भूमि सुधार – संपूर्ण क्रांति से निकले, अधूरे वादे की आस में हैं बिहार के भूमिहीन..

नीरज कुमार
बिहार Published On :


बिहार में भूमि सुधार को लेकर नक्सल आन्दोलन की एक सक्रिय पृष्ठभूमि रही है,उसी नक्सल आंदोलन के नेतृत्व वाली पार्टी भाकपा माले लिबरेशन मुख्य धारा की राजनीति में आने के बाद भी बिहार में सड़क से लेकर सदन तक अब भी भूमि सुधार की लड़ाई लड़ रही है। लेकिन क्या वाकई भूमि सुधार अब चुनावी मुद्दा भी बचा है? बिहार के गरीब-वंचित इस वादे की आस में कई दशक से बस इंतज़ार में जीवन काट रहे हैं।
बिहार चुनाव 2020 अपने अंतिम चरण में पहुँच चुका है,जिस बिहार में सामाजिक न्याय के नारे बुलंद हुआ करते थे, वहाँ बिहार की सबसे बड़े राजनीतिक दल का नारा हो चुका  है-सामाजिक न्याय के बाद आर्थिक न्याय। यहाँ सवाल ये खड़ा हो जाता है कि क्या भारतीय संसदीय व्यवस्था में सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय अलग अलग हैं या बिना सामाजिक न्याय के आर्थिक न्याय सम्भव है?
बिहार के महागठबंधन में प्रमुख सहयोगी के रूप में भाकपा माले है,जिसकी बिहार की राजनीति में प्राथमिक मांग रही है-बिहार में भूमि सुधार। इसी भूमि सुधार की माँग को लेकर पूरे बिहार में नक्सल आंदोलन चला।इस चुनाव में भी भाकपा माले ने भूमि सुधार को अपना नारा बनाया है। भाकपा माले के चुनावी घोषणा पत्र में तो भूमि सुधार पर प्राथमिकता है। जबकि राजद के घोषणा पत्र में भूमि सुधार का जिक्र ही नहीं है, वैसे भी तेजस्वी के एजेंडे में इस बार सामाजिक न्याय है ही नहीं। ऐसे में माले के सामने एक वैचारिक चुनौती है कि वो सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय को साथ में कैसे लेकर चलेगा,कैसे भूमि सुधार के वादे को पूरा करेगा?
इस संक्षिप्त टिप्पणी में हम ये बताना चाहेंगे कि बिहार में भूमि सुधार के मुद्दे की अहमियत क्या है;
बंगाल में भूमि सुधार के शिल्पी कहे जाने वाले देवब्रत बंदोपाध्याय के नेतृत्व में बिहार भूमि सुधार आयोग बनाया गया, जिसने अपनी रिपोर्ट 2008 में सौंपी। ये आयोग नीतीश कुमार ने बिठाया था,कारण था 2005 में भूमि सुधार – उनके चुनावी वायदों में से एक था।
बंदोपाध्याय आयोग ने कई चीज़ों को रेखांकित किया,आयोग के अनुसार बिहार भूमि सुधार अधिनियम 1950 में समय समय पर संशोधन करके उसमें से भूमि सुधार के महत्व को खत्म कर दिया गया है।

बंदोपाध्याय ने बिहार में भूमि सुधार को लेकर 3 मुख्य संस्तुति दी हैं-
1
.लैंड सीलिंग को 15 एकड़ तक सीमित किआ जाए।भूमि के सभी 6 तरह के वर्गीकरण को खत्म किया जाए,सभी भूमि को एक समझा जाये अर्थात कृषि योग्य और कृषि अयोग्य भूमि जैसे वर्गीकरण को खत्म किया जाए।
2.16.68 लाख भूमिहीन कृषक परिवारों को 0.66 एकड़ से 1 एकड़ तक भूमि दी जाए; 5.48 गैर कृषि मजदूर जिनके पास घर नहीं है,प्रत्येक को 10 डिसमिल भूमि घर बनाने के लिये दिया जाए।
3. बिहार बटाईदारी क़ानून लाया जाए और ये प्रावधान किया जाए, यदि भूमि का मालिक कृषि उत्पादन का खर्च उठा रहा तो बटाईदार को उत्पाद में 60% हिस्सा मिले। यदि बटाईदार उत्पादन में अपनी लागत लगाता है तो तो बटाईदार को उत्पाद का 70-75% शेयर मिले।
बंदोपाध्याय आयोग की रिपोर्ट को आज तक नीतीश कुमार ने लागू नहीं किया और अपने वायदे से मुकर गए,सदन में पिछले साल माले विधायक के सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस बात को ये कह के टाल देते हैं कि बिहार में कहाँ जमीन है,जबकि आयोग ने बाकायदा जमीन का रिकॉर्ड दिया है।
बिहार में भूमि सुधार नेहरू के समय इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि बिहार कांग्रेस पर देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर सीएम रहे श्रीकृष्ण सिंह तक जमीदारों और दबंग जातियों का प्रभुत्व रहा है,यही वजह रही कि राजेन्द्र कुमार ने राष्ट्रपति रहते हुए नेहरू को भूमि सुधार के लिए रोका।
हालांकि सामाजिक न्याय के नारे के साथ सत्ता में आए कर्पूरी ठाकुर से पूरी उम्मीद थी कि बिहार में भूमि सुधार होगा, लेकिन उनके सरकार में भी दबंग जातियों का प्रभुत्व रहा,और भूमि सुधार टाल दिया गया।
90 में ‘सोशल जस्टिस एरा’ के नाम से प्रसिद्ध लालू जी का शासन आया,लालू जी के शासन में भूमि सुधार की बहुत उम्मीद थी।भूमि सुधार को लेकर उन्होंने ऑपरेशन टोडरमल चलाया जो सफल नहीं हुआ,इस प्रकार फिर से भूमि सुधार नहीं हो पाया।
नीतीश बाबू 2005 में भूमि सुधार के नारे के साथ आये लेकिन BJPके सहयोगी के रूप में क्या ही भूमि सुधार कर सकते थे,कारण साफ था,बिहार बीजेपी जमीदारों और दबंगों का नेतृत्व करती है।
2013 में नीतीश जी जब बीजेपी से अलग हुए तो उन्होंने महादलितों को 3 डिसमिल जमीन देना शुरू किए,नीतीश जी द्वारा मांझी जी के CM बनने पर ये 5 डिसमिल कर दिया गया।इस योजना को इतना अव्यवस्थित तरीके से क्रियान्वित किया गया कि बहुत सारी शिकायतें आने लगी और आवंटन रोक दिया गया।
भाकपा माले लगातार भूमि सुधार पर आक्रामक रही है,आज वो राजद की सहयोगी है,राजद के कैंडिडेट की सूची देखी जाए तो ज़मीदारों और दबंगों से भरी पड़ी है,ऐसे में क्या भाकपा-माले अपने वायदे को निभा पाएगी।माले यदि सरकार में आ गयी तो उसकी चुनौती बढ़ने वाली है,क्योंकि उसका वोटर समाज का वो तबका है,जो आज़ादी के बाद भी आज सामाजिक और आर्थिक न्याय के लिए तरस रहा।

बिहार चुनावों में भूमि सुधार के मुद्दे के सिर्फ एक पार्टी के घोषणा पत्र तक सीमित रह जाने और आगे की चुनौतियों पर ये टिप्पणी, नीरज कुमार ने लिखी है। नीरज, क़ानून की पढ़ाई कर रहे हैं।