जितेन्द्र कुमार
‘है’ की जगह ‘था’ लिख देना बहुत मुश्किल नहीं है अगर वह शब्द किसी वाक्य विन्यास में इस्तेमाल करना हो, लेकिन अगर आपकी किसी खास व्यक्ति से आत्मीयता हो और उनके बारे में ‘है’ की जगह ‘था’ लिखना पड़े तो वह काफी पीड़ादायक हो जाता है। नीलाभ के लिए इसी पीड़ा का बोध हो रहा है!
‘नीलाभ की तबीयत काफी खराब है’- यह बात लगभग पिछले साल भर से लगातार ही सुनाई पड़ती थी।
लेकिन पहली बार जब अभिषेक ने दोपहर में प्रेस क्लब में नीलाभ की तबीयत बहुत खराब होने और एम्स में भर्ती होनेवाली खबर बताई तो मैं वहां से तत्काल निकलकर एम्स के प्राइवेट वार्ड में उनके कमरे पहुंचा, जहां कविता मिली। कविता ने बताया कि अब बेहतर हैं लेकिन ‘थरो चेकअप’ के लिए उन्हें अस्पलात ले जाया गया है। थोड़ी देर के बाद नीलाभ जी स्ट्रेचर पर आए, उनके साथ वार्ड ब्यॉय के अलावा जीतू था, वो जीतू जो फोन करने पर नहीं बल्कि बस उनके याद कर लेने भर से उनके सामने हाजिर हो जाता था। वहां बताया गया कि नहीं, खतरा तो फिलहाल टल गया है कि लेकिन लीवर ट्रांसप्लांट करना ही एकमात्र दीर्घकालीन उपाय रह गया है। मैंने पूछा- लेकिन यह होगा कैसे? तो उनका जवाब बहुत ही सहज था- तुरंत नहीं करना है लेकिन करवाना तो पड़ेगा ही, देखो कब होता है!
खैर, हॉस्पिटल में उन्हें लंबा रहना पड़ा। एक दिन फिर जब एम्स पहुंचा तो कमरा खाली था, लेकिन उनका सामान कमरे में ही मौजूद था। थोड़ी देर के बाद कविता आ गई, उन्होंने बताया कि कुछ जरूरी काम था इसलिए थोड़ी देर के लिए आइटीओ गए हुए हैं। मन में आया कि बीमारी की स्थिति में आइटीओ जाने की क्या जरूरत थी लेकिन तत्काल याद आया कि अरे हां, नेशनल हेराल्ड का दफ्तर तो वहीं है, वहीं गए होंगे। फिर मैंने कविता से पूछा कि जब तबीयत खराब है तो क्यों गए हैं तो कविता का जवाब था- अरे वह तो बीच-बीच में जाते ही रहता है। अभी आ जाएगा, तुम चाय पियो। चाय पीने के बाद भी थोड़ी देर मैं और इंतजार किया लेकिन नीलाभ नहीं लौटे, मै कविता को बोलकर निकल आया कि फिर आता हूं कभी। इस बात से मैं मोटे तौर पर निश्चिंत भी था कि जब वह ऑफिस आ-जा रहे हैं तो ठीक ही है, बहुत चिंता की बात तो कतई नहीं है। तीन-चार दिनों के बाद जब मैंने हाल चाल जानने के लिए फोन किया तो नीलाभ जी ने कहा कि घर ही आ जाओ, वहीं मिलते हैं, हम कल ही घर आ गए थे।
शाम के वक्त उनके घर पहुंचा तो काफी लंबी बातचीत हुई। उन्होंने हमें चाय पीने को कहा। जब हमारे लिए चाय आई तो मैंने उनसे उनकी चाय के बारे में पूछा, इस पर उनका जवाब था- अरे देखते नहीं हो, हमको अब पानी पीकर नहीं, देखकर काम चलाना है, इसलिए बोतल में पानी भरकर रख दिया गया है, जब बहुत जरूरी होगी तो मैं एक सिप ले सकता हूं लेकिन भर दिन में 200 मिलीलीटर से ज्यादा पानी नहीं पीना है!
उनसे विस्तार में उनके स्वास्थ्य के बारे में चर्चा हुई। उन्होंने बताया कि लीवर ट्रांसप्लाट के लिए सबसे मुफीद जगह चेन्नैई है जहां लीवर मिलने की संभावना ज्यादा होती है, दिल्ली में इसकी संभावना बहुत कम है क्योंकि कुल मिलाकर 12-14 लीवर साल भर में मिलते हैं और वेटिंग दौ सौ से ऊपर है। जबकि चैन्नैइ में उपलब्धता 100 के करीब है, इसलिए संभावना ज्यादा है। हमेशा की तरह उनके पास इसका ग्राफिक डिटेल था। कैसे होगा, कब हो सकता है, कितना दिन रहना पड़ सकता है, कैसे चैन्नैई में दिल्ली छोड़कर कई महीने रहना पड़ सकता है। खर्च कितना होगा- इसकी जानकारी भी उनके पास थी, लेकिन वह उनकी प्राथमिकता में अंतिम पायदान पर था। मेरे लिए खर्च भी उतना ही महत्वपूर्ण था क्योंकि उनकी माली हालात से मैं भली भांति परिचित था। मैंने उनसे खर्च के बारे में पूछा तो उनका जवाब फिर से बहुत ही सहज था- 35 से 40 लाख रूपए। लेकिन देखते हैं, नहीं होगा तो घर बेच देंगे।
उस दिन भी बहुत सी बातें होती रही। मैं बार-बार उनके स्वास्थ्य समस्या के निदान के बारे में पूछ रहा था और वह डिटेल में उसका जवाब भी दे रहे थे। इधर-उधर की और बातें हुई और मैं फिर से मिलने का वायदा करके निकल आया। बाद में स्थिति में परिवर्तन आया और वह दफ्तर की तरह हॉस्पीटल भी जाने लगे। लेकिन मुझे लग रहा था कि सबकुछ ठीक हो जाएगा। एक दिन इसी बातचीत में उन्होंने बताया कि यह बीमारी उनके परिवार के लिए कोई नई बीमारी नहीं है। उनके दादा जी इसी बीमारी से गुजरे थे, पिताजी भी उसी बीमारी से गुजरे थे और चाचा जी भी उसी बीमारी से गुजरे थे। लेकिन चाचा जी की बीमारी में एक बात उन्होंने और भी जोड़ी थी- उनका भी लीवर ट्रांसप्लांट हुआ था लेकिन ट्रांसप्लांट के 14-15 साल बाद जब वह 77 साल की उम्र में गुजरे तो लीवर के कारण नहीं बल्कि हर्ट अटैक के कारण गुजरे थे। उस दिन की बातचीत का सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण बात मुझे वही लगी थीः चिंता की तो कोई बात ही नहीं है, अभी 58 साल के हैं, इसलिए 72 साल की उम्र तक तो वह जीएंगे ही जीएंगे और उस उम्र तक जीना इतना भी कम नहीं है। सचमुच उस दिन मैं संतुष्ट और खुश दोनों था।
नीलाभ के साथ कभी मैंने काम नहीं किया, इसका मलाल तो हमेशा रहेगा लेकिन उनके संपर्क में रहकर जितना कुछ सीखा और जाना वह कम नहीं है। नीलाभ वर्तमान संपादकों में शायद अकेले संपादक थे जिनसे आप बात करके ज्ञान में बढ़ोतरी कर सकते थे। राजनीति तो आज के दिन हर संपादक जानता है लेकिन भौगोलिक और सामरिक राजनीति में हिन्दी के किसी संपादक की इतनी गहरी पैठ हो, यह मुश्किल था। मजेदार बात यह है कि आपको एहसास ही नहीं होता कि आप इतने जानकार व्यक्ति से बात कर रहे हैं। लेकिन इससे भी मजेदार बात यह है कि इतनी ग्राफिक डिटेल के साथ वह उस विषय पर बात करते थे कि बिना एहसास कराए वह आपको सारी जानकारी दे देते थे और आप उनकी प्रतिभा से आतंकित नहीं होते थे, बल्कि अगली बार फिर से कुछ ज्ञान पाने की चाहत रखने लगते थे! जब भी किसी चीज के बारे में जानना होता था फोन करने भर की जरूरत होती थी। मैं निश्चिंत रहता था कि नीलाभ जी से वह जानकारी मिल जाएगी। कई ऐसे अवसर भी आए कि उपलब्ध न होने के कारण या फिर डिजिटल इंडिया के शानदार ‘कामयाबी’ के कारण उनसे संपर्क नहीं हो पाया तो मुझे वह जानकारी नहीं मिल पाई। वह शायद हिन्दी के आज के दिन इकलौते संपादक थे जिनसे मालिकान डील करवाने का दबाव नहीं डाल सकते थे।
नीलाभ आउटलुक हिन्दी के लगभग नौ वर्षों तक संपादक रहे। बीजेपी के शासन में आने के डेढ़ साल बाद तक वह वहां रहे। लेकिन बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि उन्हें वहां से क्यों जाना पड़ा। कारण यह है कि वह किसी से जिक्र ही नहीं करते थे उनको क्यों जाना पड़ा। मैंने उन्हें बार-बार कहा कि आप इसे लिखते क्यों नहीं कि आपको क्यों वहां से निकलना पड़ा तो इसपर उनका जवाब था- इसकी क्या जरूरत है, लोग जान ही जाते हैं। नीलाभ वहां से क्यों निकले इस बात को उनके दोस्त जरूर जानते हैं लेकिन इस बात को सार्वजनिक भी किए जाने की जरूरत थी/ है।
बिहार विधानसभा के चुनाव के दौरान नीलाभ के पास एक फोन आया। फोन पर बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह थे। अमित शाह ने कहा- मिश्रा जी, एक दिन मेरे साथ भी ब्रेकफास्ट या लंच करें। अमित शाह का जोर ‘मिश्रा जी’ पर था। नीलाभ ने कहा- जी हां, जरूर जब कहिए, मिलते हैं। इसपर अमित शाह ने कहा- कल मिलते हैं ब्रेकफास्ट पर, लेकिन इसके लिए आपको अपने राज्य आना पड़ेगा, क्योंकि मैं अगले कुछ दिनों तक पटना में हूं और मैं आपको टिकट भेजता हूँ। इसके बाद ही तय हो गया था कि नीलाभ आउटलुक के संपादक अब नहीं रहेंगे। अमित शाह को आउटलुक के कंटेंट से परेशानी थी। अमित शाह को लग रहा था कि इस पत्रिका में जो कुछ भी छप रहा है, उससे बीजेपी को बिहार और दूसरे हिन्दी प्रदेशों में परेशानी हो रही है। बीजेपी वालों का मानना है कि अंग्रेजी कंटेंट से इतनी परेशानी नहीं है जितनी कि हिंदी कंटेंट से है और अगर आउटलुक पत्रिका में ऐसा ही कुछ छपता रहा तो उसके जनाधार को नुकसान पहुंचाएगा। नीलाभ को बताए बगैर एक दूसरा संपादक बुला लिया गया और खबरें मनमाफिक छापी जाने लगी।
नीलाभ ने जब बताया कि वह नेशनल हेराल्ड जा रहे हैं तो मैं थोड़ा सा असहज हुआ। मैं जानता था कि किसी पार्टी द्वारा दिए गए पैसे से अखबार निकालने में कितनी परेशानी का सामना करना पड़ेगा। इसलिए मैंने उनसे पूछा- आप वहां पत्रकार होगें या प्रवक्ता? उनका जवाब भी उन्होंने उसी सहजता से दिया- बात तो पत्रकार की हुई है, प्रवक्ता बनने को कहेगा तो सोच लेंगे कि प्रवक्ता बनना है या नहीं, और फिर हम दोनों ठठाकर हंसे!
नीलाभ से मेरी शिकायत भी वही रही जो वरिष्ठ पत्रकार अमित सेनगुप्ता की थी। मैं और कॉमरेड अमित सेनगुप्ता इस विषय पर बार-बार बात भी करते थे। हमदोनों का मानना था कि नीलाभ को पब्लिक प्लेटफार्म से अपनी बात कहनी चाहिए। लेकिन नीलाभ थे कि यदा-कदा ही सार्वजनिक मंचों से कोई भी बात करते थे। मैंने निजी तौर पर उनसे कई बार पूछा कि आप पब्लिक मीटिंग में क्यों नहीं एक वक्ता के रूप में शिरकत करते हैं, तो उनका जवाब हमेशा ही तरह सहज ही होता था- सबको बोलने का काम क्यों करना चाहिए? यही एक विषय था जहां मैं उनसे सहमत नहीं हो पाता था। मुझे लगता था कि उनको बोल कर भी पोजिशन लेना चाहिए, लेकिन पता नहीं वह ऐसा क्यों नहीं करते थे, जबकि वह लिखकर हमेशा अपनी बातें कहा करते थे। यही एक विषय था जब हमदोनों असहमत होते थे।
लगभग सौ साल पहले महान रूसी लेखक लेव टोल्सटॉय काफी बीमार थे। टोल्सटॉय से मिलने अंतोन चेखव हॉस्पिटल गए थे। वहां से लौटकर उन्होंने अपने एक मित्र को चिट्ठी में लिखाः
“मुझे टोल्सटॉय की मौत की आशंका से डर लग रहा है। उनके न रहने से मेरी जिन्दगी में बहुत ही गहरा सूनापन आ जाएगा। इसके दो कारण हैं- पहला तो यह कि मैं उन्हें किसी भी इंसान से ज्यादा प्यार करता हूं और दूसरा, जब तक टोल्सटॉय जिंदा हैं तब तक उनके होने भर से यह एहसास होता है कि हमारे लिए लेखक होना गौरव की बात है। और जैसा कि आप जानते हैं कि कुछ लोगों को जिंदगी में कभी कुछ न मिलता है और न ही उनमें कुछ पाने की अपेक्षा ही रहती है। फिर भी उन्हें किसी चीज का डर नहीं सताता है। इसी तरह जब तक टोल्सटॉय जिंदा हैं, मुझे खुद अपने न लिखने की कमी का एहसास नहीं होता है।”
नीलाभ के न होने से काफी सूनापन आ गया है। टोल्सटॉय की जगह नीलाभ लिख दीजिए तब आपको एहसास होगा कि आज के दिन नीलाभ के न होने का क्या अर्थ है!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और मीडियाविजिल के सलाहकार सम्पादक हैं