नए मोटर व्हीकल एक्ट के जुर्मानों से जो लाखों करोड़ों रुपया सरकार की जेब में आ रहा है , उसकी मदद से सरकार को एक रिसर्च करवाना चाहिए कि आखिर सड़क दुर्घटनाओं की वजह क्या है , और उन्हें रोकने में इस तरह के कानून और चालानी कार्रवाई से क्या फायदा होता है ? यह रिसर्च कुछ हैरान करने वाले नतीजों को सरकार के सामने ला सकती है। जानकारों ने ट्रैफिक मैनेजमेंट के 3 ई बताए हैं। पहला इंजीनियरिंग दूसरा एजुकेशन और तीसरा एनफोर्समेंट! पहली दो जवाबदरियां सरकार की हैं मगर सरकार खुद कुछ न करते हुए हर चीज नागरिकों पर डालना चाहती है।
ज्यादातर हादसे दरअसल खराब रोड इंजीनियरिंग, टूटी फूटी सड़कों , अध बने पुल-पुलियों के वजह से होते हैं। रोड को डिजाइन करने के लिए जो तकनीकी महारत चाहिए वह या तो हमारे ज्यादातर इंजीनियरों के पास है ही नहीं या ठेकेदार को फायदा पहुंचाने के लिए उसे भुला दिया जाता है।
इंदौर के पास आगरा मुम्बई राज मार्ग पर एक घाट है। गणेश घाट नाम की ये ढलान अपनी गलत इंजिनीरिंग की वजह से सैकड़ों जानें ले चुकी है। इसका ढलान इतना गलत डिजाइन कर दिया गया है कि उतरते समय भारी वाहनों के ब्रेक नहीं लगते और वे बेकाबू होकर पलट जाते हैं। पर हेलमेट के चालान बनाने वाली सरकार ने इस घाट की हत्यारी डिजाइन के लिए किसी का चालान नहीं बनाया।
सरकार कम से कम इतना तो कर सकती थी इंडियन रोड कांग्रेस से कहकर रोड इंजीनियरिंग के उस प्रावधान पर बहस करवा सकती थी जिसका फायदा उठाकर इंजीनियरों ने यह हत्यारी डिजाइन बनाई। खराब रोड इंजीनियरिंग के वजह से होने वाले हादसों की यह अकेली मिसाल नहीं है। अखबारों में दुर्घटनाओं की खबर ध्यान से पढ़िए। ज्यादातर हादसे सड़क पर अचानक आए अंधे मोड़, रोड की चौड़ाई से कम चौड़े पुल पुलियों, ज्यादा तेज़ ढलान , सड़क के गड्ढे ,सड़क पर संकेतक नहीं लगे होने की वजह से होती हैं। सड़क पर जारी निर्माण कार्य के दौरान सरकारी एजेंसियों द्वारा की जाने वाली लापरवाही हर साल हजारों जानें लेती है। इंदौर में बीआरटीएस नाम की एक सड़क बनने के दौरान कई जानें गई, क्योंकि इंजीनियर और ठेकेदारों ने अध-बनी सड़कों पर रिफ्लेक्टिव पट्टी लगाने तक की जहमत नहीं उठाई जो दूर से वाहन चालकों को दिख जाए।
इंदौर में रिंग रोड पर दो चौराहे है रेडिसन चौराहा और खजराना। इन दोनों चौराहों पर पिछले दिनों सामान्य स्पीड से जा रहे ट्रक अचानक पलट कर राहगीरों और दोपहिया वाहन चालकों पर गिर गए। यह खराब रोड इंजीनियरिंग की एक और मिसाल थी।
ट्रक और कंटेनर की चपेट में आए इन लोगों की मौत को हेलमेट पहनने ,लाइसेंस रखने और गाड़ी के इंश्योरेंस कराने से भी नहीं टाला जा सकता था। सड़क हादसों में लाखों पैदल यात्री भी मरते हैं। हेलमेट ,लाइसेंस और बीमे पर हो रहे हजारों रुपए के जुर्माने से इनकी जान कैसे बच सकती है सरकार को बताना चाहिए।
सरकार को असल में लोगों की जान की चिंता नहीं है यदि होती तो वह सड़क के उन गड्ढों को ठीक करती जिन्हें बचाने में पिछले दिनों खंडवा रोड पर तीन लड़के ट्रक की चपेट में आकर मर गए।
सड़क पर खड़ी ब्रेकडाउन गाड़ीयों से टकराकर हर साल हजारों लोग मरते हैं। हाईवे पर गश्त करती पुलिस की गाड़ियां चाहे तो एक रिफ्लेक्टिव ट्रायंगल लगाकर इन दुर्घटनाओं को रोक सकती हैं मगर मुश्किल यह है कि तरह के कामों में कोई पानी पैसा पैदा नहीं होता उल्टे खर्च होता है।
नई मोटर व्हीकल के साथ समस्या यह है कि सरकार कुछ कर दिखाने के उत्साह में भूल गई है कि मोटर व्हीकल एक्ट की आत्मा सड़क पर चलने वालों की सुरक्षा है। नियम पालन करवाना तो उस कानून का शरीर है। सरकारी अफसरों ने सुविधा के अनुसार शरीर को पकड़ लिया है और आत्मा छूट गई है। इस कानून का बेजा इस्तेमाल हर चौराहे पर वैसे ही बरसों से हो रहा है। पुलिस का मकसद लोगों की सुरक्षा नहीं बल्कि कानून का डर दिखाकर जुर्माना या रिश्वत वसूल करना है।
अगर ऐसा न होता तो कुछ समय पहले इंदौर में एक जिंदा आदमी अपनी स्कूटी के साथ पूरा का पूरा एक गड्ढे में समा गया , मर गया और उस से 200 मीटर दूर ,पुलिस वाले हेलमेट के चालान बनाते रहे । कानून के लंबे हाथों की पहुंच 20 किलोमीटर की रफ्तार से चल रहे मोटरसाइकिल सवारों तक ही थी ,गड्ढा खोदने वाले लोगों तक नहीं। लोगों की सुरक्षा के लिए लगातार चिंतित सरकारी कारिन्दों ने गड्ढा खोदते वक्त जरूर देखा होगा, पर इंश्योरेंस पॉलिसी की एक्सपायरी डेट उन्हें किसी आदमी के पूरा एक्सपायर हो जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण लगी होगी। ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां सरकारी अफ़सरों और पुलिस की थोड़ी सी समझदारी और मेहनत कई जाने बचा सकती थी। नया कानून लाने के उत्साह में सरकार भूल गई कि इसका सबसे बड़ा असर पुलिस और और आम आदमी के रिश्ते पर होगा जो पहले ही बहुत खराब है।
कानून की किताब में यह अकेला कानून है जो एक आम अमन पसंद शहरी को अपराधी बनाता है। पुलिस कचहरी से उसका परिचय कराता है। यदि यह कानून न होता तो बहुत से लोग थाना कचहरी देखे बगैर पूरा जीवन बिता देते। इसलिए इस कानून को छेड़ने से पहले सरकार को सोचना विचारना चाहिए था। आम आदमी पुलिस से डरता और नफरत करता है। उसकी सामूहिक स्मृतियों में राजा के कारिंदों के जुल्म किसी डरावने ख्वाब की तरह दर्ज है। सरकार लाख पोस्टर लगाए, कि पुलिस आपकी सहायता के लिए हैं। पर आम आदमी उसे सहायक नहीं शोषक समझता है। और उससे दूर रहना चाहता है । इस नए कानून की वजह से इस रिश्ते में नई उलझन पैदा हो सकती हैं।
एक चीनी कहावत है- यदि चूहे को भागने का रास्ता ना मिले तो वह शेर बन जाता है। और हमला कर देता है। जिस आदमी की तनख्वाह दस हज़ार हो उसे सत्तर हज़ार का चालान थमाना , चूहे को कमरे में बंद करने जैसा ही है। इसलिए लोगों की पुलिस से झड़प मरने मारने तक पहुंच जाए तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
सड़क हादसे के बारे में सोचते हुए शुरुआत वहां से करना चाहिए कि कोई आदमी ट्रैवल करता ही क्यों है। आजादी के बाद हमारे शहरों का बेतरतीब विकास हुआ है। शहरों को होरिजेंटली फैलाते हुए हमने यह सोचा ही नहीं कि इतने सारे लोग शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक कैसे जाएंगे। कई जानकार मानते हैं शहर को लंबाई में नहीं ऊंचाई में बढ़ना चाहिए ताकि लोगों को अपने दफ्तर या बाजार जाने के लिए कम सफर करना पड़े। आज हर बड़े शहर में एक आम आदमी को अपने दफ्तर जाने के लिए 1 से 2 घंटे ट्रेवल करना पड़ता है। सड़कों पर वाहनों का दबाव बढ़ता जा रहा है। सार्वजनिक यातायात के साधन इस समस्या का कोई व्यावहारिक समाधान नहीं दे पा रहे हैं।
ऑटोमोबाइल लॉबी खुश है कि वाहनों की बिक्री साल दर साल बढ़ रही है। यही हाल एक शहर से दूसरे शहर जाने का भी है । सड़कें जितनी तेजी से बढ़ रही है उससे कहीं तेजी से वाहनों की संख्या बढ़ रही है। रेल यातायात अधिक सस्ता और सुरक्षित है पर ऑटोमोबाइल लॉबी ने उसे कभी बढ़ने नहीं दिया। गरीबों के लिए रेल यात्रा एक डरावना और कष्टप्रद अनुभव है। इसलिये वे इन दिनों मोटरसाइकिल पर अपने गांव जाते हैं जो कई बार उनके काम की जगहों से 300 – 400 किलोमीटर दूर होता है। यह दुर्घटना को आमंत्रण देने जैसा है। सरकार को सचमुच इनकी चिंता होती तो उन्हें एक आरामदायक रेल यात्रा का विकल्प देती ताकि वे ये खतरनाक यात्रा ना करें। जिस तरह पेट्रोल पर अलग से कर लगाकर अटल सरकार ने पूरे भारत में सड़कों का जाल बिछाया था वैसा ही कुछ रेल के बारे में भी किया जा सकता था , ताकि हमारे हाईवेज पर वाहनों का दबाव कम होता और हादसों में कमी लाई जा सकती ,पर रेल यातायात को बढ़ावा देने का मतलब होता ऑटोमोबाइल लॉबी को नाराज करना जो सरकार नहीं कर सकती।
शहरों में एक बहुत बड़ी आबादी जो इस कानून से सीधे प्रभावित होगी, वह मोटरसाइकिल पर चलने वाले गरीब कारीगर , सेल्समैन ,फैक्ट्री मजदूर जैसे लोग हैं। हर चौराहे पर चालानी कार्रवाई का ड्रामा देखिए यही लोग उसके शिकार होते हैं। किसी छोटे मोटे कागज के कम होने पर सिपाहियों के आगे गिड़गिड़ा रहे ये लोग अपराधी नहीं है।
दरअसल कागजों की दुनिया इनके लिए नई है , इसलिए ये गलती कर जाते हैं। इन्हें हेलमेट पहनाने जिद करने वाली सरकार क्या यह नहीं जानती कि इनके काम करने की जगहों पर इनसे वे करतब करवाए जाते हैं , कि खतरों के खिलाड़ी भी शर्मा जाएं। ये गरीब जिन बस्तियों में रहते हैं ,वहां बिजली की डी.पी की तारें खुली हुई है, छतों पर से हाईटेंशन की लाइनें गुजरती हैं, सड़कों पर ड्रेनेज के मेन होल खुले रहते हैं ,कीचड़ और गंदगी में जानलेवा बीमारियां पनपती हैं, पीने के पानी में ड्रेनेज का गन्दा पानी मिला हुआ आता है। इनकी जान को हजार खतरे हैं , पर सरकार ने अपनी सुविधा से एक खतरा चुन लिया है।
गांव से आकर मोटरसाइकिल खरीदना इन लोगों की मजबूरी है। यदि बाजार का काम करना है तो सेठ नौकरी देने से पहले मोटरसाइकिल की शर्त रखता है। कर्जा करके मोटरसाइकिल तो ले ली पर लाइसेंस कहां से लाएं। लाइसेंस बनाने के लिए आधार कार्ड से लगाकर मार्कशीट तक सब कुछ चाहिए । एक कागज बनवाने के लिए दूसरा कागज चाहिये। कागज की जुगाड़ हो भी जाए तो लाइसेंस बनवाना आसान काम नहीं है। छुट्टी लेकर आरटीओ के दफ्तर के चक्कर लगाने में वह नौकरी ही चली जाती है जिसके लिए लाइसेंस चाहिए था।
अजीब बात है कि यदि सरकार को सचमुच लगता है की लाइसेंस से सुरक्षा होती है तो उसे बनाने के तरीके को आसान क्यों नहीं कर देती। नगर निगम प्रॉपर्टी टैक्स वसूलने के लिए शिविर लगा सकता है तो गरीबों के लिए लाइसेंस का शिविर क्यों नहीं लगाया जा सकता ? यदि थर्ड पार्टी बीमा इतना महत्वपूर्ण है तो रोड टैक्स की तरह उसे ही भी लाइफ टाइम क्यों नहीं कर देते। लेकिन सरकार सिर्फ दंड देना चाहती है हर चीज नागरिकों के सिर पर डालकर खुद हर जिम्मेदारी से बरी होना चाहती है। चाहे किराएदार की सूचना देना हो, या सड़क सुरक्षा का मामला।
पर सरकार को क्यों दोष दिया जाए। जिस देश के नागरिक समाज को बर्दाश्त करने आदत पड़ गई हो , वह शायद इसी लायक है, कि एक के बाद एक नए कानून , नई पाबंदियां उस पर लाद दी जाए ताकि वह भूल जाए कि कर्तव्य के अलावा उसके कुछ अधिकार भी है।