वह इमरजेंसी लगवाने वाली रैली, बदलाव के नारे और कुछ न बदलने की भविष्यवाणी!

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चश्मदीद पत्रकार की ज़ुबानी, इमरजेंसी की कहानी..

 

 सुशील कुमार सिंह

 

दिल्ली की शक्ल बदलने में सबसे ज्यादा तीन चीजों का हाथ रहा है। एशियाड 1982, मेट्रो का आगमन और 2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स। इनकी वजह से बहुत से फ्लाईओवर या अंडरपास या गोल चक्कर बने। कई स्टेडियमों व इमारतों का कायाकल्प हुआ और शहर की स्काईलाइन बदली। 1982 के बाद दिल्ली आए लोग सोच भी नहीं सकते कि उससे पहले दिल्ली कैसी थी।

तब मद्रास होटल के पीछे और लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज के सामने शिवाजी स्टेडियम की इमारत इतनी बड़ी और भव्य नहीं थी। वह तब खुला-खुला सा एक सामान्य स्टेडियम था जिसके दरवाजे खुले होने पर बाहर सड़क से ही भीतर चल रहे खेल की झलक मिल जाती थी। इससे लगभग चिपका हुआ एक क्लॉक टॉवर था जिसकी पहली मंजिल पर एक रेस्तरां होता था। उसके बाद एक पार्क था जिसमें बच्चों के कुछ झूले भी थे। पार्क के खत्म होने पर कनॉट प्लेस के पी ब्लॉक के पिछवाड़े की वह सड़क थी जहां से डीटीसी के कई रूट की बसें चला करती थीं। इनमें डबल डेकर भी होती थीं। स्टेडियम के विस्तार ने क्लॉक टॉवर को तो निगल ही लिया है, पार्क की जगह भी अब एक बड़ा बस टर्मिनल बन गया है।

पुराने शिवाजी स्टेडियम की इमारत में तब एक पंजाबी रेस्तरां हुआ करता था जिसके लंबे-तड़ंगे मालिक, जिनकी बड़ी-बड़ी मूंछें होती थीं, लगभग हमारे दोस्त हो गए थे। 1974 में मैं जब दिल्ली आया तो सबसे पहले जिन लोगों से दोस्ती हुई उनमें दिल्ली प्रेस में काम करने वाले मुकेश शर्मा और इम्तहान पास करके ताजा-ताजा उद्योग मंत्रालय में एलडीसी लगे श्रीकृष्ण शर्मा थे।

 मेरे लिए वे नितांत आवारगी के दिन थे। मैं लगभग हर दोपहर अपने घर विष्णु गार्डन से बीस-तीस पैसे खर्च कर बस से शिवाजी स्टेडियम पहुंच जाता था, जहां कुछ इंतजार के बाद मुकेश और श्रीकृष्ण आ जाते। हम पार्क में लेटते, सिगरेट पीते या फिर चाय पीने पंजाबी रेस्तरां चले जाते। बस की टिकट के अलावा तमाम दूसरे खर्चे दोस्तों के जिम्मे थे। हमारी बातें आम तौर पर किसी नए उपन्यास, किसी नई कहानी या कविता पर, किसी लेखक पर या फिल्मों, खेलों और लड़कियों पर या फिर अपने हालात पर केंद्रित रहती थीं। धीरे-धीरे मेरा जान-पहचान का दायरा बढ़ता जा रहा था। ये सब पढ़ने-लिखने में दिलचस्पी रखने वाले लोग थे। इन लोगों को भी हम शिवाजी स्टेडियम के इसी पार्क में बुला लिया करते थे जिसके एक तरफ शहीद भगत सिंह मार्ग के फुटपाथ पर दो पान-सिगरेट वाले कियोस्क थे।   

एक दिन हम मिले तो इन्हीं में एक पान वाले के रेडियो पर समाचार चल रहे थे। उन्हें सुनते ही श्रीकृष्ण ने कहा, ‘यार, आज यहां रामलीला मैदान पर जेपी की रैली है, वहां जाना चाहिए।‘ इस रैली के पोस्टर मैंने भी देखे थे और मुझे पता था कि गुजरात से चल कर छात्र आंदोलन बिहार पहुंचा और फिर जयप्रकाश नारायण की अगुआई में पूरे देश में खासा हंगामा चल रहा था। प्रस्ताव सबको पसंद आया और कई तरह की जिज्ञासाओं से भरे हम रामलीला मैदान की तरफ चल दिए। हम चार लोग थे। मुकेश और श्रीकृष्ण के अलावा एक अशोक जी थे। बाद में उनसे मिलना बहुत कम हुआ, मगर वे भी सरकारी नौकरी, शायद डीएवीपी, में थे।  

कनॉट प्लेस उस दिन बिलकुल सामान्य था। रोज जैसा ट्रैफिक, ग्राहकों की प्रतीक्षा करती दुकानें, बूट पॉलिश करने और भीख मांगने वाले बच्चे, मस्ती के मूड में लड़के-लड़कियां और व्यस्तता का ढोंग करते साहब लोग। पंचकुइयां रोड और स्टेट एंट्री रोड को पार कर हम गप्पें मारते हुए मिंटो ब्रिज तक आ गए। इसके नीचे से जब हम मिंटो रोड पहुंचे तो नजारा एकदम बदला हुआ था। सड़क के दोनों ओर लोगों के झुंड के झुंड रामलीला मैदान की तरफ चले जा रहे थे। थोड़ा आगे बढ़ने पर लाउडस्पीकरों से रामलीला मैदान में दिए जा रहे भाषण सुनाई देने लगे। शायद कोई कनिष्ठ नेता बोल रहा था। वह अलग-अलग राज्यों में हुए विरोध प्रदर्शनों का हाल बता रहा था, जिन पर पुलिस ने ऐसी बर्बरता बरती थी कि महिलाओं और बूढ़ों को भी नहीं बख्शा था।

रामलीला मैदान के भीतर पहुंचते-पहुंचते वहां का माहौल हम पर तारीं हो चुका था। भीड़ बहुत थी तो पुलिस भी बहुत थी। मिंटो रोड के नुक्कड़ से लेकर रामलीला मैदान के तुर्कमान गेट वाले छोर तक पुलिस ही पुलिस दिख रही थी। शायद उसके दूसरी तरफ भी होगी जहां हमारी नजर नहीं जा सकती थी। मुझे याद है कि मोरारजी देसाई के भाषण के बीच मंच से काफी दूर कुछ हलचल हुई तो उन्होंने भाषण रोक कर पूछा कि वहां क्या हो रहा है। फिर बोले, ‘शांति से बैठिये। किसी से मत डरिये। सांप भी निकल आए तो बैठ जाइए। वह कुछ नहीं कर पाएगा। खुद ही दब कर मर जाएगा।‘

फिर अंत में जेपी बोले और काफी देर तक बोले। उनका कहना था कि यह बदलाव की लहर है और अब इसका रुकना मुश्किल है। भीड़ उन्हें बहुत गौर से सुन रही थी। उन्होंने जो कुछ पुलिसवालों से कहा, वह भी मुझे काफी हद तक याद है। शायद उनके शब्द थे कि ‘यहां बहुत से पुलिस के जवान मौजूद हैं। मुझे उनसे खास तौर पर यह कहना है कि ये जो इतनी बड़ी संख्या में लोग यहां आए हुए हैं, ये सब आपके ही भाई-बंद हैं। इन लोगों पर लाठी या गोली चलाने से पहले आपको सोचना चाहिए। जब भी आपको लाठी या गोली चलाने का आदेश दिया जाता है तो उसका पालन करने से पहले आपको यह सोचना चाहिए वह आदेश कितना सही है।‘ हमसे मुश्किल से बीस कदम दूर पुलिसवालों का एक जत्था खड़ा था। मैंने देखा कि वे सब मंच की तरफ देख रहे थे। पर उनकी आंखों और उनके चेहरे पर सहमति अथवा असहमति का कोई भाव कोई निशान नहीं था।

लौटते वक्त रामलीला मैदान से निकलने में काफी मशक्कत करनी पड़ी। जब हम मिंडो रोड पहुंच कर ठीक से चल पाने की स्थिति में आए तब भी कोई कुछ नहीं बोला। हम सब जैसे किसी ‘सस्पेंडेड एनीमेशन’ से गुजरे थे और उसके प्रभाव को जितनी भी देर संभव हो संजो कर रखना चाहते थे। मैंने पाया कि हमारे साथ लौटती भीड़ में भी बहुत कम लोग कुछ बोल रहे थे। उनमें ज्यादातर बिलकुल खामोशी से चले जा रहे थे।

काफी देर हम लोग ऐसे ही चलते रहे। फिर श्रीकृष्ण की आवाज आई, ‘क्या शिवाजी स्टेडियम तक हम लोग बिना कुछ बोले चलेंगे?’ इस पर हम सभी मुस्कुराए और बातचीत शुरू हो गई। कुछ कदम चले होंगे कि मैंने कहा- ‘यार, मुझे लगता है कि कुछ होने वाला है।’ किसी ने पूछा- ‘मतलब, क्या होने वाला है?’ मैंने जवाब दिया- ‘पता नहीं, मगर इस रैली के माहौल से मुझे लगता है कि देश में बहुत कुछ बदलने वाला है।‘

इस पर दोस्तों में से कोई कुछ कहता, उससे पहले हमारे पीछे से आवाज आई- ‘कुछ नहीं बदलने वाला।’ हम लोगों ने मुड़ कर देखा। वे एक बुजुर्ग सज्जन थे। कमजोर काया, मटमैला कुर्ता-पाजामा, चप्पल, चश्मा और बढ़ी हुई दाढ़ी। चलते-चलते ही उन्होंने आगे कहा- ‘बेटा तुम अभी छोटे हो। बड़े होकर तुम भी जान जाओगे कि कुछ नहीं बदलता। जो बदलता है उसका कोई मतलब नहीं होता और जिसका मतलब होता है, वह कभी बदलता नहीं।‘ सुन कर हम चारों लोग गंभीर हो गए। वे सज्जन अकेले थे। हमसे ज्यादा तेजी से चलते हुए उन्होंने हमें पीछे छोड़ दिया। आसपास से पूरी भीड़ गुजर रही थी। पता नहीं किसी और ने उनकी बात पर ध्यान दिया या नहीं। मगर उस अनजान बूढ़े व्यक्ति का वह कथन आज तक मेरे दिमाग पर खुदा हुआ है।   

हम लोग शिवाजी स्टेडियम लौटे। फिर हम कहानियों और कविताओं की बात करने लगे। शायद दो घंटे और गप्पें मारने के बाद सबको अपनी-अपनी बस पकड़ने की चिंता होने लगी। देर रात तक मैं भी घर लौट आया। अगले दिन पता लगा कि देश में इमरजेंसी लग चुकी है।

(जारी)

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘समय की चर्चा’ के संपादक हैं।

भाग दो– इमरजेंसी- डर और माफ़ीनामों के बाद आई वह ख़बर जिसके लिए देश पूरी रात जागा..

भाग तीन- इमरजेंसी हटी, इंदिरा हारीं और आई जनता सरकार, जैसे आता है जीवन में फ़रेब !