हाथरस गैंगरेप: क्या दलितों पर अत्याचार की समाज को आदत पड़ चुकी है?

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भारत में गणतंत्र बनने के साथ ही महिला और पुरुष की समानता का सिद्धांत स्थापित हुआ। संविधान, सदियों से महिलाएं जिस असमानता की विरासत को ढो रही थी, उससे आजादी का मार्ग प्रशस्त करता है। सदियों से जातिगत आधारित दमन का सिलसिला जो चला रहा था उसको भी वैधानिक रूप से समाप्त करने का आधार भी निर्मित करता है भारत का संविधान। परंतु न समानता स्थापित हो पाई और ना ही जाति आधारित दमन को समाप्त किया जा सका। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा भी था कि संविधान चाहे जितना अच्छा हो अगर उसको संचालित करने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे तो उसका प्रभाव शून्य होगा।

इन सब को प्रमाणित करता है राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) जिसके अनुसार 2018 में बलात्कार के 1,56,327 मामलों में मुकदमे की सुनवाई हुई, इनमें से 17,313 मामलों में सुनवाई पूरी हुई और सिर्फ 4,708 मामलों में दोषियों को सजा हुई। आंकड़ों के मुताबिक 11,133 मामलों में आरोपी बरी किए गए जबकि 1,472 मामलों में आरोपियों को आरोपमुक्त किया गया। एनसीआरबी की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश अपराधों के मामलों में नम्बर वन पर है। अगर आज एनसीआरबी 2020 की रिपोर्ट आ जाये तो उत्तर प्रदेश विश्व में सबसे अधिक अपराध घटित होने वाला प्रदेश होगा। इन आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि केस की पूरी सुनवाई करने में न्यायपालिका सक्षम सिद्ध नहीं हो रही है।

हाथरस की घटना योगी सरकार के दावों पर प्रश्नचिन्ह लगाती है कि महिला सुरक्षा को लेकर काफी सुधार हुए हैं। हाथरस में 19 साल की लड़की से 4 दबंगों ने गैंगरेप किया, जुबान काट दी गई और रीढ़ की हड्डी तोड़ दी । पुलिस ने मामले को दबाने की कोशिश की। शुरुआत में मीडिया ने कोई आवाज नहीं उठाई, न सरकार ही सक्रिय हुई।  महिला आयोग के लिए भी शुरू में यह  घटना संज्ञान लेने लायक़ नहीं थी जो कंगना के मुद्दे पर तुरंत सक्रिय हो उठा था। हिंदू संगठन और समाज के लिए यह कोई घटना ही नहीं थी।

ऐसा लगता है कि दलितों के खिलाफ होने वाले अपराध से किसी को कोई खास फर्क नहीं पड़ता। क्या दलितों के खिलाफ होने वाले अपराध की हमें आदत पड़ चुकी है? सभ्य समाज में दलितों के लिए कोई जगह नहीं है? क्या दलित समाज पीड़िता को न्याय दिला पाएगा?

एससी एसटी एक्ट का विरोध करने वालों के मुंह पर तमाचा है पीड़ित लड़की की एक सप्ताह से ज्यादा समय तक एफ आई आर दर्ज नहीं हुई। स्थानीय स्तर पर मामले को भी हल करने का प्रयास किया गया जो जाति दबंगता का नंगा नमूना था। भारत का सभ्य समाज जो अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व महसूस करता है, उनका गर्व क्यों नहीं घटनाओं पर जाग पाता? सारा खेल जाति का है। जिस दिन खेल से जाति निकल जाएगी और हमें नागरिक होने का गर्व होगा, शायद उस दिन कुछ बदलाव की बयार भी नजर आए।

 

यह लेख शोधार्थी और सामाजिक कार्यकर्ता टीना कर्मवीर राजनीतिक विश्लेषक मनोज ने लिखा है।

 

 



 


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