रामायण राम
देश भर के विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति प्रक्रिया पर रोक लग गई है। वजह है यूजीसी का वह पत्र जिसमें आरक्षण के मामले में मानव संसाधान विकास मंत्रालय के दिशा-निर्देशों को लागू करने को क हा गया है। अब इन विश्वविद्यालयों को नियुक्ति के लिए नए रोस्टर के साथ नया विज्ञापन देना होगा। यह एक तरह से अध्यापकों की नियुक्ति में आरक्षण व्यवस्था का लोप जैसा है जिसके ख़िलाफ़ पूरे देश के दलित, पिछड़े और आदिवासी छात्र,शोधार्थी और अध्यापक आक्रोशित हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय अध्यापक संघ ने इसका विरोध शुरू कर दिया है।
मंत्रालय के दिशा निर्देश में सभी विश्वविद्यालयों को यह कहा गया है कि टीचिंग नॉन टीचिंग पदों पर नियुक्ति के क्रम में विभागों या विषय को इकाई माना जाय न कि विश्वविद्यालय को। मान लीजिए कि एक विश्वविद्यालय के विभिन्न विषयों की दो-चार-पांच या दस-दस रिक्तियों को मिला कर कुल 100 पद रिक्त होते हैं तो विश्वविद्यालय को इकाई मानकर 100 में से 50 पद आरक्षित श्रेणी में जाएंगे। लेकिन अगर विभाग या विषय को इकाई माना जाय तो आरक्षण का लाभ मिलना मुश्किल होगा। सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने निर्णय के हिसाब से 5 से कम रिक्त पद वाले विभाग में आरक्षण लागू नहीं होगा। साफ है कि विभाग को इकाई मानने का निर्देश जारी करके यूजीसी और मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उच्च शिक्षण संस्थानों की नियुक्ति में आरक्षण के कानून की घेरेबंदी कर दी है।
वैसे, यूजीसी ने यह निर्देश भले ही अभी जारी किया हो, लेकिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में यह खेल कई बरस पहले से चल रहा है। आरक्षण को कम से कम सीमा में ले आने के प्रयास में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पिछले पाँच छः वर्षों में चार बार रोस्टर बदल-बदल कर विज्ञापन आ चुका है और अभी तक नियुक्ति प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में वर्ष 2016 में प्रोफेसरों की भर्ती का विज्ञापन निकला, जिसमें विश्वविद्यालय को इकाई माना गया था। इसमे नियमानुसार आरक्षण का प्रावधान था लेकिन इसके खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की गई। उच्च न्यायालय ने पूरी प्रक्रिया पर रोक लगा कर विभाग को इकाई मानते हुए नया रोस्टर बनाने और उसके आधार पर नियुक्ति का आदेश दिया। अपनी टिप्पणी में उच्च न्यायालय के जज ने कहा कि प्रोफेसरों की भर्ती में आरक्षण गलत है और सरकार को इसे खत्म करने के बारे में विचार करना चाहिए। इंदिरा साहनी और एम नागराजन केस का हवाला देते हुए विश्वविद्यालय में नियुक्तियों में आरक्षण को गलत बताया गया।
उत्तर प्रदेश के राज्य विश्वविद्यालयों में विभाग को यूनिट मानने का अघोषित नियम पहले से ही चल रहा है। 2016 में उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव की सरकार के उच्च शिक्षा विभाग ने निर्देश जारी किया था कि यदि किसी विभाग में 4 पद हैं तो 1 पद ओबीसी के लिए आरक्षित होगा। कम से कम 5 पद होने पर 1 पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होगा। इस तरह यह यह खेल पहले से ही चलता रहा है जिसे पहली बार केंद्र सरकार ने आधिकारिक रूप से खुले आम खेलने की छूट दे दी है। इसके पहले यह सब न्यायालयों के जरिये होता था।
दरअस्ल कानून बना कर संविधान संशोधन के जरिये आरक्षण को समाप्त कर पाना किसी भी राजनैतिक पार्टी और सरकार के लिए संभव नहीं है। लेकिन अदालती आदेशों के तहत ऐसा करना आसान होता है। आरक्षण समर्थकों का आरोप है कि अदालतों में ‘सवर्ण मनुवादी जजों’ के जरिये आरक्षण पर चोट पहुँचाई जाती है। दूसरी तरफ उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के कारण सरकारी नौकरियां समाप्तप्राय हैं। निजी क्षेत्र में आरक्षण अभी दूर की कौड़ी है।
बीजेपी और संघ अपने उच्च जातीय समर्थक हिस्से को हमेशा ही आश्वस्त करता रहा है कि वह आरक्षण समाप्त करने में कोई कसर नहीं उठा रखेगा। मोदी सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय इस फैसले के जरिये स्पष्ट संकेत दे रहा है कि धीरे धीरे ही सही लेकिन यह सरकार आरक्षण खत्म करने के लिए कृतसंकल्प है। यह किसी ‘फासीवादी’ विचार प्रणाली के ही बूते की बात है कि वह आरक्षण विरोधी और आरक्षण के लाभार्थी समुदाय को एक ही समय मे एक साथ अपने साथ लेकर चल सके।
बीजेपी और संघ आरक्षण को खत्म करने में लगे हैं, यह बात किसी के लिए भी आश्चर्यजनक नही है क्योंकि यह उसके वर्गीय हित का मूल प्रश्न है। लेकिन इस देश में सामाजिक न्याय के नाम पर अस्तित्व में रहने वाली पार्टियाँ और विचारधाराएँ क्या कर रही हैं, यह सवाल बड़ा है। मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से, बल्कि उसके बहुत पहले से ही आरक्षण दलितों पिछडो से सवर्णों की घृणा का कारण रहा है। उत्तर प्रदेश,बिहार,हरियाणा समेत तमाम राज्यों में सत्ता में आने के बावजूद मंडलवादी और बसपा जैसी अम्बेडकरवादी पार्टियों ने आरक्षण के मुद्दे पे अजीब रुख अख्तियार किया। अदालतों के आरक्षण विरोधी फैसलों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने की बात तो दूर रही, ये पार्टियाँ आर्थिक आधार पर सवर्ण जातियों के आरक्षण की हिमायती बन गईं। सवर्ण तुष्टिकरण की राजनीति में सीमा से पर जाकर समाजवादी पार्टी की सरकार ने तो सत्तर हजार दलित कर्मचारियों को पदावनत कर दिया और प्रोन्नति में आरक्षण की खुलकर मुखालफत करती रही।
आज बीजेपी की सर्वग्रासी राजनैतिक विजय अभियान से मजबूर होकर सपा-बसपा जैसी पार्टियाँ जब एक मंच पर आ रही हैं तब यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि दलितों-पिछड़ों के प्रतिनिधित्व और आरक्षण के सवाल पर उनके नेताओं की जबान क्यों नही खुलती? सामाजिक न्याय के स्वयम्भू प्रणेता जो संस्थानों और सत्ताओं में आरक्षण के हामी हैं और उसके लिए आंदोलनरत भी हैं राजनैतिक पक्षधरता के मामले में इन्ही पार्टियो के साथ खड़े नजर आते हैं वे भी यह सवाल पूछते हुये नहीं दिखते।
आज यह परिस्थिति पैदा हो गई है कि सामाजिक न्याय और वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व और अधिकार के सवाल पर व्यापक आंदोलन हो,अन्यथा फासीवादी निज़ाम के पैंतरों के आगे कुछ भी बचने वाला नहीं है।भारत में आज़ादी और लोकतंत्र की लड़ाई के जरिये जो कुछ भी हासिल हुआ है वह समाप्त होने को है।आरक्षण समता के लक्ष्य को हासिल करने का साधन है। इसकी रक्षा जरूरी है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रनेता और अब ललितपुर के एक कॉलेज में शिक्षक हैं )