।
जिस पैमाने पर यह विज्ञापन दिया गया है, उसपर हज़ारों नहीं तो सैकड़ों करोड़ का ख़र्च स्वाभाविक है। यह मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर जारी विज्ञापन अभियान का एक हिस्सा ही है।
लेकिन…
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जो गाइडलाइन जारी की थीं, उसका यह साफ़ उल्लंघन है। कोई भी सरकार गलत तथ्य का विज्ञापन नहीं कर सकती।
तो क्या इस विज्ञापन का ख़र्च मंत्रियों और अधिकारियों की जेब से नहीं वसूला जाना चाहिए ? आख़िर जनता के टैक्स से फ़र्ज़ी विज्ञापन देने का और क्या दंड हो सकता है ? और इससे भी बड़ी बात यह कि मीडिया के लिए यह मुद्दा क्यों नहीं ? जिन अख़बारों और चैनलों ने एक दिन पहले ही विकास दर के गिरने की ख़बर छापी थी, वे दूसरे दिन अपनी ही ख़बर को काटने वाले विज्ञापन को इतन बेहिचक होकर कैसे छाप सकते हैं…..?
माना कि विज्ञापन से पैसे मिलते हैं, पर अख़बार के किसी और पन्ने पर इस फ़र्ज़ीवाड़ की ख़बर क्यों नहीं ?
सबकुछ मीडिया विजिल ही नहीं कर सकता यारों…कुछ तुम भी करो !
बर्बरीक