हिंदी का बढ़ता दायरा बनाम विलुप्ति के कगार पर खड़ी चालीस भाषाएँ!


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प्रकाश के रे 

सवा सौ करोड़ के भारत में 19,569 भाषाएँ और बोलियाँ मातृभाषा के रूप में बोली जाती हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत महारजिस्ट्रार एवं जनगणना आयुक्त के कार्यालय ने 2011 की जनगणना के भाषायी विश्लेषण के आँकड़ों में यह जानकारी दी है. चूँकि भाषाओं को श्रेणीबद्ध और वर्गीकृत करने की इस विभाग की अपनी प्रक्रिया है, तो बड़ी संख्या में भाषाओं-बोलियों को कुछ भाषाओं में समाहित कर दिया गया है.

जनगणना के प्रमुख आँकड़े

भाषिक छँटनी और संपादन के बाद 19,569 की संख्या को 1,369 रेशनलाइज़्ड भाषाओं और बोलियों को मातृभाषा वर्ग में तथा 1,474 भाषाएँ और बोलियाँ अवर्गीकृत मानते हुए अन्य मातृभाषा श्रेणी में रखा गया है. इसके बाद 1,369 भाषाओं-बोलियों को और वर्गीकृत करते हुए 10 हज़ार या उससे अधिक की जनसंख्या द्वारा उपयोग में लायी जानेवाली भाषाओं-बोलियों को कुछ भाषाओं के अंतर्गत डाल दिया गया है. इस प्रक्रिया के बाद अंतिम रूप से भाषाओं की संख्या 121 निर्धारित की गयी है. इनमें से 22 भाषाएँ संविधान में अनुसूचित हैं. शेष 99 भाषाओं के साथ उन अन्य भाषाओं-बोलियों को रखा गया है जिनके बोलने वाले 10 हजार से कम हैं.

वर्ष 2001 की जनगणना में अनुसूचित सूची से बाहर की भाषाओं-बोलियों की संख्या 100 थी, लेकिन इस बार दो भाषाएँ शामिल नहीं हो सकी हैं और उन्हें विलुप्त मान लिया गया है. सिम्ते और फ़ारसी के बोलनेवाले बहुत थोड़े हैं और माओ भाषी इस बार 10 हजार की संख्या से अधिक हैं. जनगणना के अध्ययन के अनुसार, देश में कुल 270 ऐसी मातृभाषाएँ हैं जिन्हें चिन्हित किया है और इनमें से 123 को अनुसूचित भाषाओं में तथा 147 को शेष 99 में शामिल कर दिया गया है.

अब इस वर्गीकरण के बाद देश की जनसंख्या का 96.71 प्रतिशत भाग कोई-न-कोई अनुसूचित भाषा मातृभाषा के रूप में बोलता है और शेष 3.29 प्रतिशत अन्य भाषाएँ और बोलियाँ बोलते हैं.

आँकड़ों की पड़ताल

इन आंकड़ों और वर्गीकरण के कुछ संबंधित पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है. जनसंख्या का 43.63 प्रतिशत हिस्सा हिंदीभाषी है. वर्ष 2001 की जनगणना में यह आंकड़ा 41.03 प्रतिशत था. दस सबसे बड़ी भाषाओं में केवल हिंदी में बढ़त है. अन्य बड़ी भाषाओं के बोलने वाले की संख्या बढ़ी है, पर जनसंख्या के प्रतिशत के अनुपात में कमी आयी है. हिंदी की बढ़त में दो कारक महत्वपूर्ण हैं. एक तो हिंदी पट्टी की जनसंख्या तेज़ी से बढ़ती रही है जिसके कारण इस भाषा को बोलने वालों की संख्या 1971 से ही बढ़ रही है. दूसरा कारण यह है कि हिंदी में भोजपुरी, राजस्थानी, पोवारी, कुमायूंनी आदि कुछ भाषाओं के बोलने वालों को भी जोड़ा गया है. भोजपुरी और राजस्थानी को अनुसूचित श्रेणी में डालने की माँग लंबे समय से की जा रही है. इस तरह के आँकड़ों से इस माँग की धार कम हुई है.

एक अनुमान यह भी है कि कई उर्दूभाषी भी मातृभाषा के रूप में हिंदी का उल्लेख किये हैं. पिछली जनगणना की तुलना में उर्दू को मातृभाषा बताने वालों की संख्या में इस बार 1.5 प्रतिशत की गिरावट आयी है. अनुसूचित भाषाओं में उर्दू और कोंकणी ही दो भाषाएँ है जिनके भाषी घटे हैं. यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि उर्दू की यह कमी बिहार और उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक है. यह भाषा आमतौर पर मुस्लिम समुदाय द्वारा बोली जाती है और इन दो राज्यों में 2001 और 2011 के बीच इस समुदाय की जनसंख्या बढ़ी है. कुछ पर्यवेक्षकों की राय है कि उर्दू में कमी और संस्कृत में बढ़त का एक कारण दक्षिणपंथी राजनीति का उभार भी हो सकता है. वर्ष 1991 की जनगणना में संस्कृत को अपनी मातृभाषा बताने वालों की संख्या में बड़ा उछाल आया था, पर 2001 में उसमें बड़ी गिरावट भी आयी थी. इस बार फिर बढ़त दिख रही है.

हिंदी और बंगाली (कुछ सीमा तक मराठी के भी) से संबद्ध आंकड़े एक अन्य पहलू की ओर संकेत करते हैं, जो पलायन से जुड़ा हुआ है. दक्षिण भारतीय राज्यों, महाराष्ट्र और गुजरात में इन भाषाओं के बोलने वालों की संख्या में 2001 की तुलना में बहुत वृद्धि हुई है. इसका एक अर्थ यह भी है कि दक्षिणी राज्य रोज़गार के अवसर अधिक दे रहे हैं जिसके कारण पलायन का रूझान उधर है. राज्यों के विकास की नयी सूची भी यही इंगित कर रही है कि दक्षिणी राज्य हर क्षेत्र में उत्तर भारत के प्रदेशों से बहुत आगे हैं. लगभग तीन दशक पहले प्रारंभ हुई आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के बाद से दक्षिण भारतीयों का मुंबई और दिल्ली जैसे केंद्रों में आना निरंतर कम हुआ है. कहने का तात्पर्य यह है कि देश की आर्थिकी का केंद्र अब दक्षिण में है. वर्तमान वित्त आयोग द्वारा आवंटन को लेकर दक्षिण राज्य यही आपत्ति जता रहे हैं कि जनसंख्या नियंत्रण करने और विकास करने जैसे सकारात्मक परिणामों के बाद भी उन्हें समुचित आवंटन देने में कोताही बरती जा रही है.

हिंदी और कुछ अन्य बड़ी भाषाओं को लेकर कथित श्रेष्ठता राजनीतिक और सामाजिक पूर्वाग्रह तथा जनगणना के अध्ययन की प्रक्रिया की कमियों के कारण देश की भाषायी विविधता को बहुत चोट पहुँच रही है. भाषायी विविधता के वैश्विक सूचकांक में 2009 में भारत का स्थान नौवाँ था, परंतु 2017 में यह 14वें पायदान पर लुढ़क गया.

विलुप्त होती भाषाएँ

देश में 40 से अधिक ऐसी भाषाएँ चिन्हित की गयी हैं जिनके विलुप्त होने का ख़तरा है. इन भाषाओं के बोलने वालों की संख्या कुछ हज़ार है. यूनेस्को का आकलन है कि बीते पाँच दशकों में भारत में 220 से अधिक भाषाएँ मर चुकी हैं तथा 197 भाषाओं के समाप्त होने की आशंका है. हमारे देश में भाषाओं के बचाने की कोई ठोस नीतिगत पहल नहीं है और उनके वर्गीकरण की प्रक्रिया लापरवाह है. वर्ष 1961 की जनगणना में 1,652 भाषाओं-बोलियों को मातृभाषा के रूप में चिन्हित किया गया था, पर 1971 में यह संख्या सौ के आसपास हो गयी. यही आज 121 बतायी जा रही है. भाषाविद जीएन देवी की मानें, तो देश में 780 जीवंत भाषाएँ-बोलियाँ हैं जिनमें से 400 पर हमेशा के लिए विलुप्त होने का ख़तरा है. उनका कहना है कि भाषाओं के बारे 1971 से अब तक विस्तृत सार्वजनिक सूचना उपलब्ध नहीं होने के कारण जनगणना विभाग के अलावा किसी भी अन्य संस्था के लिए भाषाओं की विविधता का समुचित मापन असंभव है.

यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जिन भाषाओं के विलुप्त होने की आशंका है या जो समाप्त हो गयी हैं, वे मुख्य रूप से आदिवासी और वंचितों की भाषाएँ-बोलियाँ हैं. जब भाषाओं को लिपि होने या न होने के आधार पर या उनके बोलने वालों की वंचना का लाभ उठाकर भाषाओं को अनुसूचित किया जाता है, उनके लिए आवंटन किये जाते हैं, उनके आधार पर राज्यों-क्षेत्रों का गठन होता है, तो यह भी समझा जाना चाहिए कि भाषाओं को ‘अन्य’ श्रेणी में डालना न केवल भयावह सांस्कृतिक घाटा है, बल्कि समुदायों को हाशिये पर धकेलने का उपाय भी है. कुछ भाषाओं को प्रमुखता देकर शेष भाषाओं के साथ संवादहीनता कई स्तरों पर राष्ट्रीय जीवन में दरार पैदा कर सकती है. दुर्भाग्य की बात है कि 1926 में अँग्रेज़ी शासन के द्वारा प्रारंभ किया गया भाषाओं के साथ दुर्व्यवहार का सिलसिला स्वतंत्र भारत में भी जारी है.


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं