मोदी की सुनामी में पूरे देश के साथ बिहार में भी विपक्ष ध्वस्त हो गया। यहां एनडीए को 39 सीटों पर जीत मिली तो महागठबंधन को किशनगंज की केवल एक सीट मिली। कांग्रेस का खाता जरूर खुला लेकिन मुख्य विपक्षी दल राजद अपने अस्तित्व के बाद पहली बार जीरो पर आउट हो गया। एनडीए भले चुनाव प्रचार के दौरान 40 सीट जीतने का दावा कर रहा था, लेकिन उन्हें भी इस परिणाम पर यकीन नहीं हो रहा होगा। बिहार में भाजपा 17, जदयू 16 तो लोजपा 6 सीट जीतने में सफल रही। वहीं, महागठबंधन में शामिल रालोसपा, वीआईपी और हम का भी राजद की तरह खाता नहीं खुल सका।
पहली बार यहां एनडीए को 53.25 फीसदी वोट मिला, वहीं महागठबंधन को करीब 32 फीसदी वोट मिला। 2014 में भाजपा, लोजपा और रालोसपा से बनी एनडीए को 38.8 फीसदी वोट मिला था। तब जदयू-सीपीआई और राजद-कांग्रेस-एनसीपी का गठबंधन अलग-अलग था और उन्हें क्रमश: 17.5 फीसदी और 29.3 फीसदी वोट मिला था। इसमें जदयू को 15.8 फीसदी और राजद को 20.10 फीसदी वोट मिला था। 2014 में जदयू को 2 और राजद को 4 सीटों पर सफलता मिली थी। इस बार राजद के वोट प्रतिशत में करीब 5 फीसदी की कमी आई है, लेकिन यह कमी उसे मिले कुल मतों की वजह से नहीं बल्कि लड़ी जाने वाली सीटों की कम संख्या की वजह से है। गौरतलब है कि राजद 2014 में 25 सीटों पर चुनाव लड़ा था तो 2019 में सिर्फ 19 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए।
अब सवाल उठता है कि सीट कम लड़ने की वजह से भले राजद का वोट प्रतिशत कम हुआ हो, लेकिन वह जीत में क्यों नहीं बदल सका? दरअसल, 2014 के एनडीए और 2019 के एनडीए के ढांचे में बड़ा बदलाव आया। रालोसपा जहां अलग होकर महागठबंधन का हिस्सा हो गई, वहीं पिछली बार 15.8 फीसदी वोट लाने वाली जदयू एनडीए का हिस्सा हो गई। इस तरह से 2014 को ही आधार मान लें तो नए समीकरण में वोट प्रतिशत के आधार पर एनडीए का कुल वोट 51.6 फीसदी हो जाता है। इसमें बीजेपी का 29.4 फीसदी, जदयू का 15.8 फीसदी वोट शामिल है। वहीं, 2019 में इस गठबंधन को पिछली बार की तुलना में 1.5 फीसदी ज्यादा वोट मिला। 2014 के आधार पर रालोसपा का 3 फीसदी वोट राजद गठबंधन में जोड़ने पर 31.5 फीसदी होता है। इस बार यह मुकेश साहनी की वीआईपी और जीतनराम मांझी की हम के साथ मिलकर भी कुल मत 31.46 फीसदी ही हासिल कर सका। यानी एनडीए के मुकाबले में महागठबंधन करीब 21.75 फीसदी वोट पिछड़ गया।
अगर 2014 के आधार पर भी जोड़ा जाए तो यह गठबंधन एनडीए से करीब 20 फीसदी पीछे ही रहता। इस तरह से 2014 के परिणाम अलग-अलग लड़ने की वजह से क्लीन स्वीप वाला न रहा, लेकिन 2019 में महागठबंधन का विरोधी वोट एक जगह पर आकर एनडीए को क्लीन स्वीप दिलाने में सफल रहा।
अब सवाल उठता है कि उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश साहनी के एनडीए से बाहर आने के बावजूद एनडीए को कोई बड़ा नुकसान क्यों नहीं हुआ? यही नहीं, तुलनात्मक तौर पर 2 फीसदी वोट भी बढ़ गया। एनडीए में भाजपा ने अपनी सीटों को घटाकर 17 सीट करने और जदयू को भी बराबर सीट देने में जो दरियादिली दिखाई और जो सामंजस्य दिखाया, वह महागठबंधन के घटक दलों के बीच अंतिम अंतिम समय तक नदारद रहा। महागठबंधन के कई महत्वपूर्ण नेता टिकट नहीं मिलने की वजह से नाराज होकर बाहर चले गए और भितरघात करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी।
यह हार का उतना बड़ा कारण शायद नहीं था। कारण रहा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। दरअसल, एनडीए के वोट बढ़ने के सबसे अहम कारण को समझने के लिए पिछले पांच साल में बिहार में उभरे एक ट्रेंड को समझना पड़ेगा। गांव-गांव शहर दर शहर शिव चर्चा जैसे धार्मिक आयोजनों की संख्या बढ़ी है तो नए-नए मंदिरों में प्राण-प्रतिष्ठा का चलन भी बढ़ा है। इसकी गति तेज हुई है। पिछले साल रामनवमी के दौरान इस राज्य के हजारों-लाखों ग्रामीण और शहरी युवाओं को लाखों की संख्या में तलवार बांटे गए। इंडियन एक्सप्रेस इस मुद्दे पर सिरीज में स्टोरी कर चुका है।
इन घटनाओं से भाजपा के हिंदू बनाम मुसलमान, बालाकोट के बाद पैदा किए गए उग्र राष्ट्रवाद के माहौल को हाथों हाथ लेने का माहौल बना और महागठबंधन से जुड़ी जातियों की महिलाओं को भी नरेंद्र मोदी कमोबेश आकर्षित करने में सफल रहे। महिलाओं के आकर्षण का एक कारण हालांकि शराबबंदी भी रही. फिर, बंगाल में ममता बनर्जी जिस तरह से अल्पसंख्यकवाद पर जोर दे रही थीं और भाजपा के साथ टकराव में थीं, उससे भी बिहार में विपक्ष को लेकर उत्साह घट रहा था और हिंदुत्व के एजेंडे पर ध्रुवीकरण बढ़ रहा था।
दूसरी तरफ बेगूसराय जैसे अपवाद को छोड़ दें तो मुसलमान तबका कमोबेश महागठबंधन के साथ था लेकिन सैकड़ों ऐसे बूथ मिल जाएंगे जहां मुसलमानों का वोट प्रतिशत गिरकर 28-35 फीसदी तक रह गया है। यानी एक तरफ सामान्य वोट 60 फीसदी तक जा रहा था, वहीं मुसलमानों के वोट डालने की रफ्तार कमजोर पड़ रही थी। इसका सबसे बड़ा कारण रोजगार की वजह से खाड़ी देशों या दूसरे राज्यों में पलायन है। आज से दस साल पहले इनके बूथों पर 80-85 फीसदी वोट होना आम बात थी। इसका भी खामियाजा महागठबंधन को भुगतना पड़ा।
अब बात अतिपिछड़ों की। गैर-यादव ओबीसी और अतिपिछड़ों को लुभाने के लिए एनडीए ने 14-15 सीटों पर गैर-यादव ओबीसी को टिकट बांटा। इसने बहुत बारीकी से जहानाबाद, सुपौल, झंझारपुर जैसी सीट पर अतिपिछड़ा को खड़ा कर बड़ा संदेश देने की कोषिश की। 1990 के दौर में लालू प्रसाद के उभार में गैर-यादव ओबीसी की बड़ी भूमिका थी। याद करें, उस दौर में लालू प्रसाद यादव की पार्टी में कोइरी, कुर्मी, धानुक के साथ साथ कुम्हार, नाई, बढ़ई, लोहार, डोम, रविदास, मल्लाह, बनिया, कहार (चंद्रवंशी), पासी जैसी जातियों के सैकड़ों छोटे-बड़े नेता सम्मान पा रहे थे। अब राजद में इन जातियों से आने वाले गिने-चुने लोगों की दूसरी पंक्ति के नेता बचे हैं।
इन जातियों के बीच यह प्रचारित किया जाता रहा कि यादव सामाजिक न्याय का सबसे बड़ा लाभार्थी है। यह अलग बात है कि पिछले पांच साल में नरेंद्र मोदी ने आरक्षण को खत्म करने की हरसंभव साजिश रची लेकिन महागठबंधन अपनी जनता और गैर-यादव ओबीसी व दलितों के बीच इसे समझाने में काफी हद तक नाकाम रहा।
यह मान भी लें कि कुशवाहा और मल्लाह समाज के बड़े हिस्से का वोट महागठबंधन को ट्रांसफर हुआ, तो भी गैर-यादव ओबीसी और अतिपिछड़ा का बड़ा हिस्सा एनडीए के साथ बरकरार रह गया। कहीं-कहीं स्थानीय कारणों या नीतीश कुमार से उपजी निराश की वजह से कुर्मी और धानुक का बहुत छोटा हिस्सा महागठबंधन को ट्रांसफर हुआ। इसी तरह से रविदास का बड़ा हिस्सा बसपा के साथ बना रहा। बसपा को इस चुनाव में 1.67 फीसदी वोट मिले। सासाराम और बक्सर में तो करीब 90,000 तक वोट हासिल करने में बसपा सफल रही। जीतन राम मांझी अपने वोट को कमोबेश ट्रांसफर कराने में असफल रहे, हालांकि मांझी मतदाताओं का बड़ा हिस्सा बाहर पलायन कर गया है और जो यहां हैं भी, उन्होंने काफी हद तक गैर-यादव के नाम पर एनडीए के साथ ही बने रहना मुनासिब समझा।
आखिरी बात, सामाजिक न्याय के मसीहा कहे जाने वाले लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति में तेजस्वी का नेतृत्व पारिवारिक तनाव में उलझ कर रह गया। बड़े भाई तेजप्रताप न सिर्फ फेसबुक और ट्विटर पोस्ट से तेजस्वी पर निशना साध रहे थे, बल्कि खुलेआम विरोध में रोड शो कर महागठबंधन के आधिकारिक उम्मीदवारों को हराने की अपील भी कर रहे थे। मीसा भारती की भूमिका भी संदिग्ध रही। उन्होंने पाटलिपुत्र, जहां से वे खुद उम्मीदवार थीं, को छोड़कर कहीं भी प्रचार में हिस्सा नहीं लिया। पूरे चुनाव प्रचार में पारिवारिक तनाव और स्वास्थ्य कारणों से तेजस्वी की करीब 25 सभाओं-रैलियों को अंतिम समय में रद्द करना पड़ा।
इन तथ्यों को संज्ञान में लिए बगैर बिहार के चुनाव नतीजों का विश्लेषण संभव नहीं है।
लेखक डेढ़ दशक तक दिल्ली में पत्रकारिता करने के बाद अब बिहार में शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हैं