हमारा समाज आज जितना सत्यशोधक कभी नहीं रहा। एक नीतिवाक्य जैसा दिखने वाला यह ओपनिंग वाक्य थोड़ी अकादमिक व्याख्या की मांग करता है। क्लासिकीय मार्क्सवाद कहता है कि सभ्यता और चेतना के बीच परस्पर कुंडलाकार गति होती है। सभ्यता ज्यों-ज्यो आगे बढ़ती है, चेतना का भी त्यों-त्यों उन्नयन होता जाता है। चेतना का उन्नयंन मतलब क्या? प्रत्येक चेतना का अंतिम लक्ष्य अपने समय के सत्य को पकड़ना होता है। सत्य का सत्व तथ्य को पकड़ने में होता है। तथ्य पकड़ में आया तो उसे वैचारिक झोल में डालकर यादृच्छिक सत्य को आसानी से पकाया जा सकता है। सत्य पक गया तो समझिए मोक्ष मिल गया। मोक्ष, मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है। आप सत्य के चक्कर में पड़ें या नहीं, मोक्ष मिलना तय है। यह बाइ डिफॉल्ट है। दिक्कत यह है कि हमारे महान भारतवर्ष की आबादी मेहनतकश है। श्रमिक है। यहां ग्रंथों में कर्म की महत्ता बतायी गयी है। बिना कर्म के फल नहीं मिलेगा। तो लोग कर्म करते हैं। न केवल फल चखने के लिए, बल्कि मोक्ष प्राप्ति के लिए भी। बड़े-बड़े विद्वान ही इस बात को पचा पाए हैं बिना कर्म किए भी मोक्ष देय है। जनता इतना नहीं समझती। इसीलिए वह तथ्य के पीछे भागती है। तथ्य मिला तो सत्य तय। सत्य मिला तो मोक्ष।
‘’ट्रुथ इज़ दि फर्स्ट कैजुअल्टी इन वॉर’’ मने जंग में सबसे पहली मौत सत्य की होती है- जिसने भी कहा था वह भारत नहीं आया रहा होगा वरना जान जाता कि यहां जंग ही सत्य और मोक्ष का अंतिम मार्ग है। इतिहास गवाह है। अशोक को कलिंग की जंग के बाद मोक्ष मिला। वह बुद्ध की शरण में गया। महाभारत के बाद ही युधिष्ठिर स्वर्ग जा सके। बरबरीक जंग में सिर कटाने के बाद ही खाटू श्याम बन कर तर सका। महाज्ञानी ब्राह्मण रावण को भी मोक्ष पाने के लिए जंग लड़नी पड़ी। सिकंदर दुनिया जीतकर यहां आया और उसके जंगजू दिमाग पर तारी सारा खून हवा हो गया जब एक पेड़ के नीचे सुस्ता रहे एक फ़कीरनुमा जीव ने उससे कह दिया- जाने दे जाने दे थोड़ी हवा आने दे। कहने का लब्बोलुआब यह कि जंग के दौर में हमारा समाज अतिरिक्त सत्यशोधक हो जाता है। चूंकि आजकल जंग का मौसम है, तो हर भारतीय का राष्ट्रीय कर्तव्य हो गया है कि वह सत्य पर बात करे, तथ्य को खोद निकाले और अपने-अपने मोक्ष का रास्ता खुद तैयार करे। जब से भारतीय राज्य कल्याणकारी नहीं रहा, जनता ने अपने अंतिम कर्म का जुगाड़ खुद करना शुरू कर दिया। पिछले तीस वर्षों में देश की नस-नस तक फैल चुका बीमा का कारोबार इसका ज्वलंत उदाहरण है।
तो किस्सा कोताह कुछ यूं है कि बहुत दिन से इस देश को मजा नहीं आ रहा था। सुबह और शाम का रंग एक सा था। सत्य तक पहुंचने के रास्ते झूठ के कुरुक्षेत्र वाले मैदान में धुआं धुआं हो चुके थे। कभी बेरोज़गारी का स्यापा तो कभी 13 प्वाइंट रोस्टर का हल्ला- लोग भ्रमित थे कि इन मामलों के सत्य से उनकी जिंदगी में क्या बुनियादी फर्क पड़ने वाला है। इसीलिए वे इनमें बहुत दिलचस्पी नहीं ले पा रहे थे लेकिन इनसे रह-रह कर विचलित जरूर हो जा रहे थे। उधर सरकार भी ऐसी तमाम अफवाहों से हलकान थी। खुद प्रधानमंत्री ने कह दिया कि उनके पास रोजगार सृजन के आंकड़े जानने का कोई तरीका नहीं है, फिर भी बेरोजगारों को राहत नहीं मिली। सरकार को एक मौके की तलाश थी। जनता को एक किक की ज़रूरत थी। दोनों ही बराबर फंसे हुए थे। कुछ ऐसा चाहिए था, जो इस महान राष्ट्र को वापस सत्य के संधान में लगा देता और सामूहिक मोक्ष की तैयारी करने की ओर सबको प्रवृत्त कर देता।
आप जानते हैं सत्य की बेचैनी क्या होती है? इस बेकली को वही समझ सकता है जिसे भारतीय वांग्मय का थोड़ा सा भी भान हो। याद करिए, अर्जुन जब द्रोणाचार्य की एकेडमी में निशाना लगाना सीख रहे थे तो उन्हें लक्ष्य पर फोकस करने के लिए द्रोणाचार्य ने किसका सहारा लिया था? चिडि़या की बायीं आंख का। एक पेड़ पर चिडि़या बैठी थी। अर्जुन को पहले कहा गया उसे देखो। जब अर्जुन को चिडि़या दिख गयी तो कहा गया कि उसकी बायीं आंख देखो। जब उसकी बायीं आंख पर अर्जुन की चेतना जा टिकी, तब ऑर्डर हुआ- फायर। अर्जुन ने तीर दाग दिया। तीर निशाने पर लगा या नहीं, इसके बारे में हमारे वांग्मय के लोकप्रिय संस्करणों में कुछ कहा नहीं गया है। द्रोणाचार्य और अर्जुन दोनों इस सच को समझते थे कि चिडि़या की बायीं आंख पर तीर का लगना मुद्दा ही नहीं है। मुद्दा यह है कि कैसे अर्जुन के भीतर सत्य प्राप्ति की बेकली को बाहर प्रोजेक्ट किया जा सके, कैसे उसे दिशा दी जा सके। द्रोणाचार्य ने वही किया। जिसे पश्चिम में आजकल गुस्से को ‘’वेन्ट आउट’’ करना या ‘’रिलीज़’’ करना कहते हैं, गुरु द्रोण ने अर्जुन के साथ वहीं किया था। सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी से उलट- चिडि़या भी बच गयी और तीर भी कामयाब रहा।
सच्चा गुरु उसी को कहते हैं जो भक्त के आक्रोश को ‘’वेन्ट आउट’’ कर दे और कोई ‘’कोलेटरल डैमेज’’ भी न हो। ऐसा काम वही गुरु कर सकता है जो ऑलरेडी मोक्ष प्राप्त हो। मने भारतीय संदर्भों में पहाड़-वहाड़ हो आया हो, तपस्या-वपस्या किया हो, छह घंटे सोता हो और अठारह घंटे जगता हो, जब चाहे तब झोला उठाकर फ़कीर की तरह निकल पड़ने को तैयार हो। ऐसा ही नेतृत्व समाज की ऊर्जा को सही दिशा में ठेल पाने में सक्षम होता है। अब यह भक्त की अपनी समस्या है कि वह अपनी ऊर्जा से हुए डैमेज का आकलन करने में और कितनी ऊर्जा खपाता है। यह उसका अपना निजी उद्यम है क्योंकि मोक्ष भी तो उसी को पाना है। इसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप की कोई ठोस वजह नहीं दिखायी देती।
इसीलिए जिस क्षण यह बात भारतीय वायुतरंगों के माध्यम से बाहर आयी कि पाकिस्तान के बालाकोट में 300 आतंकी भारतीय हमले में मारे गए हैं, उसी क्षण इस संख्या को वेरिफाइ करने में सकल जगत जुट गया। यह 300 की जादुई संख्या आई कहां से? यह बाद की बात है। ऐन उसी शाम जब तीन सौ मार्केट में आया था, चौराहे पर पान लगाते हुए पिंटू ने कहा- ‘’तीन सौ नहीं तो दो सौ सही, चलो पचास ही मान लेता हूं, अपने चालीस से तो ज्यादा है।‘’ लड़का सत्य के मामले में स्वल्पसंतोषी था, इतना तो पता चला। शुक्ला जी को लगा कि कांटा नीचे गिर रहा है। गंभीर मुद्रा बनाते हुए उन्होंने कहा- ‘’हजार किलो का मतलब समझते हो? बेकार का बात करते हो?’’ राष्ट्र की चिंता में मुंह से कैंसरकारी धुआं छोड़ते जैन ने मोबाइल से निगाह हटाते हुए निष्कर्ष दिया, ‘’तीन सौ तो अभी अंदाजे से बता रहे हैं। कल तक देखना फिगर बढ़ जाएगी।‘’
उस शाम ढाई मिनट की सरकारी प्रेस कॉन्फ्रेंस में संख्या को लेकर कुछ नहीं कहा गया। कहा जाना भी नहीं था। कह देते तो लोगों को कठिन सत्य आसानी से मिल जाता। बात सीमापार तक पहुंच चुकी थी। अल-जज़ीरा से लेकर बीबीसी तक जाबा पहुंच गए। सबने गिना। पाकिस्तान के बड़े सहाफ़ी हामिद मीर को मौका-ए-वारदात एक कौवा पड़ा हुआ मिला। वे तंज मिश्रित वस्तुपरकता के साथ बोले, ‘’इस कौवे की मौत का जिम्मेदार इंडियन एयरफोर्स है।‘’ बीबीसी और अन्य एक बूढ़े को पकड़ लाए, जिसे हज़ार किलो के बम से केवल मामूली ज़ख्म आए थे। धीरे-धीरे सत्य का संधान तीखा हुआ तो एक महिला पत्रकार ने तीनों सैन्यप्रमुखों की प्रेस ब्रीफिंग में पूछने का साहस कर डाला कि कितने मरे। एयर वाइस मार्शल ने कहा, ‘’मारे गए आतंकियों की संख्या बताना प्री-मैच्योर होगा।‘’ देश को पहली बार पता चला कि मरने के बाद मारे गए लोगों की संख्या बताना प्री-मैच्योर होता है। इससे पहले अंग्रेज़ों के इस पूर्व-उपनिवेश में लोग अंग्रेज़ी के ‘प्री’ का मतलब पूर्व समझते थे। यह हमले के ‘’उत्तर’’ की स्थिति में प्रयोग में लाया जा रहा था। यह नई अंग्रेज़ी का आविष्कार था जिस ओर दुनिया के विद्वानों की निगाह जानी अभी बाकी है।
बहरहाल, इस बीच कुछ विमान इधर से उधर गए और कुछ उधर से इधर आए। कुछ का मतलब पहले वाले 12 से कम ही था। काफी कम। दो या हद्दीहद्दा तीन। उसी में भसर मच गई कि सरहद पार अपने दो फौजी बंधक हैं या तीन। इधर भी उनके एक के मारे जाने की तलब उठी। उस पार से एक का वीडियो आया। सत्तर साल से संविधान को ताखे पर रखकर उस पर धूल का नैवेद्य चढ़ा रहा सवा अरब सत्यशोधकों का राष्ट्र जिनेवा संधि में उलझ गया। उस शाम जैन साहब ने मोबाइल में खोजकर चौराहे को बताया, ‘’एक हफ्ते में नहीं छोड़ा तो यह जिनेवा का उल्लंघन होगा।‘’ जिनेवा क्या? संधि या देश या कुछ और? इससे खास मतलब नहीं। यह भारतवर्ष के शब्दकोश में जुड़ी एक नई क्रिया थी जो देखने में संज्ञा जैसी लगती थी। जिनेवा का वाकई असर हुआ। अगले दिन ख़बर आई कि बंदी जवान अभिनंदन इधर आएगा। ‘’पूरे देश में हर्ष की लहर’’- टीवी के न्यूज़रूम में टिकर पर बैठे लड़कों ने पहले से इस पद को टाप कर के और कॉपी कर के रखा था, ऐसा एक श्रमजीवी पत्रकार ने बताया क्योकि उस दिन कई बार इसे पेस्ट करना पड़ा था। सुबह दोपहर हुई, दोपहर से शाम, अभिनंदन का अता-पता नहीं। चौराहा बेचैन।
किसी ने कहा कि उधर वाले जान-बूझ कर ‘हरमज़दगी’ कर रहे हैं। कोई बोला कि चलो आज नहीं तो कल, लेकिन दबाव में तो आ ही गए सब। रात में रिपब्लिक टीवी ने गोया सबके मन की बात पढ ली और अभिनंदन की वापसी को भारतीय प्रधान की ‘’टाइटेनिक जीत’’ करार दे दिया। लोगों ने एक बार इसे नई अंग्रेज़ी का प्रयोग समझ कर टाइटन तक सीमित रखा। कुछ ने याद दिलाया कि टाइटेनिक तो डूब गया था। यह बात आज से सौ साल पहले की है। भारत के लोग ऐसे भी अतीतजीवी नहीं हैं कि इतनी पुरानी बात याद रखें। टाइटेनिक डूब गया, लेकिन सबने इग्नोर मार दिया। ‘’पायलट प्रोजेक्ट पूरा हुआ’’- गरजा मोक्ष प्राप्त नेतृत्व। अभिनंदन आ चुका था।
मोक्ष पाने का अर्थ यह नहीं कि आप दूसरों के मोक्ष के रास्ते में अड़ंगा बन जाएं। पायलट आ गया था, लेकिन सत्यशोधकों की बेकली अभी मिटी नहीं थी। प्रोजेक्ट अभी बाकी था। सबसे बड़े सत्यार्थी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने अगले दिन सरकारी ‘सूत्रों’ के हवाले से लिख दिया कि गिराए गए बमों से जैश-ए-मोहम्मद के चलाए मदरसे के परिसर के भीतर बनी चार इमारतों को बेशक नुकसान पहुंचा लेकिन मारे गए लोगों की संख्या ‘’विशुद्ध स्पेक्युलेटिव’’ यानी ‘’विशुद्ध अटकलबाज़ी’’ है। इससे क्या साबित हुआ? ऐसी पत्रकारिता सत्तर साल में इस देश में नहीं हुई जहां अटकलबाज़ी को ‘’विशुद्ध अटकलबाज़ी’’ साबित करने के सरकारी ‘’सूत्रों’’ का सहारा लिया जाए। सत्य के संधान का अर्थ किसी तथ्य को स्थापित करना होता है, अतथ्य को नहीं। लगे हाथ एक किस्सा याद आ गया।
मार्केज़ को दुनिया उपन्यासकार मानती है। जादुई यथार्थवाद का चितेरा। मेरे खयाल में मार्केज़ बुनियादी रूप से एक पत्रकार था। जिस साल मैं पैदा हुआ, उसी साल मार्केज़ ने पेरिस रिव्यू को एक लंबा इंटरव्यू दिया था। उसमें उन्होंने साक्षात्कार लेने वाले से कहा- ‘’यदि आप लोगों से कहें तो आकाश मे हाथी उड़ रहे थे तो शायद कोई विश्वास न करे। यदि आप कहें कि आकाश में 425 हाथी उड़ रहे थे तो लोग शायद आपकी बात मान लें।‘’ कहने का आशय यह था कि फिक्शन को, गल्प को, विश्वसनीय बनाने के लिए तथ्य का होना बहुत ज़रूरी है। यह बुनियादी बात एक पत्रकार से बेहतर और कौन समझ सकता है? अब 1981 के बाद से यह तीसरी पीढ़ी है और बेचने के सारे गुर बाज़ार आज़मा चुका है, लिहाजा इसमें एक लाइन बस और जोड़ी जानी ज़रूरी है कि गल्प में छुपा तथ्य भी ऐसा हो जो आपको सोचने पर मजबूर कर दे। अब भारतीय पत्रकारों के गढ़े 300 और मार्केज़ के 425 में बुनियादी फ़र्क है। 300 पूर्ण संख्या लगती है, जैसे कि मुंह से बरबस निकल गई हो। 425 सुविचारित संख्या लगती है। मार्केंज़ से जबरदस्त प्रभावित मेरे एक मित्र हमेशा कहते हैं कि वे साढ़े तीन मिनट में या 17 मिनट में पहुंच रहे हैं। वे कभी नहीं कहते कि पांच या पंद्रह मिनट में पहुंच रहे हैं। सहज विश्वास ही नहीं होगा। कहने का फायदा?
आइए देखें, सत्य के शोध में लगे इस समाज में बीते हफ्ते किसने क्या-क्या निरर्थक कहा और कैसे यह सार्थक हो सकता था। चैनलों ने हमले के पहले दिन कहा तीन सौ। सब निरर्थक हो गया। 276 या 188 या 307 होता तो शायद विश्वसनीय होता। वजह? हमारे पत्रकार चतुर हैं लेकिन पढ़े-लिखे नहीं हैं। उन्होंने मार्केज़ को पढ़ा होता तो हमें मनवा ले जाते कि इतने आतंकी मारे गए हैं। अब सरहद पार चलिए। वहां हामिद मीर सहित दूसरों ने एक ज़ख्मी बूढ़ा और एक मरा हुआ कौवा दिखाया। इसे हकीकत के कई संस्करणों के हिसाब से हम सुर्रियल (surreal) कहेंगे- मतलब 12 विमान 20 जगहों से उड़कर और सीमापार 1000 किलो बम गिराकर चले आए और कुल जमा एक कौवा मरा? यह सुर्रियल है यानी स्वप्निल अर्थात् अवास्तविक। वे कौवा न दिखाते, तब भी एक आशंका रहती कि चलो, इलाका पूरी तरह साफ़ है मने लोग मारे तो गए ही होंगे। चूंकि ये सारे अंतरराष्ट्रीय पत्रकार पाकिस्तानी फौज के साये में जाबा गए और मदरसे तक पहुंच भी नहीं सके, लिहाजा और ज्यादा जानकारी की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी। हां, सबसे ताज़ा उद्घाटन थोड़ा आश्वस्त करने वाला है- अभी इटली की एक पत्रकार फ्रांचेस्का मरीनो ने अपने सूत्रों के हवाले से सौ फीसदी दावा किया है कि हमले में कोई चालीस से पचास आतंकी मारे गए थे। इतने पर तो मामला सेटल हो जाने देना चाहिए? भागते भूत की लंगोट भली? नहीं? लेकिन एक दिक्कत है। पूछिए क्या?
इस तथ्य के आने से पहले ही इंडियन एक्सप्रेस से उसके सरकारी सूत्रों ने कह दिया है कि संख्या को लेकर अब तक आए सारे तथ्य ‘’विशुद्ध अटकलबाज़ी’’ हैं। ठीक है कि यह बयान ‘घोषित सरकारी पक्ष’ नहीं है, केवल सूत्रों के मुताबिक है लेकिन इसने नेतृत्व के लिए एक आसान रास्ता बेशक खोल दिया है- इस तरह वह खुद को लगे हाथ पापमुक्त कर सकता है क्योंकि सरकार की ओर से तो संख्या को लेकर कोई अटकलबाजी अब तक की ही नहीं गई है जो उसे इसका दोषी ठहरा सके। मने बाकी सब दोषी, अकेले राजा मुक्त।
वैसे हम तो पहले से जानते हैं कि अपना राजा मुक्त है, साधु है। मोक्ष की तलाश में तो बाकी सब न हैं? मौका राजा ने ही दिया था। अब उसके गुप्तचर प्रजा के मोक्षसंधान को ‘’स्पेक्युलेटिव’’ कह कर पल्ला झाड़ रहे हैं। आपको ये मज़ाक लगता होगा, मुझे नहीं। ध्यान रहे, द्रोणाचार्य ने अर्जुन को यह कभी नहीं बताया कि चिडि़या की बायीं आंख फूटी कि नहीं। अर्जुन ने भी उनसे कभी नहीं पूछा। वह चुपचाप दिए हुए निशाने पर तीर मारता रहा लेकिन द्रोण ने कभी उस पर कोई टिप्पणी नहीं की। इस तरह कालांतर में अर्जुन महान धनुर्धर बन गया। अपना मोक्षदायी राजा भी इसी रणनीति का वाहक है। वह खुद कोई अटकलबाज़ी नहीं करेगा लेकिन सबको अटकलबाज़ी में फंसाये रखेगा क्योंकि वह जानता है सत्य का रास्ता यहीं से निकलेगा। कौवे की लाश से लेकर 300 वाया 35 तक सकल प्रजा लगातार तीर मार रही है- उसे अपना सत्य मिलना होगा तो मिल ही जाएगा, उसकी ज्यादा चिंता राजा को नहीं है। राजा को अपने सत्य की चिंता है।
अब आप पूछेंगे कि जिसे मोक्ष मिल चुका हो, उसे अपने सत्य की चिंता कैसी और क्यों? प्रत्येक राजा का अंतिम सत्य यही होता है कि प्रजा, प्रजा बनी रहे, राजा बनने के बारे में न सोचे। इसके लिए प्रजा को यह यकीन दिलाना ज़रूरी है कि सत्य ही अंतिम प्राप्य है, कुर्सी नहीं। अपना देश वैसे ही सत्यार्थियों का देश रहा है इसलिए अपने राजा को अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी पड़ती। केवल सत्य का एक मौका देना होता है लोगों को- जिसे पश्चिम वाले आजकल ‘’ट्रुथ ईवेन्ट’’ (truth-event) कहते हैं। ऐसे में सत्य किसी गेंद की तरह ढुलकता हुआ सरहद पार चला जाता है और प्रजा उसके पीछे-पीछे किसी कस्बाई फुटबॉल टीम की तरह टुकटुकी लगाए घुमड़ती रहती है। इधर दूसरे छोर पर खड़ा राजा चुपचाप अपना गोल साधते रहता है। दोस्तों को हवाई अड्डे बांटता रहता है। वैसे, गोल समझ रहे हैं न? अंग्रे़जी वाला गोल मने हिंदी में लक्ष्य। राजा का लक्ष्य ही राजा का सत्य है। राजा का लक्ष्य राजा बने रहना है, यह दुनिया का सबसे आसान जवाब है।
दिलचस्प बातें हैं। प्रजा का सत्य गोल है। हिंदी वाला गोल। राजा का गोल सत्य है। अंग्रेजी वाला गोल। हिंदी के गोल और अंग्रेज़ी के गोल के बीच जो कुछ बचता है, वही जादुई यथार्थवाद है। मार्केज़ होते तो अंग्रेज़ी में समझाते। हिंदी में इसे समझाना सत्य को पाने जैसा दुष्कर काम है। यह मेरे बस का नहीं।
(लेखक मीडियाविजिल के कार्यकारी संपादक हैं)