सहज मानव स्वभाव है कि हम परीक्षा देने के बाद, अंकपत्र आने से पहले ही कयास लगाना चाहते हैं कि हम उत्तीर्ण होंगे या नहीं – होंगे तो कैसे अंकों से और हमारी कक्षा के बाकी साथियों में कौन हम से आगे निकलेगा और कौन पिछड़ेगा. अख़बारों में कई दशक से, चुनावों के नतीजों का अंदाज़ा लगाते हुए लेख लिख कर-कई स्वघोषित भविष्यवक्ता देश के बड़े राजनैतिक विश्लेषक बन गए। राजनैतिक दल, अपनी सीटों पर अपना सर्वेक्षण – कार्यकर्ताओं की जगह ऐसे ही विश्लेषकों से कराने लगे, तो ये मोटी कमाई वाला व्यवसाय हो गया और फिर आया टीवी का दौर। टीवी के दौर में हमने सब कुछ पश्चिम से आयात किया और हम इस हड़बड़ी में थे कि हमने शब्द भी आयात कर लिया। वोटरों के किसी सुविधाजनक और सस्ते दाम में उपलब्ध हो सकने वाले सैंपल साइज़ का सर्वे कर के – समाचार चैनलों ने स्टूडियों में चुनाव परिणाम आने से पहले ही शपथ दिलाने की रस्म शुरू करवा दी।
ज़ाहिर है कि इसमें ग़लतियों की संभावनाएं ज़्यादा थी। एक समय एक्ज़िट पोल (पश्चिम से आयातित वह शब्द) सटीक होते थे – कारण संख्या में कमी थी…समाचार चैनल्स की भी और राजनैतिक दलों की भी। नए दो कारण भी हैं, वोटर अब अधिक चालाक (सकरात्मक रूप से भी) है और ये समय पोस्ट ट्रुथ एरा है। ऐसे में अमूमन एक्ज़िट पोल सटीक होना भी एक उपलब्धि हो गई है, जबकि उसे सटीक ही होना चाहिए। लेकिन समाचार चैनल या अख़बार अब इसे लकी ड्रॉ या सट्टेबाज़ी के खेल की तरह चलाने लगे हैं कि सही रहा तो ठीक, वरना इसका ज़िक्र अगले चुनाव में करेंगे। दर्शक इसे देखते हैं, क्योंकि दर्शक क्रिकेट और सिनेमा की एकरसता से ऊब चुका है। अब जो नेटफ्लिक्स देखते हैं, वह एक्ज़िट पोल नहीं देखते। आप हाल के दिनों की टीआरपी रेटिंग्स का अध्ययन करें, तो आपको इसके साक्ष्य मिल जाएंगे।
लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के नतीजों को लेकर फिर से उत्साह दिखा। इसकी वजह साफ है और यहां लिखने की ज़रूरत नहीं है। पर समाचार चैनल्स के एक्ज़िट पोल इस बार सटीक होंगे, इसकी संभावना भी बढ़ती दिखाई दी है। यहां सवाल है कि ऐसा क्यों है? क्योंकि सभी चैनल्स और अख़बारों के एक्जिट पोल, लगभग एक सा ही परिणाम दिखा रहे हैं। इसमें सिर्फ दो ही संभावनाएं बचती हैं, पहली – या तो सभी सटीक साबित होंगे या फिर सभी ग़लत। इसके आगे का तर्क इन टीवी चैनल्स पर एक्ज़िट पोल पैनल्स में बैठे सत्ताधारी गठबंधन के प्रवक्ताओं की भंगिमा, भाषा और भद्रता से मिल जाता है – जो कि अमूमन आक्रमण और आक्रोश की मुद्रा में रहते हैं।
लेकिन क्या है, जो टीवी की स्क्रीन पर नहीं दिखा लेकिन एक्ज़िट पोल्स को ध्यान से देखने पर समझ में आ रहा है? आइए कुछ विश्लेषण जैसा करते हैं –
- अगर इस मोटी तस्वीर पर एक नज़र देखें, तो कुछ पोल्स जहाँ महागठबंधन को पूर्ण बहुमत दिखा रहे हैं, तो वहीं कुछ पोल्स दो मुख्य गठबंधन के बीच सरकार बनाने को लेकर कड़ी टक्कर दिखा रहे हैं। लेकिन सबसे अहम बात है कि सरकार की मुखपत्र की भूमिका निभाने वाले मीडिया चैनल भी विपक्ष यानी महागठबंधन को बहुमत देते नज़र आ रही हैं। चाणक्य एग्जिट पोल ने महागठबंधन को 169-191 सीटें मिलती दिखाई हैं।
इसमें अहम बात न केवल ये है कि इनमें से तमाम चैनल, सत्ताधारी पार्टी की मुख़ालिफ़त से भयभीत रहे हैं बल्कि कई खुल कर पीएम और एनडीए के समर्थक रहे हैं। इनके एक्ज़िट पोल भी अगर महागठबंधन को बहुमत मिलता दिखा रहे हैं, तो इसमें पहली बात ये साफ़ है कि बिहार के वोटर ने अपने रवैये के उलट बर्ताव किया है। यानी कि मन में कुछ और ज़ुबान पर कुछ और नहीं रखा है, बल्कि मुखर हो कर वोट किया है और बताया भी है।
इसके अलावा इन एक्ज़िट पोल्स के सैंपल साइज़ भी अलग-अलग हैं – जो 20 हज़ार से अधिक से लेकर 70 हज़ार से कुछ कम तक हैं। ऐसे में सैंपल साइज़ में इतना अंतर होने के बाद भी, अगर एक्ज़िट पोल्स के नतीजे एक जैसे हैं – ये अहम हो जाता है। क्योंकि इसका अर्थ ये है कि जनता मुखर भी है और माहौल साफ भी है। इसके अलावा सैंपल साइज़ में अंतर ने नतीजों पर असर नहीं डाला क्योंकि हर समाज में एक ही सा माहौल है। वरना सैंपल साइज़ का अंतर, डेमोग्राफी और समुदाय की विविधता की कमी की स्थिति में लगातार नतीजों में गड़बड़ी करता रहा है। इसका एक अर्थ ये भी है कि रैंडम सैंपलिंग की स्थिति में भी नतीजे एक से ही आए हैं।
2. टीवी चैनलों पर होने वाली बहस में शामिल एनडीए नेताओं के भाव से भी प्रकट हो रहा हैं कि जैसे वे अपनी हार मान चुके हों। टीवी बहस के दौरान अपने स्वभाव से इतर शांत-सौम्य बैठे नज़र आएं और कोई बड़ा दावा करते भी नहीं दिखें। कई एग्जिट पोल्स के अनुसार सरकार बनाती महागठबंधन के नेताओं में भी कोई अति-उत्साह नहीं देखा गया। अक्सर वे यहीं कहते नज़र आएं कि परिणाम इससे भी बेहतर होगा।
3. अगर सभी एग्जिट पोल्स की माने तो राजद न सिर्फ बड़ी पार्टी के रूप में सामने आ रही है, बल्कि इसके नेता तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री पद के लिए सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले नेता हैं। वहीं नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के लिए न सिर्फ कम पसंद किए जाने वाले नेता हैं, बल्कि उनके पार्टी को भी वोट प्रतिशत और सीटों में कमी आ रही हैं। नीतीश के सहयोगी दल भाजपा के साथ भी यही स्थिति हैं। जानकार उम्मीद कर रहे थे कि नीतीश कुमार के एंटी-एन्कम्बेन्सी के बावजूद भी पीएम मोदी की चुनावी सभा काम करेगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं. पीएम मोदी के विकास का हरेक वादा बिहार में ध्वस्त हो गया. एक्ज़िट पोल्स के नतीजों में जिस एक बात को लेकर ज़्यादातर मीडिया ने चुप्पी साध ली, वो ये थी कि पीएम मोदी की लोकप्रियता में भारी कमी दिखाई दी है। यानी कि बिहार के वोटर ने विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर भरोसा नहीं जताया है।
4. इन एक्ज़िट पोल्स से चिराग़ पासवान नाम का मिथ भी ध्वस्त हो गया है। चिराग़ पासवान और उनकी पार्टी के बारे में कई मीडिया संस्थान, ज़रूरत से ज़्यादा अनुमान लगा रहे थे कि लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान एक अहम फैक्टर के रूप उभर कर सामने आ सकते हैं। लेकिन एग्जिट पोल्स की माने तो लोजपा पांच सीटों पर लुढ़कते हुए नज़र आ रही है, इसके बावजूद कि लोजपा के कई प्रत्याशी भाजपा के थे। हालांकि चिराग पासवान का एनडीए से अलग चुनाव लड़ने का फैसला – एक मायने में सही भी साबित हुआ है क्योंकि उनका वोट प्रतिशत बढ़ता दिखाई दे रहा है। पर ये जनता का झुकाव है या फिर भाजपा से लोजपा में आए उम्मीदवारों का असर…इसके लिए इंतज़ार करना ही होगा।
5. साथ ही ये भी तय दिखाई दे रहा है कि चिराग पासवान या उनकी पार्टी के चुनाव लड़ने से भाजपा बल्कि एनडीए को फ़ायदा तो नहीं ही हुआ है। तमाम सीटों पर चिराग पासवान के उम्मीदवारों ने सिर्फ जेडीयू ही नहीं, भाजपा का भी नुकसान किया है और इसका असर चुनाव के दूसरे चरण के अंत तक – भाजपा नेताओं के भाषणों में दिखने लगा था। पीएम मोदी की भक्ति में जले चिराग ने अंततः महागठबंधन के घर में रोशनी की है।
लेकिन अगर ओवरआल देखें, तो कुछ एग्जिट पोल को छोड़कर, ज़्यादातर एग्ज़िट पोल किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत देते नज़र नहीं आ रहे हैं। एग्ज़िट पोल के आंकड़े कड़े संघर्ष की ओर इशारा कर रहे हैं। नीचे अलग-अलग चैनलों के एग्ज़िट पोल से जुड़े आंकड़े दिए गए हैं।
चुनावी नतीजे इन आंकड़ों से अलग हो सकते हैं।
एबीपी-सी वोटर
एबीपी-सी वोटर के एग्जिट पोल के अनुसार राज्य की 243 विधानसभा सीटों में से एनडीए को 104-128 सीटें मिल सकती हैं। वहीं महागठबंधन के खाते में 108-131 सीटें जा सकती हैं। चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी को केवल 1-3 सीटों से संतोष करना पड़ सकता है जबकि अन्य को 6 सीटें मिल सकती हैं।
टाइम्स नाऊ-सी वोटर
टाइम्स नाऊ-सी वोटर के एग्जिट पोल के अनुसार भी कांटे की टक्कर होती दिख रही है। एनडीए को जहां 116 सीटें मिल सकती हैं, तो वहीं महागठबंधन को 120 सीटें, एलजेपी को 1-3 सीटें मिल सकती हैं।
रिपब्लिक – जन की बात
रिपब्लिक – जन की बात के एग्जिट पोल के अनुसार NDA को 91-117 सीटें मिलने का अनुमान है जबकि महागठबंधन को 118-138 सीटें मिल सकती हैं जो कि बहुमत के आंकड़े से ज्यादा है। अन्य के खाते में 5-8 सीटें जा सकती हैं।
टीवी-9 भारतवर्ष
टीवी-9 भारतवर्ष के एग्जिट पोल के अनुसार एनडीए को 110-120 सीटें मिल सकती हैं। वहीं महागठबंधन के खाते में 115-125 सीटें जा सकती हैं। और अन्य के खाते में 3-5 सीटें जाने का अनुमान है।
न्यूज 24-सी वोटर
न्यूज 24-सी वोटर के अनुसार भी महागठबंधन को एनडीए की तुलना में ज्यादा सीटें मिल सकती हैं। महागठबंधन को 120 सीटें जबकि एनडीए को 116 सीटों से संतोष करना पड़ सकता है। चिराग पासवान की पार्टी को केवल 1 सीट मिलने का अनुमान जताया गया है तो वहीं अन्य के खाते में 6 सीटें जा सकती हैं।
आज तक- एक्सिस माय इंडिया
आज तक एक्सिस माय इंडिया के अनुसार भी महागठबंधन को एनडीए के मुकाबले ज्यादा सीटें मिल रही हैं। महागठबंधन को 139- 161 सीटें जबकी एनडीए को 69-91 सीटों से संतोष करना पड़ सकता है।
टुडेज- चाणक्य
टुडेज चाणक्य के अनुसार महागठबंधन को 169-191 सीटें मिल सकती है जबकि एनडीए को मात्र 44-56 सीटें मिलने का अनुमान है। और अन्य के खाते में 4-12 सीटें जा सकती है।
2 और गठबंधनों का क्या?
एनडीए और महागठबंधन के अलावा बिहार में बने दो गठबंधनों की कोई भूमिका अगर हो सकती थी, तो वह या तो बाकी दो गठबंधनों के वोट में सेंध लगाने की हो सकती थी या फिर चुनाव के बाद किंगमेकर की स्थिति में आने की। लेकिन ये दुर्भाग्य कहें या उनकी नियति कि जीडीएसएफ या पीडीए, एक्ज़िट पोल्स के नतीजों में इनमें से किसी भूमिका में आते नहीं दिख रहे हैं। ख़ासकर एआईएमआईएम और बीएसपी ने बिहार में चुनाव लड़ने का फ़ैसला क्यों किया – इस बारे में हम शायद भविष्य में कभी जान सकें। हां, इसी के साथ उपेंद्र कुशवाहा के राजनैतिक करियर में भी एक ब्रेक लगता दिख रहा है – उनको अब बड़ी वापसी करनी होगी और उसके लिए कम से कम 2024 या 2025 तक इंतज़ार करना होगा।
2020 का सियासी समीकरण
एक्ज़िट पोल्स को सही मानें तो महागठबंधन की सरकार ही बिहार में आती दिख रही है। बहुमत से कुछ पीछे रह जाने की स्थिति में निर्दलीय विधायकों, उपेंद्र कुशवाहा या चिराग पासवान में से कौन आंकड़ा पूरा करने में मदद करेगा – ये अभी कहना संभव नहीं। लेकिन इनमें से कोई न कोई ये काम कर ही देगा।
दिलचस्प ये प्रेक्षण था कि टीवी पर एक्ज़िट पोल्स के दौरान एंकरिंग कर रहे कई एंकर, एनडीए के प्रवक्ताओं से भी अधिक दुखी दिखाई दिए। वे संयत थे और एनडीए से ‘कहां पर ग़लती हुई?’ ‘कहां कमी रह गई?’ ऐसे पूछ रहे थे, जैसे कि आत्ममंथन कर रहे हों। ये वही एंकर्स हैं, जो एनडीए की जीत दिखाई देने पर नतीजों के पहले ही, एक्ज़िट पोल्स के आधार पर – स्टूडियों में ही शपथ दिला देने को तैयार बैठे रहते थे।
एक्ज़िट पोल्स के नतीजे सही साबित न होने पर – जैसा कि भाजपा चाहती ही होगी, एनडीए और महागठबंधन में सबसे पहले बहुमत का आंकड़ा हासिल करने की रेस हो सकती है। हॉर्स ट्रेडिंग की होड़ हो सकती है, लेकिन इसमें कौन सा गठबंधन और दल सबका गुरू है – इस बारे में हम कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते, क्योंकि सब जानते ही हैं।
चिराग पासवान को इन विधानसभा चुनावों में तेजस्वी यादव के बाद, सबसे अधिक स्क्रीन टाइम मिला है। वो सोचते होंगे कि काश उनको इतना ही उनकी फिल्म में देखा गया होता, तो उनको शायद राजनीति में न आना पड़ता। लेकिन उनका भविष्य भी चुनावों के नतीजों में किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने से ही बेहतर होगा। वरना, जिसकी सरकार बिहार में बनेगी, चिराग शायद वहीं जले। हां, तेजस्वी उनको बड़ा भाई कहते हैं और वे तेजस्वी को छोटा भाई…पर राजनीति में बड़ा भाई वो होता है, जिसके पास ज़्यादा विधायक हों…