लखनऊ की उर्मिला श्रीवास्तव कैंसर से पीड़ित थीं. उनके दांत में अचानक दर्द उठा तो परिवार वाले उन्हें लोकल हॉस्पिटल ले गए, लेकिन वहां भी उनके दर्द का कुछ न हो सका. इसके बाद उन्हें लखनऊ मेडिकल कालेज ले जाया गया तो वहां पता चला उन्हें कैंसर हुआ है. वहां उनके दांत की सर्जरी हुई, फिर कीमोथेरेपी हुई, लेकिन इससे भी कुछ नहीं हो पाया. उर्मिला के बेटे नीरज बताते हैं, “इसके छह महीने के बाद ही वो कोलैप्स (मृत्यु) हो गईं.”
भारत में हार्ट अटैक के बाद सबसे ज्यादा मौतें कैंसर से होती हैं. अमेरिका और चीन के बाद भारत में सबसे ज्यादा कैंसर के मरीज़ हैं. पिछले 26 साल में भारत में कैंसर के मरीजों की संख्या दोगुनी हो गई है. एक वेबसासाइट कैंसरइंडिया डॉट ओआरजी के मुताबिक 2018 में लगभग 784821 लोगों की मौत कैंसर से हुई और अनुमानतः 25 लाख से ज्यादा लोग इस जानलेवा बीमारी से जूझ रहे हैं.
6 दिसंबर 2019 को लोकसभा में केंद्रीय मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने बताया था, “2018 में 15.56 लाख कैंसर के केस रजिस्टर हुए.” दूसरी रिपोर्ट्स के आंकड़े कुछ और ही बताते हैं. स्वास्थ्य संगठन इंटरनेशनल एजेंसी फ़ॉर रिसर्च ऑन कैंसर के मुताबिक 2018 में भारत में लगभग 99 लाख कैंसर के मरीज पाए गए और 62 लाख लोगों की इसी वजह से मृत्यु हुई.
जागरूकता की कमी
प्रत्येक साल 4 फरवरी को अंतराष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण संघ विश्व कैंसर दिवस के रूप में मनाता है जिसका मुख्य कारण होता है लोगों में आत्मविश्वास और जागरूकता पैदा करना. इस बार विश्व कैंसर दिवस का थीम था “आई एम एंड आई विल”. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कैंसर की बीमारी विकसित देशों की तुलना में अधिक विकासशील देशों में पाई जाती है. भारत में इसकी स्थिति और दयनीय है. यहां अधिकतर लोग बीमारी के आखिरी स्टेज में जान पाते हैं कि वो कैंसर जैसे प्राणघातक रोग से जूझ रहे हैं और समय पर इलाज न हो पाने से ये बीमारी अक्सर आत्मघाती हो जाती है.
नीरज बताते हैं, “माँ के दांत में अचानक दर्द शुरू हुआ तब हम पहली बार देखे कि दांत से खून निकल रहा है. ये देख हम लोग उन्हें जल्द ही डेंटिस्ट के पास लेकर गए. वहां उनकी डायग्नोसिस हुई, तो हमें पता चला कि उन्हें कैंसर है, जो लास्ट स्टेज तक पहुँच गया है.”
एक वेबसाइट onco.com की एक रिसर्च के मुताबिक देश में जो लोग कैंसर का इलाज करवा रहे हैं उनमें से 83 प्रतिशत लोग पूर्णतः सही ट्रीटमेंट नहीं ले पा रहे हैं. चौकाने वाली बात यह है कि इनमें से भी 15 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो पूरी तरह से गलत इलाज करवा रहे हैं. कैंसर के दौरान मरीज मानसिक और शारीरिक दोनों स्तर पर जूझता है. कैंसर के आखिरी स्टेज में जब पता चल जाए कि इसका कोई इलाज संभव नहीं है तो मरीज को प्रशामक देखभाल (पैलिएटिव केयर) की ज़रूरत होती है.
पैलएटिव केयर बीमार लोगों को शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक और सामाजिक देखभाल प्रदान करता है.
क्या है पैलिएटिव केयर?
वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन के मुताबिक, “पैलिएटिव केयर एक बहु-अनुशासनात्मक दृष्टिकोण है जो मरीज के प्राणघातक बीमारी के दौरान होने वाले कष्ट को कम कर जीवन में सुधार करता है.” आसान शब्दों में कहें तो पैलिएटिव केयर उसी मरीज को दिया दिया जाता है जिसकी स्थिति में सुधार की बहुत कम गुंजाइश रहती है ताकि उसके अंतिम समय को कम कष्टमय बनाया जा सके.
पैलिएटिव केयर पर पीएचडी करने वाली और वेस्ट बंगाल स्टेट यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर डॉ. मीनाक्षी बिस्वास के अनुसार, “प्रशामक देखभाल (पैलिएटिव केयर) सम्पूर्ण देखभाल करने की विधि है जो न केवल उन्नत कैंसर वाले रोगियों के शारीरिक दर्द को कम करने की कोशिश करता है बल्कि इससे लड़ने में भी मदद करता है.”
पैलएटिव केयर की दयनीय स्थिति
देश में पहले पैलिएटिव केयर सेंटर की स्थापना मुम्बई में हुई. भारत में अभी तक पैलिएटिव केयर को लेकर कोई राष्ट्रव्यापी योजना नहीं बनाई गई है. देश में केरल और कर्नाटक ही ऐसे राज्य हैं जहां पैलएटिव केयर को लेकर प्रादेशिक योजना है. 2015 में महाराष्ट्र सरकार ने इसको लेकर एक ड्राफ्ट भी तैयार किया था लेकिन यह योजना अधर में ही लटक गई.
एक रिसर्च के मुताबिक देश भर की 130 पैलएटिव केयर सर्विस में से 83 केरल में मौजूद हैं. केरल, कर्नाटक, तामिलनाडु में ही अकेले देश के 90 फीसद प्रतिशत पैलिएटिव केयर सेंटर हैं.
केरल में पैलिएटिव केयर की स्थिति बाकी राज्यों से क्यों अच्छी है, इस पर मीनाक्षी कहती हैं, “केरल का मामला देश के बाकी जगहों से बहुत भिन्न है. मेरे हिसाब से केरल के लोगों की मजबूत इच्छा शक्ति, लगनशील सामुदायिक स्वयंसेवक और राज्य सरकार की सहयोगात्मक नीति के वजह से ही वहां पैलिएटिव केयर पॉलिसी बनायी जा सकी और जमीन पर प्रभावी भी हो सकी है.”
इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (EIU) के गुणवत्ता मृत्यु सूचकांक के अनुसार दुनिया भर के 80 देशों में भारत 67वें स्थान पर है, जहां कैंसर के मरीज़ों का अंतिम समय बहुत कष्टप्रद रहता है. उर्मिला के भतीजे साहित्य बताते हैं, “अंत में आंटी की दांत सूज गई थी. उन्हें बहुत दर्द हो रहा था लेकिन हमलोग कुछ नहीं कर पा रहे थे”.
भारत में कोई नियमित पेन मैनेजमेंट पॉलिसी न होने के वजह से कई मरीज दर्द से बचने के लिए आत्महत्या तक कर लेते हैं. क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (2015) के हिसाब से 2015 में देश में 133623 लोगों ने आत्महत्या की जिसमें से 15.8 फीसद लोगों ने बीमारी और कमजोरी की वजह से आत्महत्या की. पैलिएटिव सेंटर की देश में कमीं और व्यवस्थित पेन मैनेजमेंट न होना इस स्थिति को और भयावह बना रहा है.
बंगलुरु स्थित किदवई मेमोरियल इंस्टिट्यूट कर्नाटक का पहला कैंसर संस्थान है. शुरुआती दौर से ही वहां मरणासन्न पड़े मरीजों के दर्द को कम करने के लिए मॉर्फिन (फ्री) दिया जाने लगा. न्यू इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक वहां सालाना 10 से 12 किलो मॉर्फिन की खपत होती है.
महंगा इलाज
पैलिएटिव केयर कोई भी व्यक्ति ले सकता है जो कठिन बीमारी से जूझ रहा है लेकिन एक आंकड़े के मुताबिक इसको लेने वाले 80 फीसद मरीज कैंसर पीड़ित ही हैं. मैक्स हॉस्पिटल में हृदय विभाग के निदेशक डॉक्टर केवल कृष्णा के अनुसार, “अधिकतर लोगों को कैंसर का पता स्टेज 4 और स्टेज 5 में लगता है. उसमें से 10 फीसद कैंसर के पीड़ित अस्पताल पहुँचते हैं और उसमें से भी 5 से 10 प्रतिशत लोग ही कैंसर के ट्रीटमेंट की होने वाले खर्च को उठा पाते हैं.”
एक सर्वे ‘इकोनॉमिक बर्डेन ऑन कैंसर इन इंडिया’ के मुताबिक केवल 20 से 30 प्रतिशत लोग ही कैंसर से स्टेज 1 और स्टेज 2 में डाइग्नोज़ होते हैं. कैंसर का इलाज इतना महंगा है कि 40 फीसद भारतीय कैंसर के इलाज के लिए उधार लेते हैं या अपनी संपत्ति को गिरवी रख देते हैं.
एनएसओ की एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में 51.9 फीसद और शहरी इलाकों में 61.4 फीसद स्वास्थ्य व्यय लोग प्राइवेट अस्पताल में करते हैं और एक प्राइवेट अस्पताल में सरकारी अस्पताल की तुलना में खर्चे की लागत सात गुना ज्यादा होती है.
सरकार क्या कर रही है?
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के तहत कैंसर की बीमारी को 2025 तक 25 फीसद तक कम कर देने का टारगेट रखा गया. कैंसर की भयावहता से भारत सरकार भी वाकिफ़ है. पिछले विश्व कैंसर दिवस पर प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया था, “आयुष्मान भारत योजना के तहत कैंसर से पीड़ित मरीजों को क्वालिटी हेल्थकेयर देने के लिए दृढ़संकल्पित हैं.”
आयुष्मान भारत योजना के तहत एक निर्धारित रेखा से ऊपर रहने वाले 10 करोड़ व्यक्तियों को सालाना 5 लाख का बीमा मिलता है, जिसके आधार पर 1350 तरह की बीमारियों का इलाज हो सकता है. इस पॉलिसी में कैंसर भी शामिल है. इसके अंदर कीमोथेरेपी, दवाई, जांच का खर्च भी आएगा.
वेबसाइट इंडियास्पेंड के अनुसार, 20 दिसंबर 2019 तक आयुष्मान भारत योजना ने पूरे देश में लगभग 70 लाख लोगों को कवर कर किया है. डॉक्टर केवल कृष्ण बताते हैं, “देश में सांसदों के पास हेल्थ फण्ड के तहत 80-90 फीसद पैसे कैंसर और हृदय संबंधित बीमारियों के लिए ही जा रहा है.” आयुष्मान भारत से क्या कैंसर के मरीजों की स्तिथि में बदलाव आएगा इसपर वो कहते हैं, “इससे बीमारी का खर्च लोग वहन कर सकते हैं. मेरे हिसाब से 30-40 फीसद लोगों को इससे मदद ज़रूर पहुंचेगी.”
कैंसर के महंगे खर्च से बचने के लिए और इसे और जनसुलभ बनाने के लिए भारत सरकार ने बीते साल 8 मार्च को कैंसर से सम्बंधित 400 दवाइयों के दामों में मूल्य निर्धारण के तहत कटौती भी की.
आयुष्मान भारत से कैंसर के मरीजों को कितनी परेशानी कम हुई इसकी कोई स्पष्ट जानकारी अभी नहीं है. कई ऐसे घटनाएं हैं जो इस पॉलिसी को तनिक सन्देह के घेरे में डालती हैं. हाल ही में एक खबर आई थी कि देहरादून की मोना को ब्रेस्ट कैंसर था, जब वह इलाज के लिए हिमालयन हॉस्पिटल पहुंची तो वहां उनका इलाज नहीं हो सका. कारण सिर्फ यह था कि हिमालयन में योजना के तहत इलाज संभव है लेकिन जांच नहीं.
हमें यह जान लेना चाहिए कि आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा है और बीमा के मामले में देश की स्थिति बहुत ही खराब है.
कितने लोग कराते हैं बीमा?
भारत सरकार द्वारा किये गए एक सर्वे ‘सामाजिक उपभोग के मुख्य स्वास्थ्य संकेतक’ के अनुसार, देश में केवल 10 प्रतिशत लोगों के पास ही कोई प्राइवेट या सरकारी बीमा है. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन के राष्ट्रीय सर्वेक्षण कार्यालय (एमएसओ) के अनुसार देश में 14.1 फीसद लोग (ग्रामीण इलाके) और 19.1 फीसद (शहरी इलाके) ने ही कभी न कभी बीमा लिया था.
ये आंकड़े भारतीय स्वास्थ नीति निर्धारण की स्थिति को सुस्पष्ट कर देते हैं.
लेखक पत्रकारिता के छात्र हैं और जामिया मिलिया से मास मीडिया में स्नातक कर रहे हैं