क्या अब भूटान भी चीन की गोद में जा बैठेगा? चंद्रभूषण
कुल आठ लाख आबादी वाले पड़ोसी देश भूटान में कैसी भी सरकार बने, भारत के लिए इसमें चिंतित होने की भला क्या बात हो सकती है? लेकिन भारतीय कूटनीतिक दायरे में अभी भूटान के चुनाव नतीजों को लेकर गहरी चिंता देखी जा रही है।
हाल तक जिस पार्टी पीडीपी की सरकार वहां चल रही थी, जिसने चीन के साथ हुए डोकलाम विवाद में भारत के दखल का खुलकर समर्थन किया था और 79 दिन वहां अपनी जमीन पर चीन के मुकाबले में जमी हिंदुस्तानी फौज का साथ दिया था, उसे पिछले वृहस्पतिवार को हुए आम चुनावों में एक भी सीट नहीं मिल पाई।
कुल 47 सीटों वाले निचले सदन में 30 सीटें जीतकर सरकार बनाई है सिर्फ पांच साल पहले बनी पार्टी डीएनटी ने, जिसे मध्य-वाम विचारधारा वाला दल बताया जा रहा है, हालांकि चुनाव प्रचार में उसका सारा जोर सबको अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं देने और बेरोजगारी खत्म करने पर ही था। यहां एक गलतफहमी दूर कर देना बहुत जरूरी है। पीडीपी के आम चुनाव में एक भी सीट न पाने का मतलब यह नहीं है कि भूटान में उसके खिलाफ, या उसके बहाने भारत के खिलाफ सूपड़ा साफ कर देने वाली कोई लहर चल रही थी।
मामला सिर्फ इतना है कि इतना छोटा लोकतंत्र (व्यवस्था की दृष्टि से संवैधानिक राजतंत्र) कहीं राजनीतिक अस्थिरता का शिकार न हो जाए, यह सोचकर भूटान में संसदीय चुनाव फ्रांस और रूस की तरह दो चरणों में कराने की व्यवस्था बनाई गई है। पहले चरण में सभी पार्टियां चुनाव लड़ती हैं, जबकि दूसरे चरण के चुनाव पहले और दूसरे नंबर पर रही पार्टियों के बीच ही होते हैं।
इस बार पहले चरण के चुनाव में 32 प्रतिशत वोट नई पार्टी डीएनटी को और 31 प्रतिशत वोट 2008 में हुए देश के पहले आम चुनाव में सरकार बनाने वाली डीपीटी को मिले, जबकि 2013 में सरकार बनाने वाली पीडीपी 27 फीसदी वोटों के साथ तीसरे नंबर पर चली गई और अगले चरण में जाने का उसे मौका ही नहीं मिला।
बहरहाल, संसद में प्रतिनिधित्व का मौका पहले चरण में पिछड़ गई पार्टियों को भी मिलता है, लेकिन ऊपरी सदन के जरिये। 20 सदस्यों वाले उच्च सदन की पांच सीटें राजा के मनोनयन से भरी जाती हैं, जबकि 15 सीटों पर प्रतिनिधि राजनीतिक दलों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर चुने जाते हैं। इस तरह सरकार या विपक्ष के रूप में पीडीपी भले ही अनुपस्थित हो, पर संसद के ऊपरी सदन में 4 सदस्यों का प्रतिनिधित्व उसे फिर भी प्राप्त होगा।
भारतीय कूटनीतिज्ञों के लिए चिंता का विषय यह है कि पेशे से सर्जन, डीएनटी पार्टी के शीर्ष नेता और संभावित प्रधानमंत्री लोटे त्शेरिंग अगर ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ और ‘बेरोजगारी मुक्त भूटान’ के अपने कामयाब नारे को अमल में उतारने के लिए सहयोग और सहायता की उम्मीद में चीन की तरफ जरा भी झुक गए तो नेपाल के बाद भूटान भी भारत के हाथ से जाता रहेगा और हमारी लगभग समूची उत्तरी सीमा संकटग्रस्त मानी जाने लगेगी।
इसके लिए भूटान का ऐसी कोई घोषणा करना भी जरूरी नहीं है। चीन के उप विदेशमंत्री बीती जुलाई में भूटान आए थे और झगड़ा खत्म करने के लिए उन्होंने विवादित डोकलाम की 100 वर्ग किलोमीटर जमीन अपने पास रखकर अपनी (या यूं कहें कि तिब्बत की) इतनी ही जमीन कहीं और भूटान को देने की पेशकश की थी।
शांति, सुख, समृद्धि वगैरह का हवाला देते हुए नए शासन वाला भूटान अगर चीन की किसी प्रत्यक्ष-परोक्ष आर्थिक सहायता की एवज में यह पेशकश स्वीकार कर लेता है तो भारत का ताकतवर उत्तरी पड़ोसी ‘चिकन-नेक’ (भूटान और बांग्लादेश के बीच पड़ने वाली भारत की पतली सी पट्टी) पर चढ़ बैठेगा और भारत से इसका विरोध भी करते नहीं बनेगा।
चीन का बना काफी सारा सामान बांग्लादेश के रास्ते भूटान में अभी ही आने लगा है। भारत-बांग्लादेश-भूटान-नेपाल भूतल परिवहन समझौते को मान्यता न देकर अपनी स्वतंत्र कूटनीति का संकेत भी भूटान ने दे ही दिया है। जाहिर है, दोनों देशों के रिश्तों में अगले कुछ साल जरा ज्यादा ही संवेदनशील होने वाले हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।