प्रकाश के रे
अरब के उथल-पुथल माहौल में इराक़ी संसद के चुनावी नतीज़ों ने नया आयाम जोड़ दिया है. शिया नेता मुक्तदा अल-सद्र के नेतृत्व में सायरून गठबंधन ने अप्रत्याशित जीत दर्ज की है. इस गठबंधन में इराक़ी कम्यूनिस्ट पार्टी समेत कुछ सेकुलर दल भी शामिल हैं. सायरून ने कुल 329 सीटों में से 54 पर जीत हासिल की है. सबसे बड़े गुट के रूप में उभरने के बावजूद इसे बहुमत हासिल नहीं है और सरकार के गठन के लिए अन्य गठबंधनों का सहारा लेना पड़ेगा. माना जा रहा है कि नयी सरकार के बनने में अभी वक्त लगेगा, लेकिन यह तय है कि उसमें सायरून की अग्रणी भूमिका होगी. बीते 15 सालों से इराक़ युद्ध और आतंक के साये में तबाही से गुजर रहा है. इस्लामिक स्टेट से अभी-अभी आजादी मिली है, पर आतंकी हमलों की घटनाएं अब भी हो रही हैं. अमेरिकी और तुर्की सेनाएं देश में मौजूद हैं तथा मध्य-पूर्व के दो अहम देश- ईरान और सऊदी अरब- इराकी सियासत में अपना दखल बढ़ाने की कवायद में लगे हुए हैं.
बहुसंख्यक शिया आबादी का प्रतिनिधित्व कई दल करते हैं, तो सुन्नी और कुर्द तबकों की भी अपनी पार्टियां हैं. ऐसे में अमेरिका और ईरान से समान दूरी रखनेवाले सद्र का सियासी कद बढ़ना तथा उनके साथ कम्यूनिस्टों का संसद पहुंचना निश्चित रूप से काबिलेगौर घटनाएं हैं. गरीबी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार के सवालों को इस गठबंधन ने प्रमुखता से उठाया था. बगदाद समेत कुछ अन्य खास शहरों में मिले जन-समर्थन से यह साफ समझा जा सकता है कि इराकी जनता का बड़ा हिस्सा आतंरिक और बाह्य स्वार्थों से छुटकारा पाकर अपने बुनियादी मुश्किलों के हल की ख्वाहिश रखता है. अल्पसंख्यक सुन्नी और कुर्द जनता भी रूझान कुछ ऐसा ही है. इस चुनाव में महज 44.5 फीसदी मतदान हुआ था. इसका सीधा मतलब है कि बड़ा तबका सियासत से नाखुश और निराश है, पर नतीजे यह भी बताते हैं कि लोगों में बदलाव की उम्मीदें भी बाकी हैं.
कौन हैं मुक्तदा अल-सद्र
चुनाव में ईरान-समर्थित शिया लड़ाका हादी अल-अमीरी के गठबंधन को दूसरे तथा मौजूदा प्रधानमंत्री हैदर अल-अबादी के गुट को तीसरे स्थान पर धकेलनेवाले मुक्तदा अल-सद्र दो दफा अमेरिकी सेनाओं के खिलाफ विद्रोह कर चुके हैं तथा वे इराक में ईरान के असर के भी मुखर विरोधी रहे हैं. इस्लामिक स्टेट को पीछे हटाने में ईरान-समर्थित शिया लड़ाकों की बड़ी भूमिका रही है. इस कारण भी ईरानी दखल बढ़ा है. युवाओं और गरीबों में जनाधार रखनेवाले सद्र के हाथ में सत्ता आने से देश की अंदुरुनी राजनीति तथा अमेरिका और ईरान जैसी बाहरी ताकतों के समीकरण तेजी से बदल सकते हैं. इस शिया मुल्ला के लाखों अनुयायी हैं और वे लंबे समय से अमेरिकी सेनाओं को हटाने की मांग करते रहे हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे बाशिका में तुर्की सैनिक ठिकाने का बरकरार रहना भी बर्दाश्त नहीं करेंगे. साल 2016 में उनके एक इशारे पर राष्ट्रवादी इराकियों ने तुर्की दूतावास को घेर लिया था. पिछले कुछ समय से वे सरकार में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ अंदोलनरत हैं.
साल 2003 में अमेरिकी हमले के तुरंत बाद सद्र ने महदी सेना बनाकर अमेरिकियों के नाक में दम कर दिया था. यह शिया समुदाय की ओर से अमेरिका को सबसे बड़ी चुनौती थी. अमेरिका ने मुक्तदा अल-सद्र को पकड़ने या मार देने का आदेश भी जारी कर दिया था. करीब दस हजार लड़ाकों के इस गुट पर सुन्नियों पर जोर-जबर करने का आरोप भी लगा था. सद्र ने 2008 में अपनी सेना को भंग कर दिया था, पर 2014 में इस्लामिक स्टेट के उभार के बाद इसे फिर से सराया अल-सलाम के बैनर से सक्रिय किया गया था.
सद्दाम हुसैन की तानाशाही के दौर में अल-सद्र के पिता मोहम्मद मोहम्मद सादिक अल-सद्र शिया समुदाय के वरिष्ठ धार्मिक नेता थे और तानाशाही की ज्यादतियों का विरोध करने के कारण 1990 के दशक में दो बेटों के साथ उनकी हत्या कर दी गयी थी. मुक्तदा अल-सद्र के ससुर मुहम्मद बाकिर अल-सद्र भी बड़े मौलाना थे. गरीबों के लिए आवाज उठाने के लिए इराक में इन दोनों का आज भी बहुत सम्मान है.
पिछले साल से अल-सद्र ने अपनी राजनीति में नये आयाम जोड़े हैं. इराक के पड़ोसी खाड़ी देशों से नजदीकी बढ़ाने के साथ उन्होंने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात का दौरा भी किया है. साल 2017 की सऊदी यात्रा में उन्होंने सऊदी शहजादे मोहम्मद बिन सलमान से मुलाकात भी की थी. पहले सुन्नी-बहुल खाड़ी देश इराकी शियाओं से दूरी बनाकर रखते थे. इसका एक कारण इस समुदाय पर ईरान का प्रभाव था. परंतु अब ये देश इराक में खूब निवेश कर रहे हैं और आर्थिक सहायता दे रहे हैं. चुनाव से पहले ही सद्र ने फिरकापरस्ती को छोड़ने तथा सेकुलर सुन्नी जमातों और कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गठबंधन की घोषणा की थी. उन्होंने हिंसा के पक्ष में बोलना भी बंद कर दिया था. हालांकि जानकारों का मानना है कि अमेरिकी सेना द्वारा फिर से इराक पर दखल बनाने की हालत में अल-सद्र का रवैया बदल भी सकता है.
सरकार बनने की संभावनाएं
इराकी व्यवस्था के अनुसार, सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को 90 दिनों के भीतर अन्य दलों से बात कर बहुमत की सरकार बनाना होता है. सद्र चूंकि खुद उम्मीदवार नहीं थे, इसलिए वे प्रधानमंत्री तो नहीं बन सकेंगे, लेकिन अगला प्रधानमंत्री उनकी पसंद का हो सकता है. एक संभावना यह है कि तीसरे स्थान पर आये गठबंधन के नेता और मौजूदा प्रधानमंत्री अबादी को फिर से पद मिल जाये. अबादी ईरान और अमेरिका दोनों के निकट हैं तथा देश में सामुदायिक एका बनाने और इस्लामिक स्टेट के खिलाफ देश का नेतृत्व करने के कारण इराकी राजनीति में उनकी प्रतिष्ठा भी है. लेकिन, इस कवायद में ईरान को साधना एक चुनौती है क्योंकि वे दूसरे स्थान पर आये गठबंधन के नेता अमीरी को प्रधानमंत्री के पद पर देखना पसंद करेगा. इराक पर ईरान का वर्चस्व आज भी है और उसका इरादा अमेरिकी सेनाओं को देश से पूरी तरह से हटाना है. अभी वहां लगभग पांच हजार सैनिक तैनात हैं. ईरानी परमाणु करार से अमेरिका के हटने, ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगने, सीरिया युद्ध, इजरायल और सऊदी अरब की बढ़ती नजदीकी आदि ऐसे कारक हैं, जिनका असर नयी सरकार के गठन पर होगा. फिर तुर्की का मसला भी है. सद्र ने भी इच्छा जाहिर की है कि वे नयी सरकार में तुर्की मूल के सांसदों को भी शामिल करना चाहते हैं. तुर्की के सैन्य ठिकाने को हटाने का मुद्दा भी है. तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआं ने अल-सद्र से फोन पर बधाई देने के साथ चुनाव में अनियमितता होने के तुर्की मूल के लोगों की शिकायत पर जांच कराने का अनुरोध भी किया है.
इराकी कम्युनिस्ट पार्टी का उभार
लंबे समय से सियासत के हाशिये पर रहनेवाली कम्युनिस्ट पार्टी ने मुक्तदा अल-सद्र के गठबंधन की जीत के साथ जोरदार वापसी की है और आगामी सरकार में इसके प्रतिनिधियों की अहम भूमिका होने की उम्मीद है. मौजूदा इराक में कम्युनिस्ट पार्टी सबसे पुराना राजनीतिक दल है. इसकी स्थापना 1934 में हुई थी. इस पार्टी और मार्क्सवादी आंदोलन के महत्व का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इराक की स्थापना से 1970 के दशक के आखिरी सालों तक का इतिहास कम्युनिस्टों के उल्लेख के बिना पूरा नहीं हो सकता है. साल 1978 से सद्दाम हुसैन ने पार्टी और समर्थकों पर भयानक जुल्म ढाना शुरू किया तथा इसमें बड़ी संख्या में कम्यूनिस्टों की हत्या हुई. अगले साल पार्टी ने सरकार से अपना नाता तोड़ लिया.
वर्ष 2003 में इराक पर हुए अमेरिकी हमले का पूरजोर विरोध कम्यूनिस्टों ने किया, लेकिन बाद की सरकारों के देश के नवनिर्माण के प्रयासों में भी उन्होंने सहयोग दिया. इस चुनाव के तुरंत बाद पार्टी के सचिव और पूर्व मंत्री राइद फहमी ने एक साक्षात्कार में पार्टी के उद्देश्यों के बारे में बात करते हुए कहा है कि वह कामकाजी जनता के अधिकारों की पक्षधर है, देश की आजादी चाहते हैं तथा एक ऐसे नागरिक राज्य का निर्माण चाहते हैं जो न्याय और समान अवसरों के सिद्धांत पर आधारित हो. उनकी राय में सामाजिक न्याय और सामाजिक-आर्थिक विकास का लक्ष्य पाने के लिए राज्य की संस्थाओं में सुधार जरूरी है. इन्हीं इरादों को हासिल करने के लिए उन्होंने अल-सद्र और सेकुलर जमातों के साथ गठबंधन किया है.
साल 2003 के बाद से इराक पूरी तरह से तेल पर निर्भर है. कृषि और उद्योग बहुत पीछे रह गये हैं. देश के कुल घरेलू उत्पादन में इनका योगदान सवा फीसदी से भी कम है. कम्यूनिस्ट पार्टी चाहती है कि लोगों को सुरक्षा प्रदान करते हुए उत्पादन पर जोर दिया जाये. बहरहाल, कम्यूनिस्ट पार्टी के उभार ने आतंकवाद परस्त गिरोहों को बेचैन कर दिया है. अप्रैल में चुनावी प्रक्रिया के शुरू होने के बाद जो पहला हिंसक हमला हुआ है, वह कम्यूनिस्टों के खिलाफ ही हुआ है. पार्टी के मुख्यालय पर 25 मई को दो बम फेंके गये.
चुनाव से जुड़े कुछ अहम तथ्य
साल 2003 में अमेरिकी हमले और सद्दाम हुसैन की तानाशाही के खात्मे के बाद यह चौथा संसदीय चुनाव है. पिछले दो चुनावों- 2010 और 2014- में विभिन्न राजनीतिक जमातों के बड़े-बड़े गठबंधन मैदान में थे, लेकिन इस बार गठबंधनों की संख्या अधिक रही. शिया, सुन्नी और कुर्द तबकों के भीतर मतभेदों के कारण कई पार्टियां बनीं और चुनाव में आयीं. साल 2005 के पहले चुनाव के बाद से ही गठबंधनों में कुछ चुनिन्दा दलों का ही वर्चस्व रहा था, जो कि इस बार काफी हद तक बदलता दिखाई दे रहा है. पहले चुनाव में सभी शिया पार्टियां एक ही बैनर के तहत चुनाव में खड़ी हुई थीं. इस बार उनके पांच अलग-अलग गठबंधन थे. सरकार के गठन में देरी का एक कारण यह बिखराव भी बन सकता है.
इस चुनाव में कुल मतदाताओं की संख्या 1.82 करोड़ थी, पर मतदान का प्रतिशत 44.5 ही रहा है. कुल 329 में से 25 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित थीं. देश के 18 प्रांतों से 237 प्रतिनिधि चुने गये हैं, 83 सीटें महिलाओं की हैं तथा नौ सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित हैं. यही नये निर्वाचित प्रतिनिधि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का चयन करेंगे. चुनाव में 87 दलों/गठबंधनों के 6,990 उम्मीदवारों ने आजमाइश की थी.
चुनाव में पांच शिया गठबंधन- प्रधानमंत्री हैदर अल-अबादी का नस्र समूह, नूर अल-मलिकी का दवात अल-कानून, हादी अल-अमीरी का फतह गठबंधन, अमार अल-हकीम का हिकमा गुट और मुक्तदा अल-सद्र का अल-सायरून गठबंधन- मैदान में थे. इस्लामिक स्टेट को हराने में अहम भूमिका निभानेवाले कुर्द समुदाय में 2017 के जनमत-संग्रह के बाद अनेक जमातें बन गयी हैं. जनमत-संग्रह में कुर्दों ने अलग स्वायत्त इलाके की मांग पर मुहर लगायी थी जिसके बाद इराकी सेना ने उनके कई इलाकों को अपने कब्जे में ले लिया था. इस चुनाव में कुर्दों की ओर से बहराम सालिह की डेमोक्रेसी एंड जस्टिस पार्टी, मसूद बरजानी की कुर्दिश डेमोक्रेटिक पार्टी, अली बापीर की कोमाल तथा उमर सईद अली की गोर्रान मैदान में थीं.
सुन्नी तबके के दो मुख्य गठबंधन- ओसामा अल-नुजैफी और अतील अल-नुजैफी की अल-करार अल-इराकी तथा सलिम अल जबूरी और सालेह अल-मुतलक का वतनिया गठबंधन- मैदान में थे. ओसामा अल-नुजैफी देश के तीन उपराष्ट्रपतियों में से एक हैं और उनके भाई अतील अल-नुजैफी मोसुल के गवर्नर हैं. सलीम अल-जबूरी मौजूदा संसद के सभापति हैं और सालेह अल-मुतलक पूर्व उपप्रधानमंत्री रह चुके हैं. इन दोनों गठबंधनों में कुछ अन्य पार्टियां भी शामिल हैं. इन गठबंधनों के अलावा तुर्क समुदाय, आंदोलनों के उमीदवार तथा निर्दलीय भी निर्वाचित हुए हैं जिनकी खास भूमिका होगी. मुक्तदा अल-सद्र अपने गठबंधन के साथ कुछ सुन्नी और कुर्द जमातों को लेकर अल-अबादी को फिर से प्रधानमंत्री बनाने के बारे में सोच सकते हैं. जानकारों की मानें, तो ऐसा इंतजाम देश की बेहतरी की ओर ले जा सकता है.