हिमाँशु वाजपेयी पक्के ‘लखनउवा’हैं। शुरुआत पत्रकारिता से की थी। न्यूज़ चैनल का भी अनुभव रहा और लंबे समय तक तहलका में क़लम का जौहर दिखाते रहे। पर दिल के वलवले चैन ना लेने दे रहे थे तो वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय पहुँच गए रिसर्च करने। विषय भी लखनऊ के इतिहास की एक मुकम्मल दास्तान से जुड़ा है-मुंशी नवल किशोर प्रेस।
हिमाँशु की एक पहचान दास्तानगोई भी है। वे फिर से उभर रही इस विधा के चेहरे बतौर उभर रहे हैं। उसी का एक नमूना इस वीडियो में दिखता है जिसमें हिमाँशु लखनऊ की होली के तमाम रंग सामने रख रहे हैं। सत्ता का मिज़ाज जो हो, अवध की होली इकरंगी कभी नहीं हो सकती,इस बात पर यक़ीन बढ़ता है। यह भी कि हिमाँशु पत्रकारिता ना करके बेहतर कर रहे हैं…
(अगर आप इसमें इस्तेमाल शायरी को पढ़ना चाहते हैं तो वीडियो के नीचे जाएँ)
होली खेले आसफुद्दौला वजीर,
रंग सौबत से अजब हैं खुर्दोपीर
आओ साथी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियां लाई
जिस तरफ देखो मार्का सा है
शहर है या कोई तमाशा है
मीर तक़ी मीर
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भर के पिचकारी वो जो है चालाक
मारती है किसी को दूर से ताक
किसने भर के रंग का तसला
हाथ से है किसी का मुंह मसला
जिसने डाला है हौज़ में जिसको
वो यह कहती है कोस कर उसको
ये हंसी तेरी भाड़ में जाए
तुझको होली न दूसरी आए’
सआदत यार ख़ां रंगीन
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होली शहीद-ए-नाज के खूं से भी खेलिए
रंग इसमें है गुलाल का बू है अबीर की
-आतिश
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होली तन मन फूँक रही है दूर सखी गिरधारी है
दिल भी टुकड़े टुकड़े है और ज़ख्म ए जिगर भी कारी है
हाय अकेली खेल रही हूँ सारी डूबी सारी है
खून ए तमन्ना रंग बना है आँखों की पिचकारी है
बासित बिस्वानी
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गोकुल बन में बरसा रंग
बाजा हर घर में मिरदंग
हर इक गोपी मुस्काई
हिरदय में बदरी छाई
जोश मलीहाबादी
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छाई हैं हर इक सिम्त जो होली की बहारें
पिचकारियां ताने वो हसीनों की कतारें
हैं हाथ हिना रंग तो रंगीन फुवारें
इक दिल से भला आरती किस किस की उतारें
चंदन से बदन आबे गुले शोख से नम हैं
सौ दिल हों अगर पास तो इस बज्म से कम हैं
सागर ख़य्यामी
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ईमां को ईमां से मिलाओ
इरफां को इरफां से मिलाओ
इंसां को इंसां से मिलाओ
गीता को कुरआं से मिलाओ
दैर-ओ-हरम में हो न जंग
होली खेलो हमरे संग!
-नाज़िर खय्यामी