एंडी मुखर्जी का एक विश्लेषण ब्लूमबर्ग न्यूज़ पर छपा है जिसका हिन्दी में सार संक्षेप दैनिक भास्कर ने छापा है। यह लेख बता रहा है कि कैसे टेलीकॉम सेक्टर में 2016 में अंबानी के कदम रखते ही टेलीकॉम सेक्टर के कई खिलाड़ी आउट हो गए। प्रतियोगिता में टिक नहीं पाए। इस सेक्टर में Duopoly रह गया है। तीसरी कंपनी वोडाफ़ोन अदालत की तरफ़ देखकर साँसें गिन रही है। भास्कर ने ऐसे लेख को छाप कर अच्छा किया है। पूरा छापना चाहिए था। ताकि पाठकों को डिटेल जानकारी मिलती।
भारत संचार निगम लिमिटेड वाले जानते होंगे कि एक समय कई हज़ार करोड़ का मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनी कैसे ख़त्म की गई। उससे कहा गया कि आप 2G से 4G का मुक़ाबला करो। इस फ़ैसले से किसे लाभ हुआ BSNL के लोग जानते थे मगर हिन्दू मुसलमान की राजनीति ने कइयों के विवेक पर गोबर लीप दिया था। आप यह नहीं पूछ सकते कि एयरटेल जियो से प्रतियोगिता क्यों नहीं कर पाई लेकिन यह तो पूछ सकते हैं कि BSNL को बर्बाद कैसे और किसके लिए किया गया?
एंडी मुखर्जी ने दूसरा उदाहरण दिया है एविएशन सेक्टर का। जब छह एयरपोर्ट की नीलामी हुई तो अडानी को दिया गया। यहाँ पर आयकर दाताओं के पैसे की बात किसी ने नहीं की। एयरपोर्ट बनेगा जनता के पैसे से और बन जाने के बाद चलेगा अडानी के पैसे से। तो अडानी ही एयरपोर्ट बना लेते। ख़ैर इस फ़ैसले को लेकर केरल सरकार नाराज़ हो गई है। बाक़ी सरकारें चुप रहीं। केरल सरकार ने कहा कि तिरुवनंतपुरम एयरपोर्ट को अडानी की जगह राज्य सरकार को दें। राज्य विधानसभा ने इसके ख़िलाफ़ प्रस्ताव भी पास किया है। तब भी चुप्पी है।
इस ढहती अर्थव्यवस्था में अंबानी और अडानी तरक़्क़ी की नित नई कहानी लिख रहे हैं। बाक़ी क्यों नहीं लिख पा रहे हैं?
क्या बाक़ी उद्योगपतियों को बिज़नेस करना अब नहीं आता है? या बाक़ी बिज़नेसमैन को चुप रहने का बिज़नेस सीखा दिया गया है? ये तो वही बता सकते हैं कि 2014 के पहले पत्रिकाओं के कवर पर टायकून अफलातून बन कर छपा करते थे अब कवर से ग़ायब क्यों हैं? कारकुन (एजेंट) की तरह भी नाम नहीं आता। अंबानी और अडानी को एक बिज़नेस स्कूल खोलना चाहिए। उस स्कूल में उन टायकूनों को कोर्स कराना चाहिए जिन्हें वे पछाड़ चुके हैं। ताकि वे भी सीख सकें कि अंबानी और अडानी क्यों सफल होते है।
व्यापक संदर्भ में देखें तो भारत में बग़ैर सरकारी मदद के और टैक्स के पैसे के दम के बहुत कम उद्योगपति हैं जो अपना कारोबार खड़ा कर पाए हैं। सरकार का इशारा जिस तरफ़ हो जाए उस तरफ़ नई कंपनी बन जाती है। ज़िला से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर यही पैटर्न है। सोचिए मेरठ में बीजेपी का नेता NCERT की जाली किताबें छाप रहा था। 35 करोड़ की किताबें। इससे एक आदमी के पास कितना पैसा आ गया। वही आगे चलकर कंपनी खोलेगा। स्कूल खोल लेगा। उसकी समृद्धि स्थायी हो जाएगी। आराम से राष्ट्रवाद पर ज्ञान देता हुआ महँगी कार में घूमेगा।
उदाहरण बीजेपी का दिया क्योंकि यह पार्टी विश्व गुरू भारत और नए भारत की बात करती है। इसका मतलब यह नहीं कि सूट बूट की सरकार यानी मोदी सरकार पर चंद उद्योगपतियों के लिए काम करने का आरोप लगाने वाली कांग्रेस पार्टी ऐसे सिस्टम को उखाड़ फेंकती हो। ऐसा नहीं है। राहुल गांधी बोलते तो हैं मगर होता नहीं दिखता। राहुल भी नाम लेकर कम बोलते हैं। कहने का मतलब है कि डिटेल के साथ कि वे कौन से चंद उद्योगपति हैं जिनके लिए या जिनके ज़रिए अपने लिए मोदी सरकार काम करती है। इसलिए ऐसे विषयों पर राजनीतिक बहस नहीं हो पाती है। सारी बातों के साथ स्वस्थ बहस नहीं हो पाती है।
राहुल ने इस पर ठोस सोचा है तो उन्हें और खुलकर बोलने का साहस करना चाहिए। मगर भारत का अर्थतंत्र रहस्यों के नेटवर्क पर खड़ा है। छोटे कारोबारी से लेकर बड़े उद्योगपति के पास नीतियाँ बदलवाने से लेकर रिश्वत देने के अनगिनत अनुभव और क़िस्से होंगे। वे यह भी जानते हैं अगर नियमों पर चलने वाला निष्पक्ष सिस्टम होता तो उनकी पूँजी ईमानदार होती और वे और बड़ा बिज़नेस खड़ा कर सकते हैं। सब इस चक्र में फँसे हैं।
एंडी मुखर्जी का लेख पढ़ें। भास्कर ने छाप कर बहस आगे बढ़ा दी है। आप भी शामिल हों और भविष्य का अंबानी और अडानी बनें। तथास्तु।
रवीश कुमार, जाने-माने टीवी पत्रकार हैं। संप्रति एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।