भाषा सिंह
वह एक जनपक्षधर-धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी थे, जो ताउम्र नफरत और हिंसा की राजनीति के कट्टर विरोधी रहे और इसके लिए बड़ी से बड़ी कीमत भी चुकाने के लिए तैयार रहे। विचारधारा से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।
एक सच्चा दोस्त, एक सच्चा गुरू, एक सच्चा खबरनवीस, एक सच्चा योद्धा, एक सच्चा वाम-प्रगतिशील चिंतक-विचारक, एक सच्चा नारीवादी, एक सच्चा प्रेमी, एक सच्चा भोजनभट्ट, एक सच्चा भारतीय, एक सच्चा-खरा इंसान, एक सच्ची-विनम्र आत्मा…
अनगिनत छवियां एक दूसरे को पार करती जा रही हैं और नीलाभजी के अलग-अलग अक्स कौंध रहे हैं। उन्हें जानने वालों, उनसे जुड़े लोगों के लिए उनका जाना एक ऐसा दुख है, जो जीवन भर एक अदृश्य झोले की तरह कंधे पर साथ लटका रहेगा। उनकी मौजूदगी एक ऐसे लोकतांत्रिक स्पेस देने वाले अड्डे की गारंटी थी, जहां जाकर आप निर्द्वंद्ध होकर अपनी चिंताएं रख देते थे, खुद को खोल देने का जोखिम उठाने में हिचकिचाते नहीं थे, जमकर बतियाते थे, बहस करते थे। हर बार नीलाभ जी की ज्ञान और अनुभव की गंगा में डुबकी लगाकर हम सब जो उनसे उम्र में छोटे थे, और वे भी जो उनके हम उम्र थे, या बड़े थे, वे सब अपनी झोली में कुछ न कुछ लेकर ही कर लौटते थे।
वह हमारे लिए एक चलता फिरता इनसाइकलोपिडिया थे। कहीं कोई चीज अटकती तो लगता बस नीलाभ जी के पास हल होगा, नहीं तो वह हमारे लिए कोई राह बना देंगे, और वह भी पूरे निस्वार्थ भाव से। ज्ञान और मानव गरिमा का अकूत भंडार थे नीलाभी जी।
हमारे दौर के वह बेहतरीन-पैनी नजर वाले संपादक थे। खबर की नब्ज वह समझते थे और उससे जुड़े जोखिम से भी वाकिफ रहते थे। वह सच के लिए समर्पित पत्रकार थे। ज्ञान हासिल करने और उसे तमाम लोगों में सम भाव से वितरत करने की अजब ललक उनके आंखों में हमेशा ही दिखाई देती थी। संग्रह करना, अपने पास कुछ छिपाना उनके स्वभाव में था ही नहीं। इंसानियत से लबरेज ऐसे शख्स जो बराबरी और वैमनस्य-भेदभाव मुक्त जीवन में विश्वास ही नहीं करते थे, बल्कि उसे जीते थे।
वह एक जनपक्षधर-धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी थे, जो ताउम्र वैमनस्य और हिंसा की राजनीति के कट्टर विरोधी रहे और इसके लिए बड़ी से बड़ी कीमत भी चुकाने के लिए तैयार रहे। विचारधारा से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। भ्रष्ट और दलाल किस्म के पत्रकार शायद इसलिए हमेशा उनसे दूर-दूर भागते रहे।
उनके रहन सहन, उनके कपड़ों, उनके खानपान में जो सादगी थी, वह उन्हें अपने गांधीवादी पिता से विरासत में मिली थी। अगर वह कभी अपने पिता और दादा के बिहार के चंपारण आंदोलन में भूमिका का जिक्र करते तो साथ ही यह बताना कभी नहीं भूलते कि उनकी मां पश्चिमी उत्तर प्रदेश की थी और बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व वाली थीं।
वह ऐसे विरले संपादक थे, जिनकी हिंदी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर जबर्दस्त पकड़ थी। इसके अलावा भोजपुरी-मैथली में भी उनकी तगड़ी गिरफ्त थी। हर भाषा और बोली को बरतने का सलीका उन्हें क्या खूब आता था। अगर अंग्रेजी बोलते-लिखते तो 100 फीसदी उसी भाषा के नियम-कायदे लागू करते। उनकी हिंदी तो फिर दोआब की पट्टी की गंध से गमकती हुई थी। हिंदी-ऊर्दू-फारसी-संस्कृत सब घुल-मिलकर नीलाभजी के यहां मौजूद थे। वह जी-जान लगाकर हिंदी में ही तमाम शब्दों का तर्जुमा करने की कोशिश करते।
यह बात आउटलुक हिंदी के दिनों की है, निर्भया कांड के बाद जस्टिस वर्मा की सिफारिशों पर मैं स्टोरी कर रही थी। उसमें एक शब्द आया , रेप सर्वाइवर। नीलाभजी का पूरा जोर था कि इसका हिंदी तर्जुमा किया जाए। इसके पीछे जो उन्होंने तर्क दिया, वह ताउम्र मुझे याद रहेगा। उन्होंने कहा, हिंदी भाषा इसलिए दरिद्र हो गई है, क्योंकि समाजशास्त्रियों ने हिंदी में सोचना, नए शब्द गढ़ना बंद कर दिया है। इस संदर्भ में उन्होंने बताया कि कैसे आर्थिक उदारीकरण के शुरुआती दौर में ग्लोबलाइजेशन का हिंदी वैश्वीकरण करने में उन्होंने तमाम साथियों के साथ कितनी मेहनत की थी।
मुझे उनके साथ काम करने का मौका 2004 से मिला और तब से लेकर आजतक मैंने उनमें कभी विचलन नहीं देखा। वह एक ऐसे पत्रकार, ऐसे संपादक थे, जिन्होंने अनगिनत पत्रकार बनाए, उन्हें प्रशक्षित किया, उन्हें वे तमाम जरूरी बातें बताईं, जो किसी भी पत्रकारिता स्कूल में नहीं पढ़ाई जातीं। सामान्य तौर पर ये बातें कोई संपादक बताता भी नहीं है। वह एक-एक शब्द, एक-एक लाइन के सही होने पर जोर देते थे। हैडिंग पर तो वह घंटों लगा देते थे और हम सबसे खूब मेहनत कराते थे। मैं खुद देखकर हैरान हो जाती थी कि कैसे, कितनी मशक्कत से वह एक-एक पेज खुद देखते थे, उसे रंग देते थे और फिर सही कॉपी को भी देखने पर जोर देते थे। एक-एक स्टोरी पर, कविता-कहानी पर, इतनी मेहनत करने वाले संपादक विरले ही होंगे। नीलाभजी का मानना था कि जो भी चीज छपती है, वह पाठक के साथ एक विश्वास का रिश्ता स्थापित करती है। इस विश्वास पर कभी ठेस नहीं लगनी चाहिए। इस विश्वास की डोर का निबाह उन्होंने अंत तक किया।
एक और खासियत जो नीलाभ जी को बेमिसाल संपादक बनाती है, और वह यह कि उनमें पद, सम्मान, सत्ता का लालच रत्ती भर नहीं था। इस मामले में वह संत संपादक थे। न कभी उन्होंने मंचों पर कब्जा करने की कोशिश की, न ही कभी राज्यसभा जाने की अंधी-घिनौनी दौड़ में शामिल हुए। इतनी जानकारियां, इतने संपर्क, सत्ता प्रतिष्ठानों और बौद्धिक एलीट में सीधी पहुंच होने के बावजूद नीलाभ मिश्र आम आदमी के संपादक रहे। उनके दरबार में कोई बड़ा-छोटा नहीं था। सब बराबर थे और सबके विचारों को वह बराबर की तरजीह देते थे।
विचारों में नीलाभ जी एक ग्लोबल सिटीजन थे। खानपान में भी उन्हें दुनिया भर का खाना न सिर्फ पसंद था, बल्कि खाने की तमाम बारीकियों के बारे में भी गहरी वाकफियत थी। जो अक्सर हमें हैरान-परेशान करती थी। भारत से लेकर दुनिया के किस इलाके में क्या खाना खाया जा सकता है, कहां क्या अच्छा मिलेगा, ये सब वह बताने के लिए आतुर रहते थे। खाने में और खास तौर से मिठाई के मामले में तो पूछिए ही नहीं, क्या रस ले, ले कर बताते थे। बीमारी के दिनों में तो उनका मिठाई प्रेम बिल्कुल ही परवान चढ़ गया था।
मुझे नहीं लगता कि युसुफ सराय की बंगाली मिठाई की दुकान—अन्नपूर्णा की एक भी मिठाई इस दौरान उनसे छूटी होगी। ऐसा ही प्यार उन्हें चाय से था। उनके घर में न जाने कहां-कहां की चाय होती है। और, घर पर वह खुद ही चाय बनाकर पिलाना पसंद करते थे। वजह? वह खुद कहते थे, चाय बनाने और पीने का एक सलीका होता है, जो आते-आते आता है। फिर वह टी-पॉट में नाप पर बड़ी पत्ती वाली चाय डालते, गरम पानी डालते और सदियों पुराने से दिखने वाले टी-कोज़ी से उसे ढकते, फिर कहते, इंतजार करो, अभी ब्रू (बैठेगी) होगी। वह एक दिलदार आदमी थे । खिलाने-पिलाने के शौकीन। बैठकियों के आशिक, गप्पों के उस्ताद। कला-संस्कृति के जबर्दस्त मर्मज्ञ। निराला से लेकर शेक्सपीयर तक, वेस्टर्न क्लासिक से लेकर भारतीय शास्त्रीय संगीत के रसिक थे। सबसे बड़ी खामी यह थी कि वह अपनी लेखनी के प्रति बहुत उदासीन थे। उनका लिखा गद्य बेहतरीन है। कविता और आलोचना में भी उनकी पकड़ उतनी ही गहरी थी, जितनी राजनीतिक हलचलों या खुलासों में।
एक अहम पहलू जिसका जिक्र बेहद जरूरी है, वह यह कि नीलाभजी के साथ इतने साल काम करते हुए कभी एक पल को भी नहीं लगा कि किसी पुरुष के साथ हैं। पुरुषवादी सोच या नजरिया उन्हें छू तक नहीं गया था। उनका व्यवहार इतना दोस्ताना, इतना जिंदादिल, इतना मददगार होता था कि उनकी डांट-फटकार, उनसे लड़ाई- झगड़े, सब उन कुर्बान हो जाते थे। कई बार हैरानी होती थी कि इतनी उम्र में उन्होंने इतना भंडार कैसे जमा कर लिया, तो वह अपने चिर-परिचित अंदाज में हसंते हुए कहते—गोर्की की तरह जीवन की राहों से। यह सही भी था, वह हमेशा लोगों से घिरे रहते, खासतौर से युवा साथियों के साथ संगत तो उन्हें बहुत पसंद थी। जीवन से लबरेज नीलाभ जिंदगी के हर पल को पूरी जिंदादिली से जीने में विश्वास रखते थे।
नीलाभ जी पर कोई भी बात तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक इसमें उनकी संगिनी, उनकी अभिन्न साथी कविता श्रीवास्तव की बात न हो। ये दोनों ऐसे युगल है, विचारधारा से लेकर प्रतिबद्धता में दोनों के बीच ऐसा साझा है, जिसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। नीलाभ जी का बाल सुलभ, प्रेमी स्वरूप कविता के सानिध्य में देखने को मिलता था। ऐसा लगता है कि कविता और नीलाभ का आंदोलनों से जन्मजात रिश्ता है। देश-दुनिया में कहीं भी कुछ चल रहा हो, दोनों को खलबली रहती है उससे जुड़ने की। नीलाभजी की जनपक्षधरता का मुखर रूप कविता में देखने को मिलता है और आगे भी वह उनमें मौजूद रहेंगे।
नीलाभ जी की बात हो और कबीर न याद आएं, ऐसा संभव नहीं। उनसे चेन्नई में मिलते समय भी मैंने यही कहा,
बिन सतगुरु नर रहत भुलाना, खोजत-फ़िरत राह नहीं जाना…
नीलाभ का जाना, गुरु का जाना है, कोशिश रहेगी कि गुरु की तमाम सीखों पर अमल कर पाएं हैं। यह उनसे मेरा वादा है।
नदियों और सभ्यता के विकास के ज्ञाता नीलाभ जी सदा रहेंगे : चंपारण की गंडक नदी की धार में जिसमें वेग होने पर लोग सोना छानते हैं, सरहदों को बेमानी साबित करने वाली सिंधु नदी में, सोन नदी के दिलफरेब कछार में, कृष्णा नदी के उर्वरक विस्तार में, ब्रहमपुत्र नदी के बहा ले जाने वाले आवेग में और गंगा की अविरल धारा में…
मुझे पता है नीलाभ जी जहां भी हैं, अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए, गर्दन हिलाते हुए, सुन रहे होंगे, कुमार गंधर्व की आवाज में निर्गुण भजन कबीर की बानी…
सुनता है गुरु ज्ञानी
गगन में आवाज हो रही झीनी-झीनी
पहिले आए , पहिले आए
नाद बिंदु से पीछे जमाया पानी, पानी हो जी
सब घट पूरण गुरू रहा है
अलख पुरुष निर्बानी हो जी
गगन में आवाज हो रही झीनी-झीनी…
(लेखक और पत्रकार भाषा सिंह आउटलुक और नेशनल हेराल्ड में नीलाभ जी की सहयोगी रही हैं। नवजीवन से साभार प्रकाशित )