देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में जो संशोधन किए गए थे उसके खिलाफ दलित संगठनो द्वारा भारत बंद का आयोजन करके मोदी सरकार के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार किया गया। इस गुस्से की वजह केन्द्र सरकार द्वारा सर्वोच्च अदालत में इस अधिनियम की समाज में अनिवार्यता क्यों है- पर ठोस पैरवी नही किया जाना था। दलित समुदाय के इस गुस्से के बाद मोदी सरकार द्वारा अधिनियम पास करके सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किए गए संशोधनों को निष्प्रभावी करते हुए इसके मूल स्वरूप को फिर से बहाल कर दिया गया। लेकिन, इस बहाली के तत्काल बाद, देश की गैर दलित आबादी खासकर सवर्ण समुदाय के कुछ लोग और उनके जातीय संगठन गुस्से में आ गए और अधिनियम के कथित उत्पीड़क प्राविधानों के खिलाफ सड़क पर उतर आए।
इन प्रदर्शनों के बीच, तीन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं और भाजपा की फौरी उलझन यह है कि वह अपने आधारभूत सवर्ण मतदाताओं की नाराजगी को शांत कैसे करे? इस अधिनियम के खिलाफ सवर्ण चुनाव में ’नोटा’ इस्तेमाल करने की धमकी दे रहे हैं। इन प्रदर्शनों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग और उनके जातीय संगठन साथ नहीं आए।
देश में दलितों के खिलाफ लगातार बढ़ रही हिंसा के आंकड़ों बीच इस अधिनियम को लेकर नाराज सवर्णों को भाजपा कैसे ’मैनेज’ करेगी यह तो आने वक्त बताएगा, लेकिन इस प्रकरण में इस तथ्य को समझना पड़ेगा कि सवर्णों में अचानक आए इस गुस्से की असल वजह क्या है? आखिर वे कौन लोग हैं जो अदालती संशोधन की आड़ में सड़कों पर इस तरह का हंगामा मचा रहे हैं? आखिर इनके पीछे कौन सी राजनीति काम कर रही है जो वंचित तबकों की सुरक्षा के लिए बने इस अधिनियम को अपने लिए ’फांसी’ का फंदा मान रही है?
दरअसल सवर्ण और उनके कुछ स्वयंभू संगठनों का पूरा गुस्सा इस अधिनियम को लेकर यह है कि किसी झूठी शिकायत पर भी उनका पुलिसिया उत्पीड़न किया जाएगा। उनके मुताबिक सर्वोच्च अदालत द्वारा इस अधिनियम में किए गए संशोधनों को मोदी सरकार द्वारा पलट दिए जाने के बाद उनके उत्पीड़न का पूरा जाल बुना जा चुका है। उनका गुस्सा अदालत के फैसले को निष्प्रभावी करने पर है जो कथित अपराधी को काफी राहत देता था।
एक तरह से देखा जाए तो सवर्णों के गुस्से का यह मामला दरअसल पुलिस मशीनरी द्वारा कथित अपराध की विवेचना के नाम पर अभियुक्त और उनके परिजनों से धन उगाही करने, बलैकमेल करने और विफल रहने की स्थिति में फर्जी तरीके से जेल भेज दिए जाने को लेकर है। यहां यह भी गौरतलब है कि यूएपीए, दहेज उत्पीड़न और अफस्पा जैसे कई कानूनों का बहुत ज्यादा मात्रा में दुरुपयोग होता है लेकिन देश के सवर्ण समुदाय द्वारा एक तरह से इस पर चुप्पी है। आखिर ऐसा किस मानसिकता के तहत किया गया है? यदि कानून का दुरुपयोग ही असल मसला है तब केवल इसी अधिनियम पर बहस क्यों?
असल में इस देश के सांप्रदायिक और गरीब विरोधी तंत्र द्वारा अफस्पा, यूएपीए जैसे कानूनों का इस्तेमाल दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के संगठित उत्पीड़न का जरिया है। इससे सवर्णों को कोई दिक्कत नहीं है इसलिए इस पर कोई बात नहीं हो रही है। यही नहीं, दहेज उत्पीड़न में फंसा व्यक्ति पुलिस को मैनेज करके बच सकता है। विवेचना में ’खेल’ किया जाना तथा असल अपराधियों को बचाया जाना पुलिस में बहुत आम बात है। इसमें अपराध सिद्ध होने का प्रतिशत भी बहुत कम है। इसलिए इस पर बात नहीं हो रही है।
दरअसल यह सारा मामला सीआरपीसी के उत्तरदायित्वविहीन ढांचे का है जिसे जिम्मेदार और पारदर्शी बनाने की मांग कोई नहीं करता है। इसकी वजह यह है कि पूरे सिस्टम में सवर्ण वर्चस्व है और पारदर्शिता से उसे घोर ’नफरत’ है। यही कारण है कि सवालों को ’चयनात्मक’ ढंग से गलत दिशा में सतही ढंग से उठाया जा रहा है।
यहां यह बात भी दिलचस्प है कि करणी सेना जैसे घोर अराजक सामंती संगठन जो कि अदालती निर्देशों की आड़ लेकर इस अधिनियम के खिलाफ सड़क पर उतर रहे हैं वे ईमानदारी से अदालत के निर्देशों के प्रति कितने समर्पित और वफादार हैं इसका अंदाजा ’पद्मावत’ फिल्म के प्रदर्शन प्रकरण में साफ दिखाई दे चुका है।
दरअसल इस अधिनियम का विरोध करने वाले लोग सामंती मानसिकता के वो लोग हैं जिन्हें दलितों को प्रताड़ित करने का खुला लाइसेंस चाहिए। उन्हें कोई रोक-टोक पसंद नहीं है। इन लोगों को समानता भरे लोकतंत्र में घुटन होती है। अगर ऐसा नहीं हेाता तो फिर वे सब सीआरपीसी सहित विवेचना अधिकारी को ज्यादा जिम्मेदार और विवेचना तथा न्यायिक तंत्र को पारदर्शी बनाने की मांग करते। लेकिन बेहद शातिराना तरीके से सारी बहस को इस अधिनियम के खिलाफ शुरू कर दिया गया। दरअसल सवर्णवादी सरकार में कुछ लोगों की सामंती मानसिकता हिलोरें मार रही है और दलित समुदाय का सामाजिक और राजनैतिक रूप से सशक्त होना उन्हें कतई पच नहीं रहा है। यही कुंठा सड़कों पर नाच रही है। चाहे वह राजा भइया के पिता हों या फिर कोई और- सड़क पर उतरे लोगों के लिए यह फर्जी उत्पीड़न तो सिर्फ एक बहाना भर है। सवाल जातिगत श्रेष्ठता को मिलने वाली चुनौती से उपजी असहाय कुंठा है।
इस अधिनियम को ’शैतानी’ बनाने के प्रचार के पीछे लगे लोगों को एक तथ्य पर गौर करना चाहिए। किसी एक जिले में एक माह में पुलिस को उपरोक्त अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज करने के लिए जितने भी आवेदन प्राप्त होते हैं उनमें से शायद दस फीसदी आवेदन ही मुकदमे के बतौर दर्ज हो पाते हैं। यह बात अलग है कि इन दर्ज मुकदमों में से कितने में इस अधिनियम के तहत चार्जशीट अदालत में भेजी जाती है- इस पर भी बात होनी चाहिए। यही नहीं आरोप पत्र दाखिल होने के बाद कई मामलों में अपराध साबित ही नहीं होता है। सवर्ण और गरीब विरोधी इस व्यवस्था में दलितों के खिलाफ होने वाले अपराध बड़ी संख्या में दर्ज ही नहीं किए जाते। यह एक कठोर सच्चाई है जिसे कुछ खास तरीके से नकारा जा रहा है। ऐसा करने वाले संघ के लोग हैं क्योंकि उनके मुताबिक वर्ण व्यवस्था से किसी को कोई समस्या नहीं थी। क्योंकि प्राचीन भारत का महिमामंडन उसके हिन्दू-राष्ट्र के राजनैतिक दर्शन के लिए भी एक आदर्श स्थिति है।
जहां तक इस विरोध के पीछे राजनीति का सवाल है इसके पीछे संघ की एक ताकतवर लाॅबी लगी हुई है। विरोध प्रदर्शन के दौरान जितने भी स्वयंभू संगठन सड़क पर देखे गए- विचार के स्तर पर सभी घोर सामंती, दलित विरोधी, जातिवादी और पितृसत्ता के समर्थक हैं। कई समूह तो सीधे भगवा झंडा लेकर ही सड़क पर घूम रहे थे।
दरअसल संघ ऐसे समाज में यकीन रखता है जहां इस तरह के कानून नहीं होने चाहिए। वह इस ऐतिहासिक तथ्य को नकारता है कि जातिगत उत्पीड़न इस देश में एक सच्चाई रहा है। लेकिन लोकतंत्र की यह मजबूरी है कि उसे सवर्ण और ब्राम्हणवादी मानसिकता को नियंत्रित करने वाले कानून जिन्दा रखने पड़ रहे हैं। लेकिन अपने मूल दर्शन के अनुरूप अफवाह तंत्र का इस्तेमाल करके संघ द्वारा यह दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि सवर्ण या गैर दलितों पर आफत आ पड़ी है। इस कदम से एक तरफ नरेन्द्र मोदी को दलितों का मसीहा बनाने बनाने की कोशिश की जा रही है जो कि सवर्णों के कथित दबाव के आगे भी नहीं झुका। लेकिन दूसरी ओर का खेल यह है कि पुलिस को इस अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज करने से ही रोक दिया जाएगा। इस तरह का खेल पिछली मायावती सरकार ने उत्तर प्रदेश में किया था जहां सवर्ण वर्चस्वाद को वैधता देते हुए पुलिस को मुकदमा दर्ज करने से ही रोक दिया गया था। यह केवल दलितों को ढगने का एक यज्ञ है। जिसमें संघ शामिल है। मुझे नहीं लगता कि ’नोटा’ इस्तेमाल करने का सतही प्रचार बहुत दिन टिक पाएगा। संघ की भारत माता पर आए कथित इस्लामी खतरे से निपटने के लिए ’मोदी’ जरूरी है की एक प्रायोजित घटना ’नोटा’ प्रचार की हवा निकाल देगा।
कुल मिलाकर यह सब संघ प्रायोजित खेल है जिसमें अंततः सवर्णों और दलितों को सम्मिलित रूप से ठगा जाना है। इस बहस के बाद आवाम की बेहतरी और नरेन्द्र मोदी सरकार की असफलताओं से उपजे सवाल अब राजनीति से गायब हैं। चुनाव के समय यही असल खेल है जिसकी पूरी स्क्रिप्ट में संघ अंदर तक घुसा हुआ है।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार हैं