मुसलमानों की बढ़ती हुई आबादी पर होने वाली बहसों में मुख्यतः दो स्वर होते हैं। पहला, जो कि हिंदुत्ववादी जेहनियत से संचालित होता है, वह भारत में मुसलमानों की बढ़ती हुई आबादी को देश की सुरक्षा पर मंडराते खतरे के बतौर प्रचारित करता है। जिसका मकसद आम हिंदुओं में मुसलमानों से व्याप्त काल्पनिक भय को और ज्यादा बढ़ा कर उसका राजनीतिक लाभ उठाने का रहता है। वहीं दूसरा खेमा जो सेक्युलर बताए जाने वाले जेहन से संचालित होता है, इसे भगवा ब्रिगेड द्वारा गढ़ा गया मिथ बताता है और इस मिथ को आंकड़ों के आधार पर तोड़ने की कोशिश करता है। जिसके निष्कर्ष अक्सर ऐसे होते हैं कि मुसलमानों की आबादी उस हद तक नहीं बढ़ी है जितना कि हिंदुत्ववादी अफवाहबाज बता रहे हैं और दूसरा आबादी का बढ़ना किसी रणनीति के तहत नहीं है बल्कि इसकी वजह मुसलमानों में व्याप्त अशिक्षा और आधुनिक विचारों की कमी है।
अगर राजनीतिक नजरिये से देखा जाए तो यह साफ हो जाता है कि दोनों खेमों के तर्कों में कोई खास फर्क नहीं है। पहला खेमा मुसलमानों की बढ़ती आबादी को खतरे की तरह देखता है और दूसरा खेमा उसे नकारते हुए यह बताता है कि मुसलमानों की आबादी नहीं बढ़ी है। यानी दूसरा खेमा भी इस ग्रन्थि से मुक्त नहीं हो पाता कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी कोई समस्या नहीं है। हालांकि वह अपने आंकड़ों में बिल्कुल दुरुस्त होता है और नियत भी नेक होती है। दरअसल यह समस्या इस वजह से है कि हमारा पूरा सेक्युलर डिस्कोर्स हिंदुत्वव से इतना भयाक्रांत रहता है कि वह उससे उसी के हथियार से लड़ने को ज्यादा सुरक्षात्मक समझता है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि हमारी सेक्यूलरिज्म की सीमाएं हिंदुत्व ही तय करता है और सेक्युलर लोग उसी की परिधि में उससे बहस करते हैं। क्योंकि कहीं न कहीं उनके अंदर भी हिंदुत्वादी तर्कों पर आधारित डर मौजूद रहते हैं और वे कहीं न कहीं इस हिंदुत्ववादी विचार से सहमत होते हैं कि अगर मुसलमानों की आबादी बढ़ जाएगी तो भारत एक मुस्लिम स्टेट बन सकता है।
ये डर आजकल इस वजह से भी ज्यादा दिखता है कि मुस्लिम बहुल देश बन जाने का ख्याल आते ही अफगानिस्तान, सीरिया, आइएस, अलकायदा की तस्वीरें जेहन में घूम जाती हैं। सवाल उठाया जा सकता है कि जब आप सेक्युलर हैं तो फिर भारत के हिंदू बहुल से मुस्लिम बहुल देश बन जाने से क्यों डरते हैं। आखिर क्या यह बात दिमाग में नहीं है कि हिंदू बहुल देश में तो सेक्यूलरिज्म चाहे जैसा भी हो चल सकता है लेकिन मुस्लिम बहुल देश में सेक्युलरिज्म नहीं चल पाएगा। अगर ऐसा है तो आप में और जहीन हिंदुत्ववादियों के इस तर्क में क्या फर्क है कि भारत सिर्फ इसलिए सेक्युलर है कि यहां पर हिंदू बहुसंख्यक हैं। यानी इस सवाल पर हम पाते हैं कि आम हिंदू और सेक्युलर (या उदार हिंदू, सेक्युलर होने का मतलब धार्मिक तौर पर नास्तिक होने से नहीं बल्कि राजनीतिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष होने से है) बुद्धिजीवी में सिवाए मुस्लिम फोबिया के डर से ज्यादा ब्लंटली वोकल होने और माइल्डली वोकल होने के अलावा और कोई अंतर नहीं है।
इस पूरे उपक्रम का सबसे घातक परिणाम यह हुआ है कि एक नागरिक समूह के बतौर मुसलमानों में नागरिक होने के बोध का तेजी से क्षरण हुआ है। चुनावी लोकतंत्र जिसमें अंततः सर ही गिने जाते हैं, में वह अपना सर आत्मविश्वास से गिनवाने के बजाए उसे छुपाने की मुद्रा में आ जाता है। इस स्थिति की तुलना यदि हम भारतीय समाज में हाशिए पर बताए जाने वाली पिछड़ी जातियों से करें तो यह और स्पष्ट हो जाता है जब हम देखते हैं कि पिछड़ी जातियों का नेतृत्व लगातार इसकी मांग करता है कि उसकी आबादी के जातिगत आकंड़ों को सामने लाया जाए क्योंकि उसकी आबादी उससे कहीं ज्यादा है जितना कि सरकारें बताती हैं। उसके इस बहस में सारे सेक्युलर लोग भी उसके साथ होते हैं। यानी एक कमजोर और पिछड़ा समूह अपनी बढ़ी आबादी को अपने चुनावी हथियार के बतौर देखता है जिससे वह अपनी हैसियत और बारगेनिंग क्षमता में इजाफा कर सकता है जबिक उससे ज्यादा बुरी स्थिति में होने के बावजूद मुसलमान अपनी बढ़ती आबादी को स्वीकार तक करने की हिम्मत नहीं कर पाता। जाहिर है ऐसा सिर्फ इसलिए है कि पिछड़ी जातियां धार्मिक तौर पर हिंदू हैं (कुछ लोग कह सकते हैं कि ये वर्गीकरण सामाजिक आधार पर है और इसमें मुसलमानों की कमजोर जातियां भी शामिल हैं, लेकिन विभिन्न आंकड़े ये साबित करने के लिए सार्वजनिक तौर पर मौजूद हैं कि यह सिर्फ मजाक) और लोकतंत्र में उनकी बढ़ती बारगेनिंग क्षमता से लोकतंत्र के और मजबूत होने की उम्मीद की जाती है।
सबसे अहम कि मुसलमानों की तरह उनकी बढ़ती आबादी देश और समाज के लिए कोई सुरक्षा का संकट नहीं पैदा करता। यानी इससे सम्पूर्णता में हिंदुओं का राजनीतिक विकास होता है। (1) वहीं सेक्युलर डिस्कोर्स की इस समझदारी ने मुसलमानों के राजनीतिक सशक्तीकरण (हालांकि कुछ कथित सेक्युलर लोगों के लिए यह भी एक डरावनी परिकल्पना है, कुछ-कुछ ‘हिंदू घटा-देश बंटा’ जैसा) को कैसे बाधित किया है इसकी एक और नजीर देखनी जरूरी है। मुसमलानों की बढ़ती आबादी की वजह उनमें अशिक्षा, पोलीगेमी, गर्भ निरोधक उपायों के इस्तेमाल में धार्मिक कारणों से झिझक और आधुनिक विचारों से हुई दूरी बताई जाती है। लेकिन हम देखते हैं कि दलितों में कमोबेस इन्हीं कारणों से आबादी में वृद्धि पाई जाती है। लेकिन उस समाज ने इसे कभी भी अपने राजनीतिक उत्थान में बाधा नहीं समझा और ना उसे ऐसा समझाने के लिए कथित सेक्युलर लोगों ने टांग ही अड़ाया बल्कि उसकी बड़ी आबादी को सत्ता तक पहुंचने के साधन के बतौर व्याख्यायित किया जिसके चलते सामाजिक तौर पर पीछे होने के बावजूद उनका राजनीतिक सशक्तिकरण जबरदस्त ऊंचाइयों को छू सका।
सवाल उठता है कि आखिर सेक्युलर खेमें ने दलितों की आबादी वृद्धि पर उनके साथ मुसलमानों जैसा बर्ताव क्यों नहीं दिखाया। आखिर दलितों के राजनीतिक सशक्तिकरण को तो स्वागत योग्य बताया गया लेकिन मुसलमानों के राजनीतिक सशक्तिकरण जो लोकतंत्र में सिर्फ और सिर्फ संख्या के बल पर होता है जिसका उसके पास प्रचुरता है, को कठमुल्लावाद और अशिक्षा जैसे सवालों के इर्द-गिर्द क्यों भटका देने की कोशिश की गई? क्या इसकी वजह यह है कि भारतीय सेक्युलरिज्म की पूरी अवधारणा ही मुसलमानों के खुद के राजनीतिक सशक्तिकरण, उनके बीच से किसी मायावती या लालू के उभार को रोक कर खुद उनका नेतृत्व करने की समझदारी पर टिकी हुई है? अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्या है और अगर ऐसा है तो फिर ये सवाल नहीं उठता कि क्या ये इस समझदारी के कारण है कि मुसलमानों का राजनीतिक सशक्तिकरण का मतलब देश का एक और विभाजन होना होगा, इससे एक और पाकिस्तान की बुनियाद पड़ेगी?
दरअसल मुसलमानों की आबादी के बहस के निहितार्थ को हम सिर्फ अफवाह या आंकड़ों के खेल तक महदूद करके नहीं देख सकते। इसका एक हिडेन एजेंडा है और वह है उनमें नागरिक होने के बोध को कम से कमतर करना, उन्हें हमेशा इस मनोवैज्ञानिक दबाव में रखना कि वे खुद अपनी बात नहीं कह सकते, अपनी भागीदारी का सवाल नहीं उठा सकते यानी अपनी राजनीति नहीं कर सकते। लोकतंत्र में किसी भी समाज को आर्थिक और सामाजिक तौर पर गुलाम बनाने से शासक समूह का हित नहीं सधता, वो उसे राजनीतिक तौर पर गुलाम बनाने की योजना पर काम करता है। इसीलिये हम पाते हैं कि मुसलमानों के आर्थिक, शैक्षणिक बेहतरी के वादे तो सारी सरकारें करती हैं और उन्हें कुछ हद तक पूरा भी करती हैं लेकिन उनके सत्ता में भागीदारी के सवाल पर सांस तक नहीं लेती हैं। उनका प्रयास उनके अनागरिकीकरण का होता है। इसे और बेहतर तरीके से समझने के लिए कुछ उदाहरण देखने जरूरी होंगे।
पहला, अगर दलितों के साथ हुई हिंसा पर बात होती है तो हमारा जोर इस बात को रेखांकित करने पर रहता है कि भारतीय संविधान में सभी लोग बराबर हैं, किसी के साथ जातिगत आधार पर भेद-भाव और हिंसा नहीं की जा सकती। यानी हम दलितों की पीड़ा को हल करने के लिए एक आधुनिक राष्ट्र राज्य में उसके संविधान के हवाले से बात करते हैं। लेकिन जब भी साम्प्रदायिक हिंसा जिसमें अक्सर मुसलमान ही पीड़ित होता है, की पीड़ा को सम्बोधित करना होता है तो हम भारत के हजारों साल की साझी विरासत और सहिष्णुता का बखान करते हैं। यानी दलितों के मामले में हम उसमें आधुनिक राष्ट्र राज्य में उसके नागरिक होने के बोध को संचारित करते हैं और उसके एक नागरिक होने के नाते उसे प्राप्त अधिकारों की बात करते हैं। लेकिन मुसलमान के मामले में हम आधुनिक राष्ट्र राज्य, उसकी बुनियाद संविधान के बजाए हम उसे मध्यकालीन युग की प्रजा की हैसियत से सम्बोधित करते हैं और उसकी सुरक्षा को हम सामने वाले की सहिष्णुता के भरोसे छोड़ देते हैं क्योंकि वो तो हजारों साल से सहिष्णु रहा है और अगर आज वो असहिष्णु हो गया है तो उसे आधुनिक दंडनात्मक तरीके से सही करने के बजाए उसे उसकी सहिष्णुता की याद दिलाने की कोशिश करते हैं।
दोनों स्थितियों में बुनियादी फर्क यह है कि दलित अपनी सेफ्टी के लिए राज्य के सामने नागरिक अधिकार प्राप्त आधुनिक मानव की हैसियत से बात करता है और आधुनिक राष्ट्र राज्य को उसकी जवाबदेही याद दिलाता है। जबकि मुसलमान जिसे धर्म के आधार पर भेद-भाव और हिंसा से बचाने की जिम्मेदारी राज्य की है, जिसकी सुरक्षा की हर कीमत पर गारंटी देना भारत के संयुक्त राष्ट्र के अल्पसंख्यकों की रक्षा के मसौदे पर हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते भारतीय राज्य को है, राज्य को चैलेंज करने के बजाए वह राज्य के सामने मध्यकालीन युग के फरियादी की तरह हर तरह के आधुनिक नागरिक अधिकारों से वंचित, खड़ा दिखता है।
दूसरा, भारतीय राज्य के कथित सेक्युलर चरित्र को प्रचारित करने के लिए बताया जाता है कि हमारा संविधान सभी धर्मों को मानने वालों को अपने धर्म का प्रचार प्रसार करने का हक देता है। लेकिन हम देखते हैं कि धर्म प्रचार के मामले में उदारता दिखाने वाला यही संविधान मुस्लिम और ईसाई दलितों को हिंदू न होने के कारण उन्हें आरक्षण के लाभ से वंचित कर देता है या मुसलमानों और ईसाईयों को आरक्षण देने को संविधान विरोधी बताता है। यानी, एक मुसलमान या ईसाई अगर भारतीय संविधान में निहित सेक्युलरिज्म को महसूस करना चाहे तो उसे वह नौकरी में आरक्षण पा कर नहीं कर सकता, इसके लिए उसे घूम-घूम कर अपने धर्म का प्रचार करना पड़ेगा। जाहिर है धर्म का प्रचार करने के अधिकार के इस्तेमाल से आप उन आधुनिक नागरिक मूल्यों और आत्मविश्वास से लैस नहीं हो सकते जो आपको उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले और रोजगार से प्राप्त होता है। यानी भारतीय संविधान आपको एक धार्मिक समूह बनने की इजाजत तो देता है लेकिन नागरिक बनने के प्रयास को बाधित करता है। जाहिर है पहली स्थिति से उसे कोई दिक्कत नहीं है लेकिन दूसरी से जरूर कोई दिक्कत है।
तीसरा, लगातार नागरिक बोध (यहां चेतना इसलिए नहीं कहा जा सकता कि चेतना रिवर्स नहीं होती, बुरी से बुरी स्थिति में भी वह सिर्फ कुंद हो सकती है जबकि बोध अथवा एहसास बढ़ या घट सकता है) के क्षरण के कारण मुसलमानों में दूसरे सामाजिक समूहों की तरह राजनीतिक आत्मविश्वास से अपनी बात रखने का साहस खत्म होता गया है। मसलन, पिछडे़, आदिवासी या दलित तो आज व्यवस्था को खुलेआम चुनौती दे सकते हैं कि यदि उनकी मांगे नहीं मानी गईं या उनके अधिकार उन्हें नहीं दिए गए तो वे ‘व्यवस्था को नहीं चलने देंगे’, जिसे उनके नेतृत्व के बागी तेवर के बतौर व्याख्यायित किया जाता है। लेकिन ऐसी किसी भाषा की कल्पना भी मुस्लिम नहीं कर सकता क्योंकि उसके ‘व्यवस्था को चैलेंज’ करने का मतलब देश को चैलेंज करना होगा, जो देशद्रोह होगा, राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती होगी, दुश्मन देश पाकिस्तान को लाभ पहुंचाने वाला और ना जाने क्या-क्या होगा। क्या यह सही नहीं है कि किसी भी समाज में यदि व्यवस्था से बगावत करने की कल्पना को ही खत्म कर दिया जाए तो वह कभी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता। भारतीय राज्य मुसलमानों के अनागरिकीकरण के एजेंडे से यही हासिल करता है। (2) जिसमें उसकी मदद चाहे अनचाहे कथित सेक्युलर लोग भी करते हैं।
मसलन, रिहाई मंच ने अपने एक दस्तावेज में उत्तर प्रदेश में दलितों को आत्मरक्षा के लिए राज्य द्वारा हथियार उपलब्ध कराने की मांग बिहार में दलित विरोधी सामंती हिंसा की घटनाओं की रोशनी में की जहां आयोगों की सिफारिशों पर सरकार ने दलितों को हथियार मुहैया कराए थे तो उसका स्वागत किया गया लेकिन जब आत्मरक्षा हेतु मुसलमानों के लिए भी ऐसी ही मांग साम्प्रदायिक हिंसा में पुलिस की साम्प्रदायिक भूमिका की बात स्वीकार करने वाली सरकारी जांच आयोगों की रपटों की रोशनी में की गई तो इसे कुछ लोगों ने एक सिरे से नकार दिया। आखिर क्या इसकी वजह सेक्युलर बताए जाने वाले लोगों में व्याप्त यह धारणा नहीं है कि दलितों के हाथों में हथियार आने से तो सामंतवाद का नाश होगा, गरिमामय और बराबरी मूलक समाज बनेगा लेकिन मुसलमानों के हाथ में आत्मरक्षा के लिए सरकार द्वारा मुहैया हथियार भी अलकायदा और आइएस के एजेंडे को पूरा करेगा?
इस पूरी प्रक्रिया ने- जो शुरू होती है मुसलमानों की बढ़ती आबादी पर देखने में भिन्न लगने वाली दो खेमों के बीच बहस से- इस हद तक मुसलमानों को असहाय बना दिया है कि वह चुनाव के समय भी अपने साथ होने वाली नाइंसाफी का सवाल रणनीतिक तौर पर उठाने से परहेज करने लगता है क्योंकि उसे पता होता है कि उसके ‘सहयोगी सेक्युलर वोटर’, जो यूपी के संदर्भ में पिछड़े और दलित होते हैं, इन सवालों के उठते ही हिंदुत्ववादी खेमें में चले जाएंगे। यानी कथित सेक्युलर खेमें में भी जो पूरी तरह उसके वोट (यूपी में यादव 9 प्रतिशत, मुसलमान 18.5 प्रतिशत है) और नोट पर ही टिका होता है, में भी वह बिना दर्जे की हैसियत में रहता है क्योंकि आबादी में ज्यादा होने के बावजूद उसका इस्तेमाल कोई कम संख्या वाली हिंदू बिरादरी ही कर सकती है जिससे कि समाजवादी, सेक्युलर या बहुजनवादी निजाम कायम होता है। यदि वह खुद अपनी संख्या- जिसे खतरे के बतौर प्रचारित किया जाता है- का इस्तेमाल करे तो वह देश के हित में नहीं होगा, उससे एक और ‘पाकिस्तान’ बन जाएगा। अपने सवाल उठाकर कथित सेक्युलर वोटों के बंटवारे को रोकने का यह तर्क इस हद तक खतरनाक हो चुका है कि अब मुसलमानों के आतंकवाद के नाम पर फर्जी मुकदमों में फंसाए जाने, फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाने जैसे जिंदा रहने के सवालों को भी उठाते वक्त उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह रणनीतिक तौर पर इन सवालों के साथ महंगाई, बेरोजगारी जैसे सवाल भी उठाए ताकि आम हिंदू को भी उसके साथ आने में हिचक न हो।
देखने सुनने में आदर्श लगने वाले इस तर्क के साथ दिक्कत यह है कि इससे मुसलमानों की सुरक्षा पर मंडरा रहे खतरे का सवाल मंहगाई जैसे सवाल के समकक्ष दिखने लगता है। और इस प्रक्रिया में उसकी जिंदगी की कीमत प्याज और तेल के बराबर होती जाती है, यानी उसकी जिदंगी का अवमूल्यन हो जाता है। सबसे अहम कि इस रणनीति से बना कथित सेक्युलर गठबंधन का गैर मुस्लिम हिस्सा उनका वास्तविक और ईमानदार साथी कभी नहीं बन पाता। पहला मौका मिलते ही वह हिंदुत्व के अपने स्वाभाविक गिरोह में चला जाता है। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के जनाधारों के साथ बने मुसलमानों के समीकरण में यह नतीजा कहीं भी और कभी देखा जा सकता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि मुसलमानों की बढ़ती आबादी के कथित सेक्युलर डिस्कोर्स ने उसे राजनीतिक तौर पर कमजोर करने का ही काम किया है, जो हिंदुत्ववादी एजेंडे के लिए मुफीद है। बाह्य तौर पर मुसलमानों की बढ़ती आबादी को ‘खतरा’ मान कर चलने वाली इस बहस के कारण होने वाली मुसलमानों के अनागरिकीकरण की प्रक्रिया का एक दूसरा और पूरक आंतरिक प्रसंग भी है जो ज्यादा संस्थागत है और जो इस पूरी कवायद की तार्किक परिणति भी है। यह है मुसलमानों के मताधिकारी बनने में आई जबरदस्त गिरावट जिसपर कभी बहस ही नहीं होती है। दक्षिणपंथी खेमा तो जानबूझकर इसे दबाए रहता है कथित सेक्युलर खेमा भी चुप रहता है।
दरअसल मुस्लिमों के एक खासे हिस्से को राजनैतिक तौर पर ‘अनागरिक’ बनाने के इस सांप्रदायिक साजिश का खुलासा तब हुआ जब अवामी काउंसिल फार डेमोक्रेसी एण्ड पीस नाम की गैरसरकारी संस्था ने आजमगढ़ और मऊ जिलों में लगभग डेढ़ लाख मुस्लिमों के नाम मतदाता सूची से बाहर होने के मुद्दे पर इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की। जिस पर मुख्य न्यायाधीश हेमंत गोखले ने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर तल्ख टिप्पणी करते हुए इसे तत्काल सुधारने का निर्देश दिया था, बावजूद इसके चुनाव आयोग ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। अवामी काउंसिल ने यह याचिका अपने छह महीने के सर्वे के बाद की थी जिसमें उसके कार्यकर्ताओं ने आजमगढ़ और मऊ जिलों के मुस्लिम आबादी के दरवाजे-दरवाजे जाकर मतदाता बनने से वंचित रह गए लोगों की संख्या इकट्ठा की और उन्हें मतदाता बनने के लिए भरे जानेवाले फार्म 6 को भरवाया था। इस सर्वे के नतीजे चैंकाने वाले थे। पाया गया कि सिर्फ आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में ही लगभग 75 हजार मुस्लिम मतदाता बनने की शर्तें पूरी होने के बावजूद मताधिकार से वचित हैं, जो आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र के कुल मुस्लिम मतदाताओं का 44 प्रतिशत है। वहीं घोसी लोकसभा क्षेत्र में लगभग 80 हजार मुस्लिमों के नाम मतदाता सूची से गायब हैं। घोसी के मामले में तो स्थानीय संगठनों ने चुनाव आयोग के विरुद्ध उच्च न्यायालय में रिट दायर किया हुआ है। जब सिर्फ दो लोकसभा क्षेत्रों में ही डेढ़ लाख मुस्लिम मतदाता सूची से बाहर हैं तो फिर पूरे प्रदेश की क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना की जा सकती है।
अवामी काउंसिल के महासचिव असद हयात जिन्होंने आजमगढ़ और मऊ के आंख खोल देने वाले आकड़ों के बाद पूरे प्रदेश के एक-एक बूथ की मतदाता सूची की गहन पड़ताल के बाद उच्च न्यालय का दरवाजा खटखटाया, उनका दावा है कि पूरे प्रदेश में लगभग बावन लाख पच्चीस हजार छह सौ तिरासी मुसलमान मतदाता सूची से बाहर हैं। अल्पसंख्कों की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हैसियत का आकलन करने के लिए संप्रग सरकार द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों खास कर मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से गायब होने पर चिंता जाहिर करते हुए कहा था ‘ऐसा होने से न केवल मुसलमान राजनैतिक तौर पर कमजोर हो रहे हैं बल्कि सरकारी विकास योजनाओं से भी महरुम हो रहे हैं।‘
मुसलमानों की बढ़ती आबादी की इस बहस में यह भी जानना जरूरी होगा कि उत्तर प्रदेश में 2001 में हुई जनगणना और उसके आधार पर बनी मतदाता सूची के मुताबिक प्रदेश में कुल जनसंख्या सोलह करोड़ इकसठ लाख सत्तानबे हजार नौ सौ इक्कीस है जिसमें मुस्लिम तीन करोड़ चैहत्तर लाख एक सौ अट्ठावन हैं, जो कुल जनसंख्या का 18.5 प्रतिशत हैं। वहीं गैर मुस्लिम आबादी तेरह करोड़ चौव्वन लाख सत्तावन हजार सात सौ तिरसठ है जो कुल जनसंख्या का 81.5 प्रतिशत है। पूरे प्रदेश में 2007 में संपन्न विधानसभा चुनावों में प्रयुक्त मतदाता सूची के मुताबिक कुल मतदाता संख्या ग्यारह करोड़ चौंतीस लाख उन्तालिस हजार आठ सौ तिहत्तर है। यानी 2001 की जनगणना की 68.25 प्रतिशत जनता 2007 में मतदाता बन गयी। इसमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या एक करोड़ सत्तावन लाख साठ हजार छह सौ तिरानबे है जो कि कुल मतदाताओं का 13.89 प्रतिशत है जबकि गैर मुस्लिमों की संख्या नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी है जो कुल मतदाताओं का 86.10 प्रतिशत है।
यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर जब कुल जनगणना के हिसाब से मुस्लिम आबादी 18.5 प्रतिशत है तो फिर मतदाता सूची में यही आकड़ा घट कर कैसे 13.89 प्रतिशत हो गया, जबकि दोनों को एक समान होना चाहिए। वहीं दूसरी ओर गैर मुस्लिम आबादी अपनी जनगणना का 81.5 प्रतिशत है लेकिन मतदाता सूची में यह आंकड़ा बढ़ कर 86.10 प्रतिशत हो गया है। यानी जहां एक ओर गैर मुस्लिम अपनी 2001 की घोषित आबादी के मुकाबले आश्चर्यजनक रूप से 5.05 प्रतिशत (5728713) अधिक मतदाता बन गए, वहीं इसके उलट सैतालिस लाख उन्नीस हजार अट्ठानवे मुस्लिम नागरिक अपनी आबादी से 4.16 प्रतिशत कम हो कर मतदाता बनने से वंचित रह गए। मुस्लिमों और गैर मुस्लिमों के मतदाता बनने के इस असमानता को एक दूसरे दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। 2001 की जनगणना में कुल मुस्लिम आबादी तीन करोड़ चौहत्तर लाख एक सौ अट्ठावन है जिसमें से सिर्फ 51.27 प्रतिशत यानी एक करोड़ सत्तावन लाख छह हजार तिरानबे लोग ही मतदाता हैं। वहीं गैर मुस्लिमों की कुल आबादी तेरह करोड़ चौव्वन लाख सत्तावन हजार सात सौ तिरसठ में से नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी लोग मताधिकारी हैं, जो अपनी आबादी का 72.11 प्रतिशत है। इसका मतलब कि मुसलमानों की मतदाता बनने की दर गैर मुसलमानों के मुकाबले 20.84 प्रतिशत कम रही जबकि इसे भी 72.11 प्रतिशत होनी चाहिए था क्योंकि मतदाता बनने की दर समान होनी चाहिए।
इस प्रकार मुस्लिम मतदाताओं की संख्या दो करोड़ इक्कीस लाख छाछठ हजार दो सौ अठहत्तर होनी चाहिए थी जबकि यह है सिर्फ एक करोड़ सत्तावन लाख छिहत्तर हजार छह सौ तिरानबे यानी चौसठ लाख छह हजार पैंतिस मुसलमान मतदाता बनने से वंचित कर दिए गए हैं। बहरहाल यह तो चुनाव आयोग की हेरा-फेरी की सिर्फ सतह है जिसके नीचे और भी कई चौंकाने वाले तथ्य दबे हैं। मसलन 1981 की जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश में कुल मुस्लिम आबादी एक करोड़ छिहत्तर लाख सत्तावन हजार सात सौ पैंतिस और गैर मुस्लिम आबादी नौ करोड़ बत्तीसलाख चार हजार दो सौ अठहत्तर बतायी गई है लेकिन 2007 की मतदाता सूची से पता चलता है कि मुस्लिम मतदाताओं की कुल तादाद एक करोड़ सत्तावन लाख साठ हजार छह सौ तिरानबे है जो उनकी 1981 की जनसंख्या से भी लगभग बीस लाख कम है। यानि 2007 तक प्रदेश में मुसलमान उतनी संख्या में भी मतदाता नहीं बन पाए जितनी सत्ताइस साल पहले उनकी आबादी थी। जबकि दूसरी ओर गैर मुस्लिम इसी समयावधि में अपने 1981 की जनगणना से 104 प्रतिशत ज्यादा यानी नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी मतदाता बन गए।
जाहिर है यह पूरा खेल चुनाव आयोग इसलिए कर ले जाता है क्योंकि मुसलमानों की आबादी पर बाह्य बहस में उनकी आबादी को खतरे के बतौर देखा जाता है। मुस्लिम नागरिकों के मतदाता बनाने में चुनाव आयोग के इस सांप्रदायिक और भेदभावपूर्ण रवैये को हम सीटों के परिसीमन में भी देख सकते हैं। कई सीटों को, जिस पर मुस्लिमों की तादाद अनुसूचित जाति की आबादी से अधिक है, सुरक्षित कर दिया गया है। दरअसल, सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए पेज 225 पर लिखा है- ‘एक अधिक विवेकशील सीमांकन प्रक्रिया अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्रों को अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित न कर, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों के लिए संसद और विधानसभाओं के लिए चुनाव लड़ने और चुने जाने के अवसर को बढ़ा देगी। समिति इस विषमता को खत्म करने की संस्तुति करती है।‘ आयोग की इस संस्तुति के बावजूद सरकार ने इसे नजरअंदाज कर दिया जिसके चलते कई ऐसी सीटें जहां मुस्लिम आबादी दलितों से अधिक है, सुरक्षित कर दी गयी हैं।
मसलन, बहराइच लोकसभा क्षेत्र में मुसलमानों की तादाद कुल आबादी का चौंतिस प्रतिशत है जबकि दलित सिर्फ 18 प्रतिशत हैं। बावजूद इसके इसे सुरक्षित घोषित कर दिया गया है। इसी तरह बिजनौर को तोड़कर बनाई गयी नगीना लोकसभा सीट आरक्षित कर दी गई है जबकि यहां मुस्लिम आबादी 40 फीसद है। इसी तरह बुलंदशहर में मुस्लिम आबादी दलितों से अधिक है लेकिन इसे भी सुरक्षित कर दिया गया है। दरअसल, मुस्लिमों के जनप्रतिनिधि बनने के अधिकार के मामले में यह भेदभाव सिर्फ लोकसभा और विधानसभाओं जैसे ऊपरी स्तर पर ही नहीं है बल्कि ग्राम पंचायत जैसे लोकतंत्र के शुरुआती पायदानों पर भी दिखता है। मसलन, आजमगढ़ के फूलपुर ब्लाक की लोहनिया डीह ग्राम सभा सुरक्षित है जबकि यहां सिर्फ दो दलित परिवार ही रहते हैं।
नए परिसीमन में अल्पसंख्यक मतदाताओं के साथ भाषाई स्तर पर भी भेदभाव साफ देखा जा सकता है। मसलन 1976 के आाधार पर परिसीमित विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों में 134 विधानसभा क्षेत्रों की मतदाता सूचियां उर्दू में प्रकाशित होती थीं जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक बताई गई थी। लेकिन नए परिसीमन के बाद सिर्फ 48 विधानसभा क्षेत्रों में ही उर्दू में मतदाता सूची प्रकाशित की जा रही है। यह आश्चर्य का विषय है कि यह संख्या 134 से घटकर 48 कैसे हो गई और किस तरह जहां पहले 134 विधानसभा क्षेत्रों में उर्दू भाषी मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक थी वो अब कैसे घटकर 48 हो गई। दरअसल चुनाव आयोग का यह मुस्लिम विरोधी रवैया, जिस पर कोई भी बहस नहीं करता, सिर्फ उनको चुनावी प्रक्रिया से अलग-थलग काटकर रखने वाला ही नहीं है बल्कि मुसलमानों के उस भावनात्मक और ऐतिहासिक निर्णय पर कुठाराघात है जब उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के निर्माण के लिए पृथक निर्वाचन मंडल और पृथक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का त्याग किया था।
संदर्भ
- भागलपुरः राष्ट्रीय शर्म के 25 साल, लेखक शरद जायसवाल, में संकलित राजीव यादव का लेख ‘कमडंल की विस्तार साबित हुआ मंडल’, प्रकाशक मीडिया स्टडीज ग्रुप, नई दिल्ली
- शाहनवाज आलम का लेख ‘मुसलमानों को विक्टिमहुड मानसिकता से निकलना होगा’, बियोंड हेडलाइन्स डाट इन
(यह लेख किताब ‘जनसंख्या की खबरों का सच’ में प्रकाशित हो चुका है। मीडिया स्टडीज ग्रुप की इस किताब का संपादन वरुण शैलेश औऱ संजय कुमार बलौदिया ने किया है।)