क्यों ज़रूरी है सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
ओप-एड Published On :


व्यवस्था ऐसी है कि सुप्रीम कोर्ट को सत्ता नहीं चाहिए लेकिन नेताओं को चाहिए, इसलिए अधिकारों के बेजा इस्तेमाल की संभावना नेताओं के मामले में ज्यादा है, सुप्रीम कोर्ट के लोग ऐसा कुछ करके भी अपने हित नहीं साध सकते हैं। इसके मुकाबले नेताओं का समर्थन आसान और तुरंत इनाम देने वाला है जो संस्थान को भी बदनाम नहीं करता है।  

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के इंटरव्यू का एक अंश बुधवार, 11 जनवरी को इंडियन एक्सप्रेस में लीड था। अगले दिन उसकी आलोचना की खबर पहले पन्ने पर नहीं थी। इसमें मुख्य बात यही थी कि (भारत में) मुसलमानों को हिन्दुओं की सर्वोच्चता मान लेनी चाहिए। अगले दिन 12 जनवरी को टाइम्स ऑफ इंडिया में लीड था, उपराष्ट्रपति (जगदीप) धनखड़ और (लोकसभा अध्यक्ष ओम) बिड़ला ने न्यायपालिका के आगे बढ़ने (अतिक्रमण) का विरोध किया। इस खबर का इंट्रो है, संवैधानिक संस्थाओं को ऐक्टिविज्म से बचना चाहिए : स्पीकर। मेरे पांच में से चार अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर थी। द टेलीग्राफ अपवाद रहा।

इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर लीड थी, उपराष्ट्रति ने सुप्रीम कोर्ट की बुनियादी संरचना को निशाना बनाया। द हिन्दू में भी यह खबर लीड थी, उपराष्ट्रपति ने कहा कि अदालत संसद की संप्रभुता को कमजोर नहीं कर सकती है। इस खबर की मुख्य बात यह थी कि उपराष्ट्रपति ने प्रेसाइडिंग ऑफिसर्स के 83वें कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा था कि 1973 के केसवानंद भारती मामले में यह फैसला कि संविधान को संशोधित करने की सीमा है और इसे इतना नहीं बढ़ाया जा सकता है कि बुनियादी संरचना ही बदल जाए।

आप जानते हैं कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ अधिवक्ता और राजनीतिज्ञ रहे हैं और इस पद के लिए बंगाल के राज्यपाल रहने के बाद भाजपा सरकार की पसंद हैं। धनखड़ की राय में यह गलत परंपरा डालना था और न्यायिक सर्वोच्चता स्थापित करने की कोशिश थी। मेरा मानना है कि मामला संसद और सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता का नहीं है और होता भी तो इसपर उसी समय चर्चा होनी चाहिए थी और चर्चा के बाद या बिना चर्चा के जो तय हुआ उसका पालन होना चाहिए। और यह देश के बंटवारे के मामले में भी है। तय होना है तो कश्मीर या पाक अधिकृत कश्मीर का मामला।

रोज पुराने मामले ही निकाले और निपटाए जाते रहेंगे तो नए और बाकी रह गए मामलों का क्या होगा? बहुमत या ताकत के दम पर सैकड़ों वर्ष बाद अगर बाबरी मस्जिद को तोड़कर राम मंदिर बन सकता है तो क्या यह स्थायी है या फिर कभी कोई और शक्तिशाली हुआ तो यहां कुछ और बन सकता है? किसी का स्मारक ही। नया करने वाला कोई भी ऐसे पुराने मामले नहीं उठाएगा पर लक्ष्य भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना हो, बहुसंख्य हिन्दुओं का समर्थन पाना हो तो केशवानंद भारती मामला एक रोड़ा है और उससे निपटना होगा और नई चर्चा को इसी नजरिये से देखा गया है।

ऐसे में आज टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड है –

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, घृणा फैलाने वाले 2021 के मामले में कोई गिरफ्तारी क्यों नहीं? इस खबर का इंट्रो है, पांच महीने के बाद एफआईआर हुई अभी तक चार्जशीट फाइल नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने जो सवाल किए हैं उसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने हाइलाइट किया है। सवाल है, धर्म संसद में घृणा फैलाने वाले भाषण के आरोपों के बाद दिल्ली पुलिस ने क्या कदम उठाए हैं? कितनी गिरफ्तारियां की गई हैं? कौन जांच अधिकारी है जिसने एफआईआर दर्ज होने के आठ महीने बाद भी अभी तक चार्जशीट नहीं फाइल की है?

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार जब अपनी ओर से बहुत सारे सवालों के जवाब नहीं दे रही है, सवाल पूछे नहीं जा रहे हैं और जो पूछे गए उनका जवाब नहीं है वैसे मामले में सुप्रीम कोर्ट ही तो सरकार से सवाल कर रहा है या कर पा रहा है। अगर उसकी भी सर्वोच्चता न रहे तो बहुमत की सरकार तो समर्थकों के साथ मिलकर मनमानी कर ही सकती है जबकि उसके लिए चुनी नहीं जाती है। और ढेरों अधिकार वाली सरकार अगर पैसे और पद बांट कर समर्थन खरीदने की कोशिश करे तो कुछ भी बहुत मुश्किल नहीं है। ऐसे में सरकार के समर्थक लोकतांत्रिक सरकार की तानाशाही के बावजूद दूसरों के लोकतंत्र को तानाशाही कह सकते हैं और वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तरह तर्कसंगत हो यह जरूरी नहीं है।

दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट के सवालों का जवाब अदालत में सरकार की ओर से चाहे जो दिया जाए पाठकों के लिए सब कुछ आज के अखबार में ही है। मामला पर्याप्त गंभीर है और इसलिए कुछ ज्यादा ही कि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के नियंत्रण में है। सरकार के मुखिया हिन्दुत्व को उभार कर देश को कांग्रेस मुक्त करना चाहते थे और डबल इंजन सरकार की जरूरत बताते रहे हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी इस मुख्य खबर के साथ एक और खबर से बताया है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि वह घृणा फैलाने वाले भाषणों से निपटने के लिए नए कानून बनाने पर विचार कर रही है।

यानी एक तरफ तो ऐसे गंभीर मामले में कार्रवाई नहीं और पूछा गया तो हम नया कानून लाने वाले हैं। कानून जो भी आने वाला हो वह पुरानी तारीख से तो लागू होगा नहीं। अभी जो कानून है उसके अनुसार कार्रवाई होनी चाहिए थी। खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मामला यहीं (केंद्र के पास) आकर रुक जाता है। द हिन्दू ने भी आज खबर को लीड बनाया है और उसका शीर्षक भी यही है। आग लगाने वालों को कपड़ों से पहचानने का दावा और मुंह से आग उगलने के मामलों में कार्रवाई नहीं और पूछने पर जवाब कि नए कानून पर विचार चल रहा है – नालायकी नहीं तो और क्या है?

इसके बाद समझने के लिए कुछ बचा भी नहीं है। रही सही कसर आज टाइम्स ऑफ इंडिया की दूसरी बड़ी खबर से पूरी हो जाती है। टीओआई ने इसे प्रमुखता से पहले पन्ने पर छापा है और यह दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल की बहुचर्चित और बहुप्रतीक्षित बैठक से संबंधित है। हालांकि द हिन्दू ने इसे पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में ही रखा है। टाइम्स में इस खबर के तीन शीर्षक हैं और यही पूरी स्थिति बयान कर देते हैं। सबसे पहले फ्लैग शीर्षक है, तीन महीने बाद मुख्यमंत्री-एलजी की मुलाकात ने नए विवाद को जन्म दिया। मुख्यमंत्री ने कहा, उपराज्यपाल ने अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश मानने से मना कर दिया। इसपर एलजी का जवाब है, मुख्यमंत्री का बयान गलत, गढ़ा हुआ और तोड़ा-मरोड़ा गया है।

मुझे लगता है कि एलजी का जवाब बताता है कि उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है और झूठ का सहारा लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वरना मुख्यमंत्री का आरोप जितना साफ है उसमें उसे तोड़ा-मरोड़ा या गढ़ा हुआ कहने का मतलब तो यही होता है कि उन्होंने कुछ और कहा है और अखबार ने कुछ और छाप दिया है। इसकी संभावना नहीं के बराबर है और इसी से सबकी पोल खुल जाती है। और यह स्पष्ट हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट की सर्वोच्चता क्यों जरूरी है। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट को या उसके जजों को सरकार में आना नहीं है (जिन्हें रिटायरमेंट के बाद पद का लाभ मिला और दिया गया है वह अनुचित और अनैतिक है ही)।

दूसरी ओर नेताओं को सत्ता में बने रहने के लिए ऐसे ही काम करने और करवाने हैं। किसी तरह मंदिर बन जाए, किसी तरह बहुसंख्यक आबादी खुश रहे और किसी भी तरह निष्पक्ष कार्रवाई कर सकने वाले को नियंत्रण में रखा जाए ताकि सत्ता बनी रहे। इसके मुकाबले सुप्रीम कोर्ट के जज की नौकरी में इतने स्वार्थ नहीं होंगे। कम से कम सबके। इसलिए, वहां से उम्मीद निश्चित रूप से नेताओं के मुकाबले बहुत ज्यादा है। और यह पिछले करीब नौ साल में साफ दिख भी रहा है।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।