कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट ‘टाइम टू केयर’ का हवाला देते हुए मोदी सरकार पर आरोप लगाते हुए ट्वीट किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के ग़रीबों से धन चूस कर अपने उन धनकुबेर दोस्तों को दे रहे हैं, जिन पर वे निर्भर हैं. राहुल गांधी का यह आरोप सही है, परंतु यह पूरा सही नहीं है.
Modi extracts wealth from 🇮🇳 poor & gives it to his crony capitalist friends & the big power brokers he's dependent on.
1% of India's super rich, now own 4 times more wealth than 1 Billion of India’s poor. https://t.co/GkYaGdHViV
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) January 20, 2020
देश में जो विषमता, निर्धनता और वंचना का भयावह रूप आज हमारे सामने है, वह बहुत हद तक उन नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों का नतीजा है, जो कांग्रेस की सरकार ने 1991 में लागू किया था और उसकी शुरुआत राजीव गांधी सरकार के समय से हो गयी थी. इन नीतियों को भाजपा का पूरा समर्थन मिला था. इन नीतियों की पैरोकारी करते हुए आडवाणी ‘टीना फ़ैक्टर’ का जुमला देते थे. राव-मनमोहन की जोड़ी के काम को अटल-आडवाणी ने आगे बढ़ाया और उसे ऊँचाई दी मनमोहन-चिदंबरम ने. मोदी-शाह-जेटली की तिकड़ी ने उसे आज के हालात तक पहुँचा दिया. इन नीतियों को तमाम राज्य सरकारों का भी साथ मिला, जो वाम, दक्षिण, उदारवादी, सामाजिक न्यायवादी, क्षेत्रीय अस्मितावादी आदि आदि अपने को कहती थीं.
दिलचस्प है कि भारत समेत दुनियाभर में धुर-दक्षिणपंथ ने इन्हीं वंचनाओं का बहाना बनाकर अपनी राजनीति का विस्तार दिया है. यह इतने बुरे निकले हैं कि बहुतों की नज़र में नव-उदारवादी भले लगने लगे हैं. लेकिन किसी भ्रम में रहने की ज़रूरत नहीं है. कल ही दावोस में उस आयोजन के मुखिया ने दुनियाभर के एलीटों के सामने अमेरिकी राष्ट्रपति और धुर दक्षिणपंथ के मसीहा डोनाल्ड ट्रंप से कहा कि उनकी नीतियों से अमेरिका समावेशी बन रहा है. कहने का मतलब यह है कि धुर दक्षिणपंथी और नव-उदारवादी एक-दूसरे के साथ गठजोड़ में हैं.
हमारे देश में स्थिति इतनी ख़राब हो चुकी है कि हम में से कई स्टॉकहोम सिंड्रोम के शिकार हो गए हैं और उन्हीं से बचाव की उम्मीद कर रहे हैं, जिनकी वजह से डूब रहे हैं. विषमता केवल संपत्ति और आमदनी की नहीं है, संसाधनों और सुविधाओं की पहुँच में भी है, लैंगिक-सामाजिक-क्षेत्रीय-शारीरिक क्षमता के स्तर पर भी है, न्यायिक व शासकीय संरक्षण में भी है तथा बुनियादी ज़रूरतों के मामले में भी है.
जिस रिपोर्ट का संदर्भ राहुल गांधी दे रहे हैं, उसी के साथ एक सर्वेक्षण भी प्रस्तुत हुआ है दावोस में, जिसमें भारत समेत ज़्यादातर देशों के लोगों ने कहा है कि पूँजीवादी व्यवस्था के मौजूदा रूप से लाभ की तुलना में हानि कहीं अधिक हो रही है. यही भावना धुर-दक्षिणपंथ और बहुसंख्यकवाद का बड़ा आधार है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को नुक़सानदेह मानता है क्योंकि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था और उदारवादी लोकतंत्र एक-दूसरे के समानार्थी बन चुके हैं और मनुष्यता के विरुद्ध एक ख़तरनाक षड्यंत्र का रूप ले चुके हैं.
राहुल गांधी को 63 पन्ने की पूरी रिपोर्ट पढ़नी चाहिए, उसमें महिलाओं व बच्चियों के बिना दाम के काम पर अधिक विश्लेषण है. वह सर्वेक्षण भी देखना चाहिए. वह किसी सिनिकल मार्क्सवादी ने नहीं, बल्कि नव-उदारवाद को लीप-पोत कर फिर से प्रेज़ेंटेबल बनानेवालों ने ही तैयार किया है. बहरहाल, उस रिपोर्ट को देखते हुए जो बात ध्यान में आती है, वह मार्क्स के दर्शन का एक केंद्रीय तत्व है- सरप्लस वैल्यू.