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देश के 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राष्ट्रीय स्तर पर 2014 के मुक़ाबले अपनी वोट हिस्सेदारी 7% से भी अधिक बढ़ाने में सफलता हासिल की है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 31% जनता ने वोट किया था, जो 2019 में बढ़कर 38% से भी अधिक हो गया है। इसी तरह से एनडीए 2014 के 38% के मुकाबले 45% वोट की हिस्सेदारी हासिल करने में सफल रही है। करीब 7% से भी अधिक वोट शेयर की बढ़ोतरी समान रूप से बीजेपी और एनडीए दोनों में देखने को मिलती है।
यह बेहद दिलचस्प है कि बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 2014 के मुकाबले करीब 10 सीटों का नुकसान हुआ है लेकिन वोट शेयर करीब 42% से बढ़कर 50% के नजदीक पहुंच गया है। भाजपा के मुक़ाबले कांग्रेस के वोट शेयर में 3% से भी कम की बढ़ोत्तरी हुई है जबकि एनडीए की देश की लोकसभा की कुल सीटों की भागीदारी करीब दो-तिहाई तक पहुंच गई है। इस तरह से भारतीय जनता पार्टी देश के राजनीतिक पटल पर और मजबूती से उभरी है और अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर अपनी स्थापना के बाद से बीजेपी की चुनावी सफलता का निर्विवाद रूप से एक नया इतिहास लिखा है।
बीजेपी ने 1984 के आम चुनाव में करीब 8% वोट हासिल किया था, जो 1989 में 3% बढ़कर 11% हो गया। इसके बाद के दो लोकसभा चुनावों 1991 और 1996 में बीजेपी ने अपना वोट शेयर करीब-करीब दुगना 20% बनाए रखा। 1998 के चुनाव में बीजेपी ने और बड़ी छलांग लगाई और करीब 26% का वोट शेयर हासिल किया। इस चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस का वोट शेयर समान यानि करीब 26% रहा था जबकि 1984 में कांग्रेस का वोट शेयर 48% रहा था यानि बीजेपी 1984 के लोकसभा चुनाव के 7% से बढ़ते-बढ़ते 26% पर पहुंची थी तो कांग्रेस 1984 के 48% से गिरते-गिरते 26% के करीब आकर अटकी थी।
यहां उल्लेख करना ज़रूरी है कि कांग्रेस द्वारा 1984 के चुनाव में हासिल किया गया वोट शेयर अभी तक भारत में किसी भी लोकसभा चुनाव में, किसी भी राजनीतिक दल द्वारा हासिल किया गया अब तक का सर्वाधिक वोट शेयर बना हुआ है। इसके बाद 1999 के चुनाव में कांग्रेस नेजहां 2% अधिक शेयर के साथ 28% पर आकर रुकी तो वहीं बीजेपी 2% के नुकसान के साथ करीब 24% पर। यह दिलचस्प है कि 2014 के आम चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस दोनों के वोट शेयर 2% नीचे गिरे लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के वोट शेयर में करीब 10% का फासला आ गया यानि बीजेपी का वोट शेयर 19% तो कांग्रेस का करीब 29% वोट शेयर रहा। लोकसभा चुनाव 2014 ने बीजेपी और कांग्रेस के बीच वोट शेयर का जो भारी फासला पैदा हुआ, उसे कांग्रेस 2019 के आम चुनाव में भी भर पाने में नाकाम साबित हुई है। बीजेपी ने अब इस खाई को और चौड़ा करके कांग्रेस के लिए भविष्य की चुनौती को और बड़ा बना दिया है।
भाजपा ने यह लोकसभा चुनाव अपनी मजबूत चुनाव रणनीति और सहयोगी दलों के साथ बेहतर समन्वय के दम पर जीता है। भाजपा की इस जीत को भारत के लोकतान्त्रिक इतिहास में एक बड़ी जीत के तौर पर दर्ज किया जाएगा क्योंकि भाजपा ने यह जीत ऐसे समय में हासिल की है जब ऐसा लग रहा था कि इस लोकसभा चुनाव में जनता का एक बड़ा तबका भाजपा से नाराज है और वह उसके खिलाफ वोट करेगा। यह आकलन किया जा रहा था कि अगर एनडीए सरकार से बाहर नहीं भी होती है तो भी बीजेपी की सीटें कम हो सकती हैं और एनडीए में सहयोगी दलों की भूमिका बढ़ सकती है लेकिन ऐसी सारी संभावनाओं पर 23 मई ने पूर्ण विराम ही लगा दिया।
बीजेपी की एकतरफा जीत ने साबित किया कि जनता राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा नेतृत्व तलाश रही थी जो एनडीए सरकार द्वारा दिये गए घावों पर मरहम लगा सके लेकिन कांग्रेस और विपक्षी दल मिलकर ऐसा कोई नाम देने में नाकाम रहे जो राष्ट्रीय स्तर एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीद्वार का मुक़ाबला करता। दरअसल, इस चुनाव में कांग्रेस और विपक्षी दलों की विकल्पहीनता ने भाजपा की भारी जीत के लिए खुला मैदान छोड़ दिया और इस मैदान में भाजपा ने आक्रामक तेवर और रणनीति से चुनाव लड़ा। कांग्रेस और विपक्षी दलों के बीच नेतृत्व की कमी के साथ-साथ समन्वय और सहयोग का संकट की साफ दिखाई पड़ रहा था। उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस ने गठबंधन के ही वोटों को काटने का काम किया और बीजेपी की जीत की राह को आसान कर दिया।
इस चुनाव में मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। दरअसल मीडिया का एक बड़ा तबका पिछले पांच साल में एनडीए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के साथ रहा और उसका सबसे बड़ा प्रचारक बनकर उभरा। दूसरी तरफ कांग्रेस और विपक्षी दलों द्वारा सरकार से पूछे गए सवालों पर मीडिया उस तरह से मुखर नहीं हुआ जैसा पिछली सरकारों में था। इसने जनता के बीच सरकार की बेहतर छवि बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने एनडीए सरकार को घेरने में कोई कसर छोड़ रखी थी। राहुल गांधी ने राफेल, जीएसटी, नोटबंदी, कालाधन, बेरोज़गारी समेत एनडीए सरकार से जुड़े तमाम मसलों पर उसे घेरा लेकिन एक तो मीडिया का उन्हें साथ नहीं मिला, दूसरी तरफ जनता कांग्रेस से अब भी चिढ़ी हुई दिखी। इस चिढ़ में कांग्रेस की वंशवादी राजनीति की बड़ी भूमिका है। ऐसा नहीं है कि दूसरे दलों में वंशवाद नहीं है लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह से पार्टी को खानदानी विरासत बना लिया है, वह कांग्रेस के खिलाफ जाता है। यह भी एक बड़ी वजह रही कि बीजेपी इस चुनाव में बड़ी लीड ले गई।
इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह से अपनी अमेठी लोकसभा सीट हार गए, उससे यह बात तो स्थापित हो गई कि कांग्रेस की न केवल जमीन पर पकड़ कमजोर है बल्कि वह वोटरों के साथ-साथ कार्यकर्ताओं से भी दूर हो चुकी है। दूसरी तरफ भाजपा ने न केवल जमीन पर अपनी पकड़ मजबूत की है बल्कि सहयोगी दलों के सहारे उन क्षेत्रों में भी अपनी पकड़ मजबूत की, जहां उसका जनाधार नहीं था। इसके अलावा बीजेपी ने सोशल मीडिया अभियान के जरिये वोटरों का एक ऐसा तबका भी तैयार किया है, जो उसके कार्यकर्ताओं से भी बड़ा प्रचारक बनकर उभरा है। ऐसे प्रचारकों ने घर, परिवार, रिश्तेदारी से लेकर आस-पास के लोगों के वोट को बीजेपी को दिलवाने में बड़ी भूमिका निभाई है।
इस चुनाव ने यह भी साबित किया है कि भाजपा ने धर्म और जाति के आधार पर टिकट बंटवारे का चुनावी प्रबंधन बेहतर तरीके से किया और यही कारण है कि उत्तर प्रदेश और बिहार समेत तमाम राज्यों में क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक समीकरण मुंह के बल गिर गया और बीजेपी को इसका बड़ा फायदा मिला।
कोई भी राजनीतिक दल यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि यह मोदी का करिश्मा है और उन्हें तो जीतना ही था। यह चुनाव सीधे-सीधे विपक्ष की रणनीतिक विफलता है। अगर गठबंधन संयुक्त होकर चुनाव लड़ता और मोदी के खिलाफ कोई एक नाम विकल्प के तौर पर तैयार करता तो शायद कांग्रेस और विपक्ष को इतनी बुरी पराजय का मुंह नहीं देखना पड़ता। इसके लिए भले ही किसी गैर-राजनीतिक व्यक्ति जैसे रघुराज रामन या उनके जैसे कद के व्यक्तित्व पर सहमति बनानी पड़ती। इस चुनाव में यह तो महत्वपूर्ण है ही कि भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की है लेकिन यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस और गठबंधन का संभावित यूपीए बिखराव का शिकार हो गया।
विनय जायसवाल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं