रवीश कुमार ख़ुद को ‘ज़ीरो टीआरपी’ ऐंकर कहते हैं। एनडीटीवी की रेटिंग देखते हुए यह बात ठीक भी लगती है, लेकिन कुछ बात तो है कि इस ज़ीरो टीआरपी रेटिंग वाले ऐंकर को हार्वर्ड युनिवर्सिटी में भाषण देने के लिए बुलाया जाता है, जबकि सत्ताधारी दल केआईटी गोलंदाज उसे ज़मींदोज़ करने में सारी ताक़त झोंके हुए हैं। टीवी चैनलों के इस महापतन-काल में रवीश के प्राइम टाइम की युनिवर्सिटी और बेरोज़गारी सिरीज़ देश के लाखों नौजवानों में नई ऊर्जा भरती है और टीआरपी के माहिर चैनलों के सामने आईना रख देती है। हमें नहीं मालूम कि किसी हिंदी पत्रकार को इससे पहले हार्वर्ड जैसी मशहूर अमेरिकी युनिवर्सिटी में आमंत्रित किया गया है नहीं, लेकिन शनिवार 10 फ़रवरी के इस भाषण से फिर साबित हुआ है कि मुख़ालिफ़ हवा में तनकर खड़े होने की कोशिश कभी बेकार नहीं जाती, तक़लीफ़ जो भी हो। यहाँ रवीश के भाषण के कुछ महत्वपूर्ण अंश लिखित रूप से पेश हैं और उसके बाद वह वीडियो भी जिसमें भाषण के साथ-साथ सवाल-जवाब भी शामिल हैं – संपादक
“भारत में दो तरह की सरकारें हैं. एक गवर्नमेंट ऑफ इंडिया. दूसरी गर्वनमेंट ऑफ मीडिया. मैं यहां गवर्नमेंट ऑफ मीडिया तक ही सीमित रहूंगा ताकि किसी को बुरा न लगे कि मैंने विदेश में गर्वनमेंट ऑफ इंडिया के बारे में कुछ कह दिया. यह आप पर निर्भर करता है कि मुझे सुनते हुए आप मीडिया और इंडिया में कितना फ़र्क कर पाते हैं.
एक को जनता ने चुना है और दूसरे ने ख़ुद को सरकार के लिए चुन लिया है. एक का चुनाव वोट से हुआ है और एक का रेटिंग से होता रहता है. यहां अमरीका में मीडिया है, भारत में गोदी मीडिया है. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया में बहुत कुछ अच्छा है. जैसे मौसम का समाचार. एक्सिडेंट की ख़बरें. सायना और सिंधु का जीतना, दंगल का सुपरहिट होना. ऐसा नहीं है कि कुछ भी अच्छा नहीं है. चपरासी के 14 पदों के लिए लाखों नौजवान लाइन में खड़े हैं, कौन कहता है उम्मीद नहीं है. कॉलेजों में छह छह साल में बीए करने वाले लाखों नौजवान इंतज़ार कर रहे हैं, कौन कहता है कि उम्मीद नहीं बची है. उम्मीद ही तो बची हुई है कि उसके पीछे ये नौजवान बचे हुए हैं.
एक डरा हुआ पत्रकार लोकतंत्र में मरा हुआ नागरिक पैदा करता है. एक डरा हुआ पत्रकार आपका हीरो बन जाए, इसका मतलब आपने डर को अपना घर दे दिया है. इस वक्त भारत के लोकतंत्र को भारत के मीडिया से ख़तरा है. भारत का टीवी मीडिया लोकतंत्र के ख़िलाफ़ हो गया है. भारत का प्रिंट मीडिया चुपचाप उस क़त्ल में शामिल है जिसमें बहता हुआ ख़ून तो नहीं दिखता है, मगर इधर-उधर कोने में छापी जा रही कुछ काम की ख़बरों में क़त्ल की आह सुनाई दे जाती है.
ऐसा नहीं है कि गर्वनमेंट ऑफ मीडिया सवाल करना भूल गया. उसने राहुल गांधी के स्टार वार्स देखने पर कितना बड़ा सवाल किया था. आप कह सकते हैं कि गर्वनमेंट ऑफ मीडिया चाहती है कि विपक्ष का नेता सीरियस रहे. लेकिन जब वह नेता सीरियस होकर जज लोया को लेकर प्रेस कांफ्रेंस कर देता है तो मीडिया अपना सीरियसनेस भूल जाता है.
मीडिया में क्या कोई ख़ुद से डर गया है या किसी के डराने से डर गया है, यह एक खुला प्रश्न है. डर का डीएनए से कोई लेना देना नहीं है, कोई भी डर सकता है, ख़ासकर फर्ज़ी केस में फंसाना और कई साल तक मुकदमों को लटकाना जहां आसान हो, वहां डर सिस्टम का पार्ट है. डर नेचुरल है. गांधी ने जेल जाकर हमें जेल के डर से आज़ाद करा दिया. ग़ुलाम भारत के ग़रीब से ग़रीब और अनपढ़ से अनपढ़ लोग जेल के डर से आज़ाद हो गए. 2जी में दो लाख करोड़ का घोटाला हुआ था, मगर जब इसके आरोपी बरी हो गए तो वो जनाब आज तक नहीं बोल पाए हैं. जिनकी किताब का नाम है NOT JUST AN ACCOUNTANT, THE DIARY OF NATIONS CONSCIENCE KEEPER. जब 2जी के आरोपी बरी हुए, सीबीआई सबूत पेश नहीं कर पाई तब मैंने पहली बार देखा, किसी किताब को कवर को छिपते हुए. आपने देखा है ऐसा होते हुए. लगता है कि किताब कह रही है कि ये बात सही निकली कि ये सिर्फ एकाउंटेंट नहीं हैं, मगर ये बात झूठ है कि वे नेशंस के कांशिएंस कीपर हैं.
एक डरा हुआ मीडिया जब सुपर पावर इंडिया का हेडलाइन लगाता है तब मुझे उस पावर से डर लगता है. मैं चाहता हूं कि विश्व गुरु बनने से पहले कम से कम उन कॉलेजों में गुरु पहुंच जाएं, जहां 8500 लड़कियां पढ़ती हैं मगर पढ़ाने के लिए 9 टीचर हैं. फिर आप कहेंगे कि क्या कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है. क्या यह अच्छा नहीं है कि बिना टीचर के भी हमारी लड़कियां बीए पास कर जा रही हैं. क्या आप ऐसा हावर्ड में करके दिखा सकते हैं? कैंब्रिज में दिखा सकते हैं, आक्सफोर्ड में दिखा सकते हैं, क्या आप येल और कोलंबिया में ऐसा करके दिखा सकते हैं?
मीडिया ने इंडिया के बेसिक क्वेश्चन को छोड़ दिया है. इसलिए मैंने कहा कि इतनी दूर से आकर मैं गर्वनमेंट ऑफ मीडिया की बात करूंगा ताकि आपको न लगे कि मैं गर्वनमेंट ऑफ इंडिया की बात कर रहा हूं. मैं इंडिया की नहीं मीडिया की आलोचना कर रहा हूं. आप I और M में कंफ्यूज़ मत कर जाना.
एक ही मालिक के दो चैनल हैं. एक ही चैनल में दो एंकर हैं. एक सांप्रदायिकता फैला रहा है, एक किसानों की बात कर रहा है. एक झूठ फैला रहा है, एक टूटी सड़कों की बात कर रहा है. सवाल, हम जैसे सवाल करने वाले से है, जवाब हम जैसों के पास नहीं है. आप उनसे पूछिए जो आप तक मीडिया को लेकर आते हैं, जो आप तक इंडिया लेकर आते हैं. फेक न्यूज़ आज ऑफिशियल न्यूज़ है. न्यूज़ रूम में रिपोर्टर समाप्त हो चुके हैं. रिपोर्टर का इस्तेमाल हत्यारे के रूप में होता है. एक चैनल में एक सांसद के पीछ चार पांच रिपोर्टर एक साथ भेज दिया. देखने से लगा कि सारा मीडिया उसके पीछे पड़ा है. यह नया दौर है. डरा हुआ मीडिया अपने कैमरों से आपको डराने निकला है.
चैनलों पर सांप्रदायिकता भड़काने वाले एंकरों को जगह मिल रही है. इन एंकरों के पास सरकार के लिए कोई सवाल नहीं है, सिर्फ एक ही क्वेश्चन सबके पास है. इस सवाल का नाम है हिन्दू मुस्लिम क्वेश्चन, HMQ. भारत के न्यूज़ एंकर राष्ट्रवाद की आड़ में सांप्रदायिक हो चुके हैं. इस हद तक कि जब उदयपुर में नौजवान भगवा झंडा लेकर अदालत की छत पर चढ़ जाते हैं तो एंकर चुप हो गए हैं. क्या हम ऐसा भारत चाहते थे, चाहते हैं? अदालत जिस संविधान के तहत है, उसी संविधान की एक धारा से मीडिया अपनी आज़ादी का चरणामृत ग्रहण करता है. चरणामृत तो समझते होंगे. गर्वनमेंट ऑफ मीडिया के पास एक ही एजेंडा है. हिन्दू मुस्लिम क्वेश्चन. इससे जुड़े फेक न्यूज़ की इतनी भरमार है कि आप आल्ट न्यूज़ डॉट इन पर पढ़ सकते हैं. अब तो फेक न्यूज़ दूसरी तरफ़ से बनने लगे हैं.
My dear friends, believe me, Media is trying to murder our hard earned democracy. Our Media is a murderer. यह समाज में ऐसा असंतुलन पैदा कर रहा है, अपनी बहसों के ज़रिए ऐसा ज़हर बो रहा है जिससे हमारे लोकतंत्र के भीतर भय का माहौल बना रहे. जिससे एक भीड़ कभी भी कहीं भी ट्रिगर हो जाती है और आपको ओवरपावर कर देती है. आप कहेंगे कि क्या इतना बुरा है, कुछ भी अच्छा नहीं है. मुझे पता है कि आपको बीच बीच में पॉज़िटिव अच्छा लगता है. एक पोज़िटिव बताता हूं. भारत का लोकतंत्र मीडिया के झुक जाने से नहीं झुक जाता है. वह मीडिया के मिट जाने से नहीं मिट जाएगा. वह न तो आपातकाल में झुका न वह गोदी मीडिया के काल में झुकेगा. भारत का लोकतंत्र हमारी आत्मा है. हमारा ज़मीर है. आत्मा अमर है. आप गीता पढ़ सकते हैं. मैं गर्वनमेंट ऑफ मीडिया की बात कर रहा हूं.
आपकी तरह मैं भी भारत को लेकर सपने देखता हूं. मगर जागते हुए. सामने की हकीकत ही मेरे लिए सपना है. मैं एक ऐसे भारत का सपना देखता हूं जो हकीकत का सामना कर सके. सोचिए ज़रा हम आज कल अतीत के सवालों मे क्यों उलझे हैं. अगर इन सवालों का सामना ही करना है तो क्या हम ठीक से कर रहे हैं, क्या इन सवालों का सामना करने की जगह टीवी का स्टुडियो है? या क्लासरूम है, कांफ्रेंस रूम हैं, और सामना हम किस तरह से करेंगे, क्या हम आज हिसाब करेंगे, क्या हम आज क़त्लेआम करेंगे? तो क्या आप अपने घर से एक हत्यारा देने के लिए तैयार हैं? नफ़रत की यह आंधी हर घर में एक हत्यारा पैदा कर जाएगी, वो आपका भाई हो सकता है, बेटा हो सकता है, दोस्त हो सकता है, पड़ोसी हो सकता है, क्या आपने मन बना लिया है? क्या हमने सीखा है कि इतिहास का सामना कैसे किया जाए? हम क्लास रूम में नहीं, सड़क और टीवी स्टुडियो में इतिहास का हिसाब करने निकले हैं. नेहरू को मुसलमान बना देने से या अकबर को पराजित बना देने से आप इतिहास नहीं बदल देते, इतिहास जब शिक्षा मंत्री के आदेश से बदलने लगे तो समझिए कि वह मंत्री केमिस्ट्री का भी अच्छा विद्यार्थी नहीं रहा होगा. क्या आप यहां हार्वर्ड में बैठकर इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि इतिहास के क्लास रूम में कोई मंत्री आकर इतिहास बदल दे. प्रोफेसर के हाथ से किताब लेकर, अपनी किताब पढ़ने के लिए दे दे. क्या आप बर्दाश्त करेंगे? जब आप खुद के लिए यह बर्दाश्त नहीं कर सकते तो भारत के लिए कैसे कर सकते हैं?
ज़रूर इतिहास में नई बहस चलनी चाहिए, नए शोध होने चाहिए. लेकिन हम वैसा कर रहे हैं. एक फिल्म पर हमने तीन महीने बहस की है. इतनी बहस हमने भारत की ग़रीबी पर नहीं की, भारत की संभावनाओं पर नहीं की, हमने तीन महीने एक फिल्म पर बहस की. तलवारें लेकर लोग स्टुडियो में आ गए, अब किसी दिन बंदूकें लेकर आएंगे.
महाराणा की हार के बाद भी लोगों ने महान विजेता के रूप में स्वीकार किया था. उनकी वीरता की गाथा पर उस हार का कोई असर ही नहीं था, जिसे एक शिक्षा मंत्री ने अपनी ताकत से बदलने की कोशिश की. लोक श्रुतियों में अपराजेय महाराणा के लिए किताबों में बड़ी हार है. मुझे नहीं लगता कि महाराणा प्रताप जैसे बहादुर क़ाग़ज़ पर हार की जगह जीत लिख देने से खुश होते. जो वीर होता है वो हार को भी गले लगाता है. पर यह सही है कि पब्लिक में इतिहास को लेकर वैसी समझ नहीं है जैसी क्लास रूम में है. क्लास रूम में भी भारी असामनता है. इतिहास के लाखों छात्रों को अच्छी किताबें नहीं मिलीं, शिक्षक नहीं मिले इसलिए सबने किताब की जगह कूड़ा उठा लिया. कूड़े को इतिहास समझ लिया. हम आज भी इतिहास को गौरव गान और गौरव भाव के बिना नहीं समझ पाते हैं. सोने की चिड़िया था हमारा देश. विश्व गुरु था देश. ये सब विशेषण हैं, इतिहास नहीं है. SUPERLATIVES CANT BE HISTORY.
वैसे इस तीन महीने में भारत मे जितने इतिहासकार पैदा हुए हैं, उतने ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज अपने कई सौ साल के इतिहास में पैदा नहीं कर पाए होंगे. भारत में आप बस जलाकर, पोस्टर फाड़कर इतिहासकार बन सकते हैं. किसी फिल्म का प्रदर्शन रुकवा कर आप इतिहासकार बन सकते हैं. तीन साल में हमने जिनते इतिहासकार पैदा किए हैं, उनके लिए अब हमारे पास उतनी यूनिवर्सटी भी नहीं हैं.
अंग्रेज़ों की कल्पना थी कि भारत के इतिहास को हिन्दू इतिहास मुस्लिम इतिहास में बदल दो. आज बहुत से लोग अंग्रेज़ी हुकूमत की सोच को पूरा कर रहे हैं. वो वापस इतिहास को हिन्दू बनाम मुसलमान के खांचे में ले जा रहे हैं. वर्तमान पर पर्दा डालने के लिए इतिहास से वैसे मुद्दे लाए जा रहे हैं जिनके ज़रिए नागरिक का, मतदाता का धार्मिक पहचान बनाई जा सके. हम क्यों अपनी भारतीयता कभी अनेकता में एकता में खोजते खोजते, धार्मिक एकरूपता में खोजने लगते हैं? हम संविधान से अपनी पहचान क्यों नहीं हासिल करते, जिसके लिए हमने सौ साल की लड़ाई लड़ी. दिन रात बहस किए, लाखों लोग जेल गए.
अगर बहुतों को लगता है कि इस सवाल पर बहस होनी चाहिए तो क्या हम सही तरीके से अपने सवाल रख रहे हैं, बहस कर रहे हैं, क्या उसका मंच अख़बार तक न पढ़ने वाले ये एंकर होंगे. आख़िर क्यों बहुसंख्यक धर्म इतिहास के किरदारों पर धार्मिक व्याख्या थोपना चाहता है? कभी मीडिया के स्पेस में हमारी भारतीयता मिले सुर मेरा तुम्हारा से बनती थी, आज हमारा सुर हमारा, तुम्हारा सुर तुम्हारा या तुम्हारा सुर कुछ नहीं, हमारा ही सुर तुम्हारा.
हम भारतीयों का भारतीय होने का बोध और इतिहास बोध दोनों संकट से गुज़र रहा है. हमें एक खंडित नागरिकता के बोध के साथ तैयार किए जा रहे हैं. जिसके भीतर फेक न्यूज़ और फेक हिस्ट्री के ज़रिए ऐसी पोलिटिकिल प्रोग्रामिंग की जा रही है कि किसी भी शहर में छोटे छोटे समूह में लोगों को ट्रिगर किया जा सकता है. क्या आप इतिहास का बदला ले सकते हैं तो फिर आप न्याय की मूल अवधारणा के खिलाफ जा रहे हैं जो कहता है कि खून का बदला खून नहीं होता है. अगर हम खून का बदला खून की अवधारणा पर जाएंगे तो हमारे चारों तरफ हिंसा ही हिंसा होगी.
कुल मिलाकर हम यथास्थिति को प्रमोट कर रहे हैं. धर्म के गौरव को हम राष्ट्र बता रहे हैं. आप चाहें तो डार्विन को रिजेक्ट कर सकते हैं. आप चाहें तो गणेश पूजा को ही मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई घोषित कर सकते हैं.”